कारगिल विजय दिवस की 23 वीं वर्षगांठ और बदलते भारत के मायने
डॉ. ऋतुध्वज सिंह
कारगिल विजय दिवस की 23 वीं वर्षगांठ और बदलते भारत के मायने
26 जुलाई, 1999 (कारगिल विजय दिवस) से अब तक 23 वर्ष बीत चुके हैं। देशवासी एक बार फिर मई-जुलाई 1999 में पाकिस्तान के साथ लगभग तीन महीने के लंबे संघर्ष में कारगिल की ऊंचाई पर बलिदान हुए 527 सैनिकों को श्रद्धांजलि और घायल हुए 1100 से अधिक सैनिकों को सहानुभूति अर्पित करेंगे। ऐसे आयोजनों का होना भी आवश्यक है। इस दिन भारतीय सेना के जाँबाज सैनिकों ने दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़ते हुए और असंख्य बाधाओं से जूझते हुए विजयश्री का वरण किया था। यही वे क्षण हैं जब देश का हर नागरिक भारतीय होने पर गर्व का अनुभव करता है और देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के उत्साह से भर उठता है। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो इस उत्सव का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्योंकि स्वाधीनता के 75 वर्षों की लंबी यात्रा में हमने ऐसे अनेक पड़ाव देखे हैं, जिनमें यह हिसाब लगाना कठिन होगा कि क्या खोया और क्या अर्जित किया फिर भी इस प्रश्न पर विचार आवश्यक होगा कि इतिहास से क्या सीखा क्योंकि वर्षगांठ जैसे उत्सवों की प्रासंगिकता इसी बात पर निर्भर करती है कि इतिहास में जो गलतियां की गई थीं उनकी पुनरावृत्ति न होने पाए।
26 जुलाई 1999 को जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने सेना के ऑपरेशन विजय की सफलता की घोषणा की तो उस यादगार भाषण में उन्होंने कहा था, “हम शांति की स्थापना करेंगे लेकिन संघर्ष से पीछे नहीं हटेंगे। कारगिल क्यों हुआ इसकी समीक्षा करेंगे जिससे भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो।” समीक्षा की गई परंतु इसे दुर्भाग्य कहें या राजनैतिक वैमनस्य कि एक लंबे अर्से तक इस पर कोई विशेष कार्य नहीं हुआ।
कारगिल युद्ध की समाप्ति के मात्र तीन दिन बाद अर्थात 29 जुलाई 199 को भारत सरकार ने कारगिल युद्ध के कारणों पर समीक्षा के लिए वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति का गठन किया। इस समिति को नाम दिया गया कारगिल समीक्षा समिति (KRC)। समिति में के. सुब्रमणियम (अध्यक्ष, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद), लेफ्टिनेंट जनरल के के हजारी (पूर्व थल सेनाध्यक्ष), बी.जी. वर्गीस तथा सतीश चन्द्रा (सचिव सुरक्षा परिषद) सहित चार लोग थे। समिति ने बड़े ही कम समय में गहन शोध के उपरांत 7 जनवरी 2000, को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई को सौंप दी। पुस्तक की शक्ल में छपी इस रिपोर्ट का शीर्षक है ‘फ्रॉम सरप्राइज टू रेकनिंग’। इसमें जनरल परवेज मुशर्रफ (पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख) और उनके चीफ ऑफ स्टाफ ले. जनरल मोहम्मद अजीज खान के बीच हुई बातचीत का ब्योरा भी है। इस रिपोर्ट में पाकिस्तानी सैनिकों की उन डायरियों का भी उल्लेख है, जो इस बात का सबूत हैं कि कारगिल युद्ध की योजना पाकिस्तानी सेना द्वारा काफी सोच-समझ कर षड्यंत्र पूर्वक बनाई गई थी। इसके अलावा, रिपोर्ट में समाचार पत्रों की कटिंग, पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकियों और सैनिकों से हुई पूछताछ में हुए खुलासे भी शामिल हैं। ये सभी सीक्रेट डाक्युमेंट्स हैं। समिति का स्पष्ट निष्कर्ष है कि यह पूरा मामला हमारे गुप्तचर विभागों की चूक का परिणाम है। इसके साथ ही आपसी समन्वयन का अभाव भी इसका एक महत्वपूर्ण कारण बताया गया। खुफिया एजेंसियों ने एक दूसरे के इनपुट्स को संयुक्त करने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया।
समिति के सुझाव
