कन्हैयालाल-उमेश की हत्या किसने की?
बलबीर पुंज
कन्हैयालाल-उमेश की हत्या किसने की?
अमरावती में उमेश और उदयपुर में कन्हैयालाल का ‘सर तन से जुदा’ किसने किया? यदि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियों की मानें, तो 28 जून को उदयपुर में दर्जी कन्हैयालाल की नृशंस हत्या के लिए भाजपा से निलंबित नूपुर शर्मा अकेले जिम्मेदार हैं, जिन्होंने 26 मई को टीवी चर्चा के दौरान उकसाने पर इस्लामी मान्यताओं पर असहज और कटु टिप्पणी कर दी थी। कन्हैया से पहले 21 जून को दवा-विक्रेता उमेश कोल्हे की भी जिहादियों ने गला रेतकर हत्या कर दी थी। प्रश्न है कि क्या नूपुर शर्मा ने कन्हैयालाल-उमेश को मारा?
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश द्वारा की गई टिप्पणी के गंभीर अर्थ होते हैं। आश्चर्य है कि जब नूपुर ने अपने विरुद्ध देश में दर्ज कई प्राथमिकियों को एकबद्ध और दिल्ली हस्तांतरित कराने हेतु शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल की, तो उसे न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की खंडपीठ ने मात्र एक-दो पंक्तियों में लिखित रूप से रद्द करते हुए जो ‘मौखिक अवलोकन’ किया, उसने तीन मुद्दों पर अपनी राय प्रकट कर दी। पहला- नूपुर ‘ईशनिंदा’ और कन्हैयालाल की हत्या के लिए ‘दोषी’ है। दूसरा- नूपुर को जिस प्रकार जान से मारने धमकी मिल रही है, जोकि कोई जुमला या कोरी चेतावनी नहीं है- उस पर खंडपीठ ने न केवल नितांत चुप्पी साधे रखी, अपितु उसके लिए भी नूपुर को ‘जिम्मेदार’ ठहरा दिया। तीसरा- नूपुर का समर्थन किए जाने पर उमेश-कन्हैया का ‘सर तन से जुदा’ कर दिया गया है। यदि नूपुर के पक्ष में अपनी बात रखने वाले लोगों को इस तरह मारा जा रहा है, तो नूपुर के प्राण पर कितना बड़ा संकट है- इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं। बकौल जांच एजेंसियां, कन्हैयालाल की हत्या का निर्देश जिहादियों को पाकिस्तान से मिला था। नूपुर पर खतरा इसलिए भी अमार्जनीय है, क्योंकि कमलेश तिवारी को वर्ष 2015 में पैगंबर साहब पर ओछी टिप्पणी करने और वर्ष 2016 में 10 माह जेल में बंद रहने के बाद 2019 में मौत के घाट उतार दिया गया था।
शीर्ष अदालत की खंडपीठ का मानना था कि नूपुर के वक्तव्य ने देश में आग लगा दी, इसलिए उसने नूपुर को ‘राष्ट्र से माफी मांगने’ की ‘मौखिक सजा’ सुना दी। क्या वाकई नूपुर का बयान ‘ईशनिंदा’ है? मामला न्यायालय में कई प्राथमिकियों को एकबद्ध करने का था, तो अदालत इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा? ऐसे कई मामले समक्ष आ चुके हैं, जिनमें समान आरोपों पर एक से अधिक प्राथमिकियां दर्ज हुई हैं और उन्हें अदालत द्वारा या तो शेष प्राथमिकियों को निरस्त या फिर नत्थी कर दिया गया। नूपुर पर अदालती टिप्पणी के विरुद्ध 15 सेवानिवृत न्यायमूर्तियों, 77 पूर्व नौकरशाहों और 25 पूर्व सैन्य अधिकारी ने खुला पत्र लिखा है। लगभग डेढ़ दशक पहले दिवंगत चित्रकार एमएफ हुसैन के विरुद्ध भारत-माता और हिंदू देवियों की अश्लील तस्वीर बनाने को लेकर आपराधिक मामला दर्ज करने के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हुई थी। तब सितंबर 2008 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्ण ने यह कहकर अर्जी को निरस्त कर दिया था कि, “ऐसे कई चित्र… मूर्तियां मंदिरों में भी हैं।” इसी प्रकार वर्ष 2014 में जब आमिर खान अभिनीत ‘फिल्म पीके’ पर हिंदू आस्था का उपहास करने और नग्नता फैलाने के कारण प्रतिबंध लगाने की याचिका दाखिल हुई, तब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की खंडपीठ ने यह कहकर उसे निरस्त कर दिया, “..यदि आपको यह पसंद नहीं है, तो फिल्म न देखें..।” इस पृष्ठभूमि में क्या यह सत्य नहीं कि नूपुर ने जो टिप्पणी की है, उसकी बानगी अक्सर इस्लामी विद्वानों की तकरीरों में मिलती है और उसका उल्लेख भी इस्लामी वांग्मय में है?
