कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

प्रणय कुमार

सुख-साधन-सत्ता-प्रसिद्धि के शिखर पर आरूढ़ व्यक्ति भी जब आत्महत्या जैसे पलायनवादी विकल्पों का चयन करते हैं तो मेरा मन क्षुब्ध हो उठता है; क्षुब्ध हो उठता है मेरा मन जब मैं पाता हूँ कि जीवन रूपी वरदान पर मार-तमाम लोग एक छोटी-सी हार, एक अतृप्त अभिलाषा, एक असफलता, कुछ अनियंत्रित-अदम्य महत्त्वाकांक्षा या किसी कथित उपेक्षा-अपमान को अधिक वरीयता देते हैं। जब मैं अखबारों के पन्नों में आत्महत्या जैसी खबरों को सुर्खियाँ बटोरते पाता हूँ, तब बहुत क्षोभ होता है, बहुत क्षोभ होता है तब, जब मैं पाता हूँ कि आईआईटी-आईआईएम जैसे उच्च संस्थानों में पढ़ने वाले या पढ़कर निकले छात्र भी आत्महत्या जैसे अतिवादी, कायरतापूर्ण विकल्पों का चयन करते हैं। क्या हमारी शिक्षा हममें इतना भी आत्मविश्वास नहीं पैदा कर पाती कि हम जीवन के उतार-चढ़ाव का साहस और धैर्य के साथ सामना कर सकें?

मेरा मानना है कि आत्महत्या हत्या से भी अधिक कुत्सित और घृणित कृत्य है, क्योंकि हत्या के पीछे निहित स्वार्थ या प्रतिशोध की दुर्भावना काम कर रही होती है, पर यहाँ तो केवल कायरता और पलायनवादिता के अतिरिक्त और कोई ठोस कारण नहीं होता। हत्या की यंत्रणा जितनी गहरी होती है, आत्महत्या की यंत्रणा उससे भी गहरी होती है, आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपने घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार को अनगिनत सवालों से जूझने के लिए अकेला छोड़ जाता है, हर आँख उसे संदेह के घेरे में ले रही होती है। इच्छामृत्यु की विवशता और आत्महत्या की मनोवृत्ति में बहुत फ़र्क होता है  मुझे तो कई बार यह लगता है कि आत्महत्या करने वाले युवा-स्वस्थ लोग सहानुभूति नहीं उपेक्षा के पात्र अधिक हैं, चाहे उन्होंने कैसी भी मज़बूरी में ऐसा निर्णय क्यों न लिया हो? कोई भी मज़बूरी मनुष्य के मनोबल से बड़ी नहीं हो सकती! कायर और भगोड़े लोग आत्महत्या करते हैं और समाज एवं संघर्षरत युवाओं को भी पलायन का पाठ पढ़ा जाते हैं। सफलता के उतावलेपन में ही ऐसे निर्णय लिए जाते हैं। इतिहास ऐसे आत्महंताओं को योद्धा की भाँति याद नहीं करता! कोई भी मज़बूरी, कोई भी समस्या, कोई भी चुनौती इतनी बड़ी नहीं कि उससे पार नहीं पाया जा सके। आप किस सपने के टूटने की बात करते हैं? क्या आपका सपना आपके माता-पिता, घर-परिवार से बड़ा है? आपने तो उन्हें जीते-जी मार दिया? वे आपको याद करते-करते स्वयं को दंड देने लगते हैं, सभी को शक-संदेह से देखने लगते हैं, जीवन से उनका मोहभंग हो जाता है!लोगों पर से उनका सहज विश्वास ही उठ जाता है। आपसे बढ़कर उनके लिए कोई और सपना नहीं था, आप ही उनके सपनों के जीवित-जाग्रत स्वरूप थे, आपने तो एक नहीं अनेक सपनों का गला घोंट दिया!

