कितना बदला बिहार : राजद के पन्द्रह साल बनाम जदयू के पन्द्रह साल

कितना बदला बिहार : राजद के पन्द्रह साल बनाम जदयू के पन्द्रह साल

आशीष कुमार ‘अंशु’

कितना बदला बिहार : राजद के पन्द्रह साल बनाम जदयू के पन्द्रह साल

बिहार के चुनाव पर देशभर की नजर है। एक तरह नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन है तो दूसरी ओर लालू पुत्रों के नेतृत्व वाला महागठबंधन। एक तरफ नीतीश कुमार के पंद्रह सालों के कथित सुशासन की बात हो रही है, तो दूसरी ओर लालू के पंद्रह सालों के कथित जंगलराज की। बिहार की राजनीति इस तरह की है कि वहां चुनावी सर्वेक्षण और रैलियों में आ रही भीड़ भी किसी संभावना की तस्वीर बना पाने में असमर्थ है। इस बार चुनावी सर्वेक्षण पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वहां जिस तरह का सैंपल साइज लिया जा रहा है। वह बिहार के मतदाताओं की तुलना में बहुत ही छोटा है। कई सर्वेक्षण संस्थान तो सभी विधानसभाओं में जा भी नहीं रहे। इससे कैसे सही परिणाम सामने आ सकता है? यदि परिणाम सर्वेक्षणों के आस—पास भी आए तो यह तुक्का ही होगा। एक सर्वेक्षण तो खुद बताता है कि 12—13 प्रतिशत लोगों ने बताया ही नहीं कि वे कहां वोट डालेंगे? उसके बाद जो परिणाम सामने आए हैं, उसमें कितनी सच्चाई होगी? आम बिहारी अपनी राय जाहिर करने में डर रहा है। इसलिए बिहार चुनाव के सही परिणाम को जानने के लिए 10 नवम्बर तक इंतजार करना होगा। यही एक मात्र विश्वसनीय विकल्प है।

2020 के विधानसभा चुनाव में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जैसे तेजस्वी यादव बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। इसके लिए वामपंथी मीडिया और मोबाइल पत्रकार काफी मेहनत कर रहे है। इस कांग्रेस इको सिस्टम के वामपंथी रुझान वाले पत्रकारों का ही वजह से नीतीश कुमार को चुनाव प्रचार के दौरान तनाव में दिखाया जा रहा है। जिससे उनकी भाव भंगिमा को एक खास फ्रेम में दिखाकर उनके तनाव को उनकी हार साबित करने की कोशिश हो रही है। यह भी दिखाया जा रहा है कि तेजस्वी की रैली में बड़ी भीड़ आ रही है। लेकिन कोई यह नहीं बता रहा है कि यह भीड़ 2019 में भी राजद के कार्यक्रमों में इकट्ठी हुई थी। एक भी सीट नहीं मिली राजद को।

लेकिन राजद की वापसी के बनाए जा रहे माहौल में इस वक्त बिहार के मतदाताओं के बीच खौफ का माहौल साफ दिख रहा है। विभिन्न राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं को छोड़कर कोई खुलकर जाहिर नहीं कर रहा कि वह किस तरफ है। यह खौफ 15 साल पुराना है। लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री काल का खौफ। जब शाम छह बजे के बाद सड़कों पर लॉक डाउन पसर जाता था। घर से निकला व्यक्ति शाम को जब तक घर लौट कर ना आ जाए, घर के सदस्यों की चिन्ता बनी रहती थी। लालू प्रसाद के राज को यूं ही जंगलराज का मैडल नहीं दिया गया था। जहां अपहरण सबसे बड़ा उद्योग था।

यह प्रश्न अक्सर सामने आ ही जाता है कि बिना लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल की चर्चा किए हम नीतीश के कार्यों की समीक्षा क्यों नहीं कर सकते? जब तक हमें यह पता नहीं होगा कि 2005 में नीतीश को क्या मिला था, तब तक हम नहीं समझ पाएंगे कि पन्द्रह सालों में नीतीश बिहार को लेकर कहां तक आए हैं? लालू के बिहार में रोजगार नहीं था और अपहरण सबसे बड़ा कारोबार था। किसी भी व्यावसायी की कभी भी हत्या हो सकती थी। अराजकता के शिखर पर बैठे बिहार में कानून का राज फिर से बहाल करना आसान काम नहीं था, जो नीतीश ने किया। उस दौर में बिहार के अंदर ना शिक्षा थी, ना रोजगार, ना सड़क, ना बिजली, ना लालू के सरकार से यह सब मांगने की किसी में हिम्मत थी। बिहार की जनता में लालू प्रसाद की छवि को उनके बेटे समझते हैं इसलिए अपने सजायाफ्ता पिता की तस्वीर तक चुनावी पोस्टर में लगाने से उन्होंने परहेज किया।