नूपुर की विवादित टिप्पणी का देश-विदेश में तीखा विरोध हुआ था। हिंसक प्रदर्शन करते हुए मुसलमानों की हिंसक भीड़ ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में जमकर आगजनी और पत्थरबाजी करते हुए न केवल “…गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा..” नारा लगाया, अपितु उसे उदयपुर और अमरावती में यथार्थ में भी परिवर्तित किया। इन उग्र-हिंसक प्रदर्शनों को वाम-उदारवादियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त था। यदि नूपुर ‘मुस्लिम भावना को ठेस पहुंचाने’ की ‘अपराधी’ है, तो उसी आधार पर हिंदू आस्था को आहत करने के लिए एमएफ हुसैन और ‘फिल्म पीके’ को कटघरे में क्यों खड़ा नहीं किया गया? क्या इसका कारण हिंदू समाज द्वारा ऐसे ‘दुस्साहसों’ पर शांतिपूर्वक विरोध करना और हिंसा का मार्ग नहीं अपनाना है? यदि नूपुर मामले में शीर्ष अदालत की मौखिक टिप्पणी को आधार बनाएं, तो किसी भी मजहबी आस्था से खिलवाड़ करने का ‘अपराध’ तब ही ‘गंभीर’ या फिर ‘आग लगाने वाला’ माना जाएगा, जब तक उसके विरोध में हिंसक प्रदर्शनों और हत्याओं का दौर न चले? क्या इस प्रकार के न्यायिक विवेक से सभ्य समाज सुरक्षित रह सकेगा?
सच तो यह है कि नूपुर के नाम का उपयोग मजहब प्रेरित संहार के वास्तविक कारणों को छिपाने हेतु किया जा रहा है। आखिर इस विकृति का क्या कारण है? समावेशी भारतीय सनातन संस्कृति में मत भिन्नता और बहुलतावाद अनादिकाल से स्वीकार्य रहा है। यही कारण है कि भगवान गौतम बुद्ध, नानक देवजी, कबीर और स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर गांधीजी और डॉ.भीमराव रामजी अंबेडकर आदि ने कई स्थापित परंपराओं पर प्रश्न उठाए, तब उनका उत्पीड़न तो दूर, भारतीय समाज ने उन्हें सम्मान दिया। इस समरसता को ग्रहण ‘एकेश्वरवादी’ सिद्धांत से लगा, जो सदियों पहले भारत पहुंचा और उसने कालांतर में यहां का सांस्कृतिक-भौगौलिक स्वरूप ही बदल डाला। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर- इसका जीवंत प्रमाण हैं। नूपुर घटनाक्रम के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि यह विषाक्त चिंतन, शेष खंडित भारत को भी अपने नागपाश में जकड़ने लगा है, जिसे वामपंथी-सेकुलर-उदारवादी कुनबे का आशीर्वाद प्राप्त है। कुछ सेकंड की टिप्पणी पर नूपुर का ‘सर तन से जुदा’ करने की धमकी और नूपुर का समर्थन करने वालों की नृशंस हत्या- इसका उदाहरण है।