क्या हुआ कि आपका आईआईटी, मेडिकल, मैनेजमेंट कोर्सेज़ में चयन नहीं हुआ; क्या हुआ कि आपने अच्छा स्कोर नहीं किया; क्या हुआ कि आपने जीवन से जो चाहा था, वैसा नहीं मिला; क्या हुआ कि आपको कोई भी समझ नहीं पाया; क्या हुआ कि आपको दुनिया ने बहुत प्रताड़ित-कलंकित किया; क्या हुआ कि आप बहुत ऊँचे जाकर फिर नीचे गिरे, क्या हुआ कि आप शिखर पर लंबे वक्त तक टिके न रह सके- ये सभी कारण बहुत छोटे हैं, बहाने हैं, बक़वास हैं। आपने सोच-सोचकर इन्हें बड़ा बना लिया है। जीवन ऐसे असंख्य कारणों से बहुत बड़ा है। याद रहे, जीवन का ध्येय केवल जीवन है! जी हाँ, केवल जीवन!! क्या आपकी तकलीफ़ और मुफ़लिसी उन मजदूरों से भी बड़ी थी, जिन्होंने अपने पाँवों और इरादों से मीलों का सफ़र दिनों में तय कर लिया।

मानिए कि आपमें हिम्मत की कमी थी; कि आपमें साहस नहीं था; कि ज़िन्दगी ने जब आपको साहस दिखाने का मौका दिया, ठीक उसी वक्त आप ज़िन्दगी से भाग खड़े हुए; क्या आप पहले व्यक्ति थे, जिसने इस प्रकार का तनाव और अवसाद झेला; क्या आप पहले व्यक्ति थे, प्रतिकूलताएँ कदम-कदम पर जिनका रास्ता रोके खड़ी रहीं? झूठे हैं आप, दुनिया की आँखों में धूल झोंक रहे हैं आप! याद रखिए कि दुनिया की आँखों में धूल झोंकना तो बहुत आसान है, पर अपनी आँखों में, शायद असंभव! सच तो यह है कि कायर हैं आप; स्वीकारिए कि आपमें हौसले की कमी है! आपको सोचना चाहिए कि समस्या चाहे कितनी भी बड़ी और अधिक क्यों न हो, आपका होना मात्र समस्याओं से कहीं अधिक बड़ा और आशय भरा है।

याद रखें, बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्ज़ा करती हैं।  शिवाजी ने बहुत छोटी आयु में ही अभेद्य किलों और दुर्गों पर कब्ज़ा कर लिया था, जिसका एकमात्र कारण यह था कि उनका बचपन संघर्षों और अभावों में बीता था; पिता की छाँह से दूर वे जीवन की तपती धूप में पले-बढ़े थे; प्रताप ने भारत की आन-बान-शान की रक्षा की, अपने शौर्य एवं पराक्रम से वीरता का एक नया अध्याय रचा, क्योंकि उन्होंने महलों का ऐशो-आराम छोड़ बीहड़ों और जंगलों के ख़ाक छानना स्वीकार किया, अपने फूल से बच्चों को भूख से बिलबिलाते और तड़पते देखा; महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे, फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के ज़ोखिम को पार किया था; ऐसा कौन है इस जगत में जो संघर्षों की आग में तपे-जले बिना चमका-दमका हो, है कोई..?

महाकवि दिनकर ने कहा था कि ”ज़िन्दगी की दो सूरते हैं! एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मक़सद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए, और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अंधियारे का जाल बुन रही हों, तो भी वह पीछे को पाँव न हटाए। दूसरी सूरत यह है कि उन बेबस, लाचार, ग़रीब आत्माओं की हमजोली बन जाए जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुःख पाने का ही संयोग है, क्योंकि ऐसी आत्माएँ उस दुनिया में बसती हैं, जहाँ न तो जीत हँसती है, और न कभी हार के रोने की आवाज़ ही सुनाई देती है। ऐसी दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे ज़िन्दगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते! और कौन कहता है कि पूरी ज़िंदगी को दाँव पर लगा देने में कोई आनन्द नहीं है! अगर रास्ता आगे ही आगे निकल रहा हो तो असली मज़ा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है।”

