परम्परागत कीट और रोग प्रबंधन, स्वयं तैयार करें कीटनाशक
डॉ. शुचि चौहान
परम्परागत कीट और रोग प्रबंधन, स्वयं तैयार करें कीटनाशक
परम्परागत कीट और रोग प्रबंधन पर्यावरण के लिए वरदान है। बावजूद इसके रासायनिक कीटनाशकों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। एक समय था जब भारत में जैविक खेती ही होती थी और जैविक कीटनाशक ही काम में लिए जाते थे। लेकिन देश में जैसे जैसे पश्चिमी देशों का प्रभाव बढ़ा, हम अपनी मूल पहचान व विरासत से दूर होते गए।
आज हम बात करेंगे कुछ ऐसे ही परम्परागत कीटनाशकों और रोग प्रबंधन की, जो हमारी विरासत रहे हैं। इन कीटनाशकों को हम स्वयं अपने घर या खेत में तैयार कर सकते हैं। ये पर्यावरण के अनुकूल तो हैं ही, मानव शरीर को भी कोई हानि नहीं पहुंचाते।
बोर्डो मिश्रण
यह बहुत ही असरकारक कवकनाशक है। इसे बनाने के लिए 1:1:100 के अनुपात में नीला थोथा, बिना बुझा चूना और पानी लें। एक किलो नीले थोथे को मिट्टी या प्लास्टिक के बर्तन में 10 लीटर पानी में भिगोकर 6-7 घंटों के लिए छांव में रख दें। यही प्रक्रिया चूने के साथ दोहराएं। इसके बाद एक अलग बर्तन में एक एक कर दोनों को मलमल के कपड़े से छान लें। अब इस मिश्रण में लोहे की कील या चाकू को दो मिनट डुबोकर रखें। यदि तांबे के कण लोहे पर जम जाएं तो इसमें थोड़ा चूना मिलाकर पुन: परीक्षण करें। यदि लोहे पर तांबे के कण नहीं जमते हैं, तो मानना चाहिए कि मिश्रण ठीक बना है। अब इस 20 लीटर मिश्रण को 80 लीटरपानी में घोल लें। आपका बोर्डो मिश्रण तैयार है। अंगूर की बेल, फलों के पेड़, आलू, टमाटर, मिर्च, स्ट्रॉबेरी आदि के पौधों पर यह अत्यधिक प्रभावी है। इसका उपयोग पौधे को स्वस्थ रखने के लिए बीमारी लगने से पहले किया जाना चाहिए। बीमारी लग जाने के बाद यह अधिक असर नहीं करता क्योंकि घोल फंगस के स्पोर्स पर ही प्रभावी है।
ट्राइकोडर्मा
मिट्टीजनित फंगस संक्रमण से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा का प्रयोग किया जाता है। ट्राइकोडर्मा स्वयं एक प्रकार का फंगस है। जो मिट्टी में पाया जाता है और मिट्टी के हानिकारक फफूंद को नष्ट करके पौधों को स्वस्थ्य व निरोग बनाता है। रासायनिक खादों के लगातार प्रयोग से मिट्टी में इसकी गुणवत्ता प्रभावित होती है। इसे बनाए रखने के लिए ट्राइकोडर्मा कल्चर करके मिट्टी में मिलाया जाता है और बुवाई से पहले बीजों को भी इससे उपचारित किया जाता है।
ट्राइकोडर्मा को पारम्परिक रूप से गोबर के उपलों में कल्चर किया जाता है। इसके लिए छायादार स्थान का चयन कर उपलों को पानी से गीला कर के कूटा जाता है। अच्छी तरह कुट जाने पर उच्चकोटि का ट्राइकोडर्मा (28 किलो उपलों में 60 ग्राम ट्राइकोडर्मा) इसमें मिलाकर ढेर को पुराने जूट के बोरे से अच्छी तरह ढंक दिया जाता है और बोरे को ऊपर से पानी से भिगो देते हैं। 12-16 दिनों के बाद ढेर को फावड़े से नीचे तक उलट पलट कर पुनः बोरे से ढंक देते हैं। पूरी प्रोसेस के दौरान बोरे को गीला ही रखा जाता है, ताकि गोबर में नमी बनी रहे। लगभग 18 से 20 दिनों के बाद हरे रंग की फफूंद ढेर पर दिखाई देने लगती है। 28 से 30 दिनों में ढेर पूरी तरह से हरा दिखाई देने लगता है। इस ढेर का उपयोग मिट्टी के उपचार के लिए किया जाता है।
गोमूत्र व तम्बाकू से बना कीटनाशक
यह बालदार सुंडी से फसल का बचाव करने में अत्यंत प्रभावी है। इसे बनाने के लिए 10 लीटर गोमूत्र में 250 ग्राम नीला थोथा, एक किलो तम्बाकू की सूखी पत्तियां और एक किलो नीम की पत्तियां डालकर बंद डिब्बे में रख दिया जाता है। 20 दिन में सांद्र कीटनाशक तैयार हो जाता है। 1:100 लीटर पानी के अनुपात में इसका स्प्रे करने से सुंडिया मर जाती हैं।
गोमूत्र और लहसुन से बना कीटनाशक
इस कीटनाशक से रस चूसने वाले कीटों को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए आधा किलो लहसुन को कूटकर 50 मिली मिट्टी के तेल में मिलाकर पेस्ट बना लेते हैं, फिर इस पेस्ट को 10 लीटर गोमूत्र में डालकर 24 घंटे के लिए ढंक कर रख देते हैं। फिर इसमें 100 ग्राम रसोई में काम आने वाला साबुन अच्छी तरह मिलाकर कपड़े से छान लेते हैं। कीटनाशक तैयार है।
नीम की पत्तियों व गोमूत्र से बना कीटनाशक
यह सभी प्रकार के कीटों मिली बग, इल्ली, मक्खी आदि पर प्रभावी है। इसे बनाने के लिए 5 लीटर गोमूत्र में 2 किलो गाय का गोबर व 5 किलो नीम की पत्तियां पीसकर डालें। अच्छी तरह से हिलाएं और 3-4 दिनों के लिए छायादार स्थान पर कपड़े से ढंक कर रख दें। इस बीच घोल पूरी तरह फर्मेंट हो जाएगा। अब इसको दूसरे मटके या प्लास्टिक के बर्तन में छान लें। एक लीटर घोल को 100 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
इनके अलावा केंचुआ खाद और जीवामृत का प्रयोग करें। पौधा स्वस्थ होगा तो उसमें वैसे ही रोग कम लगेंगे। अलग अलग फसल चक्र अपनाएं। मई, जून में जब कोई फसल नहीं होती है, तब खेत को जोतकर छोड़ दें। सूरज की तेज किरणें भी कीटनाशक का काम करती हैं। बारिश में ढैंचा, ग्वार आदि बोएं और एक फुट का होने पर उसे खेत में ही जोत दें। फिर खेत तैयार करके फसल लें। ऐसी अनेक बातें हैं, जिनका ध्यान रखा जाए तो हानिकारक रसायनों पर निर्भरता कम की जा सकती है।