22 अध्यायों में विभाजित इस रिपोर्ट को आज तक पूर्ण रूप से सार्वजनिक नहीं किया जा सका, इसके पीछे के कारणों की भी जांच होनी चाहिए। फिलहाल आवश्यक यह है कि इस बात की समीक्षा की जाए कि विगत 23 वर्षों में हमने पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी के उस आश्वासन के संदर्भ में क्या किया जिसमें यह कहा गया था कि जहां चूक हुई उन कमियों को पूरा करेंगे ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
1999 की तुलना में आज के भारत की समीक्षा करें तो काफी कुछ बदल गया है। KRC की रिपोर्ट में एक बड़ा मुद्दा कोऑर्डिनेशन का था। इस हेतु भारत सरकार ने 24 दिसंबर 2019 को सेना में CDS का पद सृजित किया, जिससे आपसी तालमेल ठीक किया जा सके। गृह मंत्रालय में सैन्य कार्य विभाग की स्थापना तथा कोऑर्डिनेशन क्वार्ड विकसित करना भी उस ओर एक महत्तवपूर्ण कदम है। इसके साथ ही अग्निवीर जैसी योजनाएं जो सेना को न केवल युवा बनाने बल्कि नई तकनीक से सुसज्जित करने तथा पहले से अधिक सक्षम बनाने की ओर एक बड़ी पहल है।
पिछले दिनों भारतीय सेना को 50 वर्षों में चीन के साथ सबसे गंभीर सैन्य टकराव का सामना करना पड़ा है। महामारी के बीच 2020-21 में चीनी सेना की भारतीय क्षेत्र में अवैध घुसपैठ ने भारतीय सेना को चौंका दिया और भारत को चौकन्ना कर दिया है। गलवान संकट ने भारतीय सेना के लिए नए युग की प्रौद्योगिकियों, मुख्य रूप से ड्रोन और साइबर युद्ध के महत्व को रेखांकित करते हुए आवश्यक बदलावों की अपरिहार्यता स्पष्ट कर दी है। वर्तमान सरकार इन सुधारों पर तेजी से आगे बढ़ रही है।
भारत का रक्षा बजट लगातार बढ़ा है। वर्ष 2013-14 से देश का रक्षा बजट अब लगभग दोगुना हो चुका है। यह लगभग 5.25 लाख करोड़ रुपये है। आत्मनिर्भर भारत अभियान के अंतर्गत हमने एडवांस डिफेंस इक्विपमेंट्स का घरेलू उत्पादन प्रारंभ किया है। अभी समाप्त हुए वित्त वर्ष में भारत ने 11,607 करोड़ रुपये का रक्षा निर्यात किया। जबकि वर्ष 2014-15 में यह 1,941 करोड़ रुपये का था। 2017-21 में रक्षा आयात 21 प्रतिशत कम हुआ है। रक्षा आयात कम होने से प्रतिवर्ष लगभग 3,000 करोड़ रुपये बचेंगे। बीते आठ वर्षों में भारत रक्षा क्षेत्र में न केवल स्वयं मजबूत हुआ है बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को भी हथियार बेचने की शुरुआत कर रहा है। सरकार का लक्ष्य है कि 2024-25 तक रक्षा निर्यात को बढ़ाकर 36,500 करोड़ किया जाए। सरकार का ध्यान स्वदेशी हथियार निर्माण पर अधिक है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्र ने आर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड और 41 आयुध निर्माणी फैक्ट्रियों को मिलाकर रक्षा क्षेत्र में सात सार्वजनिक उपक्रम (डीपीएसयू) बना दिए हैं। इसका उद्देश्य प्रशासनिक चुस्ती के साथ कामकाज में पारदर्शिता और तेजी लाना है। बीते आठ वर्ष में भारत के रक्षा निर्यात में लगभग छह गुना वृद्धि हुई है। फिलीपींस के साथ 2,770 करोड़ रुपये का रक्षा सौदा मील का पत्थर है। रक्षा क्षेत्र में इस संकल्प को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने नौसेना के लिए 75 स्वदेशी तकनीकों और उत्पादों के विकास के कार्यक्रम की शुरुआत की है। वर्तमान में देश के भीतर 30 युद्धपोतों और पनडुब्बियों के निर्माण का कार्य चल रहा है. चार युद्धपोत नौसेना के बेड़े में जल्दी ही शामिल होंगे। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि रक्षा बजट का बड़ा हिस्सा भारतीय कंपनियों से अनिवार्य खरीद के लिए चिह्नित किया गया है. फ्रांस, रूस, इजरायल, फिलीपींस समेत अनेक देशों के साथ भारतीय कंपनियां कारोबारी समझौते कर रही हैं, जिनके तहत भारत में कई अहम चीजों और पुर्जों का निर्माण होगा तथा रक्षा तकनीक का विकास किया जायेगा।
भविष्य के युद्धों में सैनिकों की संख्या से ज्यादा महत्वपूर्ण उनकी दक्षता, अत्याधुनिक हथियार और उपकरण, सूचना-तकनीक ढाँचा आदि होंगे। इसलिए भारतीय सेना को नयी जरूरतों के अनुसार तैयार किया जाना आवश्यक है तथा नया भारत इसके लिए कटिबद्ध खड़ा है।
(लेखक देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार में सहायक प्राध्यापक हैं)