भोपाल से प्रकाशित पत्रिका ‘विचार मीमांसा’ के लिए पत्रकार अखिलेश अखिल ने 1996 में ‘बंदर के हाथ में बिहार’ शीर्षक से आवरण कथा लिखी थी। उन दिनों लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री होते थे और बिहार में उनका ‘जंगलराज’ काल चल रहा था। पत्रिका में लेख प्रकाशित होने के बाद पत्रिका के अंकों को ना सिर्फ गंगा में बहाया गया बल्कि पत्रकार पर जानलेवा हमला हुआ। यह लालूराज की दहशत थी कि रिपोर्ट के बाद पत्रिका बंद हुई और पत्रकार को बिहार छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।

बीते पन्द्रह सालों में अब नीतीश कुमार के कार्यकाल की बात करें। इन पन्द्रह सालों में प्रवासी बिहारियों के अंदर यह विश्वास जगा है कि वे अपने घर लौट सकते हैं। पूर्णिया, सहरसा, बेतिया, दरभंगा, भागलपुर, मुजफ्फरपुर कहीं भी कारोबार कर सकते हैं। बिहारी पहचान अब शर्मिन्दगी की बात नहीं रह गई है। बिहार के 50 फीसदी से अधिक हिस्से में नल से सीधा पानी घर तक पहुंच रहा है। घर—घर शौचालय बना। गांव—गांव, टोले—टोले सड़क पहुंची, जहां दिन में दस मिनट के लिए बिजली आया करती थी, उन गांवों में 22—22 घंटे बिजली रहने लगी है।

यह सच है कि बिहार में ऐसी बड़ी आबादी है, जिसे पन्द्रह सालों के कार्यकाल के बाद लगता है कि बिहार में सत्ता परिवर्तन होना चाहिए। लेकिन विकल्प के तौर पर लालू प्रसाद और उनका परिवार उसे नहीं चाहिए। आने वाले समय में चिराग पासवान जरूर नीतीश के एक मजबूत विकल्प के तौर पर नजर आते हैं।

लालू प्रसाद यादव 1990 से लेकर 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री स्वयं रहे और फिर 1997 से लेकर 2000 तक अपनी धर्मपत्नी राबड़ी देवी के मार्फत बिहार को उन्होंने चलाया। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री बनने के पूर्व राबड़ी देवी का नाम तक बिहार के भावी मुख्यमंत्री बनने वालों की सूची में शामिल नहीं था। चारा घोटाला में नाम आने के बाद पार्टी के अंदर मुख्यमंत्री बनने के लिए लालू प्रसाद के विकल्प के तौर पर योग्य नेतृत्व राजद के अंदर मौजूद था लेकिन लालू प्रसाद यही चाहते थे कि उनकी सत्ता उनके परिवार के पास ही रहनी चाहिए। बिहार का विकास उनकी प्राथमिकता में नहीं था।

1992 में लालू प्रसाद को कटिहार के खैरा प्रखंड में सुनने का मौका मिला था, उन्होंने मंच से आह्वान किया— पढ़ना लिखना सीखो भेड़ चराने वालो, पढ़ना लिखना सीखो मेहनत करने वालो।”लेकिन लालू प्रसाद अपने उत्तराधिकारी तेजस्वी और तेजप्रताप को उच्च शिक्षा दिलाने में सफल साबित नहीं हो सके और जिन सात बेटियों ने बेटों से अच्छी शिक्षा हासिल की, उन्हें उत्तराधिकार के लायक नहीं समझा। दुर्भाग्य की बात है कि कांग्रेस इको सिस्टम के किसी जर्नालिस्ट या फेमिनिस्ट को यह बात आपत्ति के काबिल नहीं लगी।

खुद अपने जीवन में शिक्षा को गम्भीरता से ना लेने वाले दोनों भाइयों से बिहार यह अपेक्षा रख सकता है कि वे बिहार की शिक्षा व्यवस्था को सुधारने में कोई गम्भीर पहल करेंगे। क्योंकि तेजप्रताप हैं बारहवीं पास और तेजस्वी यादव हैं दसवीं फेल।

(लेखक मीडिया स्कैन जनसंचार समूह के निदेशक हैं)

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