आपातकाल में संघ का संघर्ष
आपातकाल /25 जून
अजय दिवाकर
कुछ विशिष्ट संदर्भों में स्वतंत्रता को लोकतंत्र का पर्यायवाची भी कह दिया जाता है और यह गलत भी नहीं है। क्योंकि स्वतन्त्रता की कोख से ही लोकतंत्र का जन्म होता है और लोकतंत्र की शीतल छाया में स्वतंत्रता खूब फलती-फूलती व पल्लवित होती है। इस प्रकार स्वतंत्रता और लोकतंत्र का सम्बंध आपस में इतना गुंथा हुआ है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती और यही कारण है कि अनेक बुद्धिजीवी 15 अगस्त, 1947 से पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़े गए भारत के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के संघर्ष जितना ही सम्मान व आदर 25 जून, 1975 को देश पर थोपे गए आपातकाल के विरुद्ध छेड़े गए संघर्ष को देते हैं।
यह आवश्यक है कि भारत के लोकतंत्र को भविष्य में दीर्घकाल तक स्थायी और सुदृढ़ तथा अपने पवित्र संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता को आगे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए हम सभी मिलकर आज 25 जून, 1975 के दिन भारत की जनता पर बलपूर्वक आरोपित तानाशाही की परिस्थितियों, उसकी प्रकृति और स्वरूप की ठीक-ठीक मीमांसा करें और उतना ही आवश्यक यह भी है कि देश की जिन लोकतांत्रिक शक्तियों ने सम्पूर्ण निर्भयता से लोकसम्पर्क, लोकशिक्षण व लोकजागरण के माध्यम से ना केवल देश पर थोपी गई इस विभीषिका का सामना किया बल्कि अंततः उसे परास्त भी किया, उन सभी शक्तियों के सम्मिलित प्रयासों का, उनकी विचार प्रणाली, क्रिया प्रणाली, कार्यशैली और कार्ययोजना का परिचय व अध्ययन करें। ताकि अपनी आने वाली पीढ़ियों को हम एक बेहतर और उन्नत लोकतांत्रिक भारत प्रदान कर सकें।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही साम्राज्यवाद के इस नए अवतार के कठोर और क्रूर रूप ने कांग्रेस और कम्युनिस्टों के अलावा देश में हर किसी को हतप्रभ और किंकर्तव्यविमूढ़ की दशा में ला खड़ा किया था। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने आपातकाल को एक अवसर के रूप में देखा और अपने ग्यारहवें राष्ट्रीय सम्मेलन में आपातकाल का स्वागत किया। सत्ता की ताकत के मद में आकंठ डूबी श्रीमती इंदिरा गाँधी ने सभी प्रकार की संचार प्रणालियों, यथा; पत्र-पत्रिकाओं, मंच, डाक सेवा और निर्वाचित विधान मण्डलों को ठप्प कर दिया था। संचार माध्यमों के ठप्प होते ही देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों का जनता से सम्पर्क लगभग पूरी तरह टूट गया। ऐसे विकट समय में देश को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में आशा की एकमात्र किरण दिखाई दी और सचमुच ही उस एक किरण ने बढ़ते-बढ़ते दोपहर के प्रचण्ड सूर्य के समान अपने तपोबल से तानाशाही शक्तियों को तपाना शुरू कर दिया। आपातकाल के विरोध में संघ के कार्यकर्ताओं के त्याग और बलिदान को देखकर मार्क्सवादी पार्टी के संसद सदस्य एके गोपालन को कहना पड़ा; ‘कोई न कोई उच्चादर्श अवश्य है जो उन्हें (संघ के स्वयंसेवकों को) ऐसे वीरोचित कार्य और त्याग के लिए अदम्य साहस प्रदान कर रहा है’ (इंडियन एक्सप्रेस, 9 जून, 1979)।
संचार माध्यमों को ठप्प करने का गम्भीर प्रभाव अन्य दलों पर पड़ा। लेकिन देशभर में फैले शाखाओं के जाल और समर्पित लाखों कार्यकर्ताओं के कारण संघ पर इसका रंचमात्र भी असर नहीं पड़ा। देश के अन्य सभी दलों के दिग्गज कुछ ही दिनों में गिरफ्तार करके जेलों में ठूंस दिए गए थे। पर संघ के अधिसंख्य भूमिगत कार्यकर्ताओं को पूरा जोर लगाने के बाद भी सरकार अंत तक नहीं पकड़ पायी थी। देशभर में फैले संघ के लाखों कार्यकर्ताओं के घर वह कठोर कवच था, जिसे सरकार का गुप्तचर विभाग भेद नहीं पाया।
आपातकाल की घोषणा के दिन से ही सरकारी कुचक्र ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था और अत्याचार दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे थे। ऐसे समय में देश का धैर्य और उत्साह बनाये रखने का कार्य भी संघ के कार्यकर्ता निरन्तर कर रहे थे। विभिन्न युक्तियों और माध्यमों से संघ के कार्यकर्ता लोकशिक्षण और जागरण के कार्यक्रम जारी रखे हुए थे। जब तानाशाही को खुली चुनौती देकर प्रत्यक्ष मैदान में उतरने की बारी आई, तब भी संघ के स्वयंसेवकों ने इतिहास रचा और सत्याग्रह करने वाले कुल एक लाख तीस हजार सत्याग्रहियों में एक लाख से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। इसी प्रकार सरकार द्वारा बन्दी बनाये गए कुल 30 हजार लोगों में 25 हज़ार से अधिक संघ के कार्यकर्ता ही थे। आपातकाल के विरुद्ध देश के इस पूरे संघर्ष में संघ के सौ से अधिक कार्यकर्ता जेल गए या बलिदान हुए। उनमें संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख पांडुरंग क्षीरसागर भी थे।
आपातकाल के विरोध में किये गए आंदोलन के सम्पूर्ण सूत्र संघ के स्वयंसेवकों ने सम्भाले थे। केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों तक इस तानेबाने को सफलतापूर्वक गूंथने वाले स्वयंसेवक ही थे। राष्ट्रीय शक्तियों के इस प्रचण्ड प्रतिकार का ही परिणाम था कि ‘इंदिरा तेरी सुबह की जय हो, इंदिरा तेरी शाम की जय हो’ की जगह ‘भारत माता की जय’ का घोष पुनः प्रतिष्ठित हुआ।