जिसने चरैवेति-चरैवेति का मर्म जान लिया, उसने जीना सीख लिया  साहस सभी गुणों का वाहक है। साहस की ज़िंदगी सबसे बड़ी ज़िन्दगी होती है। ऐसी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि यह बिलकुल निडर, बिलकुल बेख़ौफ़ होती है। दिनकर के ही शब्दों में ”साहसी मनुष्य इस बात की चिंता बिलकुल नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोचते और क्या कहते हैं! जनमत की उपेक्षा करके चलने वाले लोग दुनिया की असली ताक़त हुआ करते हैं, मनुष्यता को प्रकाश भी ऐसे ही लोगों से मिल पाता है।  झुंड में चरना और झुंड में चलना भेड़-बकरियों का काम है, सिंह तो अकेला भी मग्न रहता है।” यदि आप अड़ोस-पड़ोस की टिप्पणियों की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं तो आपमें साहस की कमी है। साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है, जिसे दुनिया पागलपन समझती है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, वह तो अपनी धुनों में रमा हुआ अपनी ही कहानी गढ़ता है, अपनी ही किताब पढ़ता है।

सच तो यह है कि ज़िन्दगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं और यह पूँजी लगाना बड़े संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलट-पलटकर पढ़ना है, जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। अंगारों से लिखे गए पृष्ठों को छोड़ जो भाग खड़ा होता है, ज़िन्दगी भी उसे छिटक आगे बढ़ जाती है। ज़िन्दगी को उसी ने समझा है जो यह मानकर चलता है कि ज़िन्दगी कभी भी न ख़त्म होने वाली चीज़ है, जो यह मानकर चलता है कि ‘यह भी बीत जाएगा, जो यह मानकर चलता है कि इस अनिश्चित संसार में निश्चित कुछ भी नहीं! आज दुःख है तो कल सुख भी होगा, हर स्याह-अँधेरे रात की भी सुबह होती है। इसलिए कभी भी, कैसी भी स्थिति-परिस्थिति में निराश-हताश होकर स्वयं को चोट पहुँचाना मूर्खता है। ज़िन्दगी को ठीक से जीना हमेशा ही ज़ोखिम झेलना है, जो ज़ोखिम से बचकर सुविधाओं के पीछे दौड़ते-भागते रहते हैं, वे अंततः उसी में कैद होकर मर जाते हैं। महाकवि दिनकर के शब्दों में:-

यह अरण्य झुरमुट जो काटे अपनी राह बना ले
क्रीतदास यह नहीं किसी का जो चाहे अपना ले
जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर जो उससे डरते हैं
वह उनका जो चरण रोप निर्भय होकर लड़ते हैं।

इसलिए जो मिला है, उसे धन्यवाद-भाव से स्वीकार कीजिए। वह आपके ही फ़ैसलों का परिणाम है। वह आपके ही ज्ञात-अज्ञात कर्मों का फल है। यदि नहीं भी है तो द्रष्टा-भाव से स्वीकार करें। मनुज रूप में अवतार लेने वाले अवतारी पुरुषों को भी जीवन के कष्टों-तापों से गुज़रकर ही पूर्णता मिली है, उनके सामने हमारा-आपका अस्तित्व तो नगण्य ही है न!महाकाल देवता सपासप कोड़े बरसा रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनकी चेतना उर्ध्वगामी है, जो अपने भीतर से जीवन-रस खींच खड़े हैं, डटे हैं, जूझ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी मज़बूत है-वे बचे रहेंगे  जीवन का अपमान अस्तित्व का अपमान है|

जब किसी सपने के टूटने का एहसास दिल-दिमाग पर हताशा, दुःख और अवसाद बनकर गहराने लगे तो ‘नीरज’ की ये पंक्तियाँ दुहराएँ-गुनगुनाएँ:-

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों
लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझड़ कोशिश
पर उपवन नहीं मरा करता है
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है
जीवन नहीं मरा करता है…!!

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