… और कांग्रेस ने विभाजन स्वीकारा !

... और कांग्रेस ने विभाजन स्वीकारा !

विभाजन की चुभन- 3

प्रशांत पोळ

... और कांग्रेस ने विभाजन स्वीकारा !और कांग्रेस ने विभाजन स्वीकारा !

अपने देश में चालीस का दशक अत्यंत उथल-पुथल वाला रहा। दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। ब्रिटिश सरकार के विरोध में जनमत तीव्र हो रहा था। विश्व युद्ध समाप्त होने के पश्चात् भारत को स्वतंत्रता दी जाएगी, ऐसी ब्रिटिश सरकार ने घोषणा भी की थी। किन्तु स्वतंत्रता जब सामने दिखने लगी, तो मुस्लिम लीग ने अपने आक्रमण तेज कर दिए। देश में अनेक स्थानों पर दंगे भड़के। दंगों के माध्यम से खौफ निर्माण करने का काम मुस्लिम लीग कर रही थी।

मुस्लिम लीग पाकिस्तान की मांग कर रही थी। प्रारंभ में तो कांग्रेस भी बंटवारे के विरोध में थी। गांधीजी ने ऐतिहासिक भाषण दिया था, जिसमे उन्होने कहा था की, ‘पहले मेरे शरीर के टुकड़े होंगे, फिर इस देश का विभाजन होगा..!’

इस देश के करोड़ो लोगों ने गांधीजी को अपना नेता माना था। ‘महात्मा’ की पदवी से नवाजा था। उन्हें पूरा विश्वास था गांधीजी पर। लेकिन 4 जून 1947 को, दिल्ली की प्रार्थना सभा में गांधीजी ने यह विश्वास तोड़ दिया। उन्होंने, कांग्रेस पार्टी विभाजन का समर्थन क्यों कर रही हैं, इसलिए तर्क दिए… गांधीजी ने बंटवारे का समर्थन किया..!

विभाजन नहीं होगा, ऐसा मानने वाले करोड़ों लोग इस घटना से टूट गए। विशेषतः सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर यह बहुत बड़ा आघात था। वे विभाजन के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने विस्थापन के बारे में सोचा ही नहीं था। गांधीजी फिर भी कह रहे थे कि, ‘प्रस्तावित पाकिस्तान से हिन्दुओं को विस्थापित होने की कोई आवश्यकता नहीं है…।’

लेकिन डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ज्यादा व्यावहारिक थे। गाधीजी, नेहरू और जिन्ना की नीतियों का उन्होंने पुरजोर विरोध किया था। अपने पुस्तक ‘थॉट ऑन पाकिस्तान’ में उन्होंने लिखा है – “श्री गांधी अस्पृश्यों को तो कोई भी राजनीतिक लाभ देने का विरोध करते हैं, लेकिन मुसलमानों के पक्ष में एक कोरे चेक पर हस्ताक्षर करने तैयार बैठे हैं।” आंबेडकर जी की मूल चिंता थी कि ‘आखिर कांग्रेस द्वारा इतना पालने पोसने के बाद भी मुसलमान अलग देश की मांग क्यों कर रहे हैं..?’

बाबासाहब आंबेडकर मूलतः अखंड भारत के समर्थक थे। उन्होंने लिखा है, ‘प्रकृति ने ही भारत को अखंड बनाया है।’ लेकिन वास्तविक धरातल पर उन्होंने द्विराष्ट्र वाद का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि मुसलमानों का हिन्दुओं के साथ सह-अस्तित्व संभव ही नहीं हैं। इसलिए उन्हें अलग राष्ट्र देना ही ठीक रहेगा। लेकिन एक शर्त पर – हिंदुस्तान के सारे मुसलमान प्रस्तावित पाकिस्तान में जायेंगे और वहां के सारे हिन्दू हिंदुस्तान में आयेंगे..! उनके शब्द हैं, “When partition took place, I felt that God was willing to lift his curse and let India be one great and prosperous” (जब विभाजन हुआ तो मुझे लगा मानो ईश्वर ने हमें दिया हुआ अभिशाप (श्राप) हटा लिया है और अब भारत एक महान और समृद्ध राष्ट्र बनेगा)। – डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, पहला खंड, पृष्ठ 146.

दुर्भाग्य से कांग्रेस ने भारत विभाजन का प्रस्ताव तो स्वीकार किया, किन्तु जनसंख्या की अदला-बदली को सिरे से नकारा… इसका परिणाम रहा, इतिहास के सबसे दर्दनाक दंगे। लाखों लोगों की मृत्यु। करोड़ों लोगों का बिना किसी योजना के बलात विस्थापन..!

15 अगस्त जैसे जैसे निकट आ रहा था, वैसे वैसे बंगाल, पंजाब और सिंध में दंगे बढ़ रहे थे। हिन्दुओं को घर-बार छोड़ने के लिए विवश किया जा रहा था…।

ऐसे समय हमारा नेतृत्व क्या कर रहा था..?

अगस्त, 1947 के पहले और दूसरे सप्ताह में नेहरू व्यस्त थे, सत्तांतरण के कार्यक्रम की तैयारी में। उनकी बहन कृष्णा हाथिसिंग लिखती हैं – Jawahar was concerned about his wardrobe. 14 अगस्त के रात वाले समारोह में पहनने के लिए नेहरू ने अचकन और जैकेट पेरिस से मंगवाए थे। सीमा पर हो रहे दंगों की चिंता करने के बजाय, अपने कपड़ों की चिंता नेहरू को थी। लॉर्ड माउंटबेटन को नेहरू आश्वस्त कर रहे थे कि स्वतंत्रता के बाद भी भारत की सरकारी इमारतों पर, ब्रिटेन के शासकीय महत्व के दिनों में, यूनियन जैक फहराया जाएगा..!

लेकिन जब पंजाब और सिंध जल रहा था, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरूजी 5 अगस्त से 8 अगस्त तक सिंध के दंगा पीड़ित क्षेत्रों में (जो अब पाकिस्तान में हैं) थे। कराची के हवाईअड्डे पर श्री गुरूजी को लेने के लिए जिस भारी मात्रा में स्वयंसेवक आये थे, उसके एक चौथाई भी लीगी कार्यकर्ता, जिन्ना को लेने नहीं आए थे…!

श्री गुरुजी ने धधकते वातावरण में कराची और हैदराबाद (सिंध) में स्वयंसेवकों की बैठके लीं। साधु वासवानी जी के साथ सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। लोगों को ढांढस बंधाया।

श्री गुरुजी के पश्चात् 13 अगस्त को राष्ट्र सेविका समिति की तत्कालीन प्रमुख संचालिका वन्दनीय मौसी केलकर भी कराची पहुचीं। 14 अगस्त को, अर्थात जिस दिन पाकिस्तान का निर्माण हो रहा था, ठीक उसी दिन, उसी कराची शहर में मौसी केलकर जी ने समिति की बहनों की एक विशाल बैठक ली। साहस और समर्पण इसे कहते हैं !

उस अशांत परिस्थिति में जब संघ, समिति और आर्य समाज के अधिकारी और कार्यकर्ता, लोगों को ढांढस बंधा रहे थे, उनके सुरक्षित भारत लौटने के प्रबंध कर रहे थे, तब देश का कांग्रेसी नेतृत्व दिल्ली में राज्यारोहण की खुशिया मनाने में व्यस्त था…!

(क्रमशः)

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