कृषि कानूनों की वापसी के बाद की राजनीति

कृषि कानूनों की वापसी के बाद की राजनीति

विवेक भटनागर 

कृषि कानूनों की वापसी के बाद की राजनीति
 
कृषि कानूनों की वापसी सभी विपक्षी दलों और मीडिया को केन्द्र में रहने के लिए नया मुद्दा खोजने पर मजबूर कर देगी। ऐसे में मास्टर स्ट्रोकवादी इसे कुछ कहेंगे, भक्त कुछ कहेंगे और फॉलोअर कुछ कहेंगे। 
राजनीति में वोटर मूल आधार है। राजनीति में मत रखने में कोई बुराई नहीं। विश्लेषण को सापेक्षता से देखना ही राजनीतिक आंकलन को ठीक करता है। राजनीतिज्ञ कितना भी प्रखर हो, अंत में वोट और बहुमत ही प्रबल होता है। लोकतंत्र संख्या बल की राजनीति है। जो यह समझते हैं कि कांग्रेस सत्ता के लिए राजनीति नहीं कर रही है, वह सभी गलत हैं। अगर उसकी राजनीति सत्ता के लिए नहीं है तो उसे चुनावी संघर्ष से बाहर निकल कर लोक कल्याण का काम करना चाहिए। सोनिया जी को किसी नन की तरह कानवेंट में चले जाना चाहिए। ऐसा ही अन्य सभी को करना चाहिए।
चुनावी गणित को देख कर कानून में बदलाव करना बिल्कुल वैसा ही है जैसे शाह बानो मामले में संविधान संशोधन करना, लेकिन यह चुनावी राजनीति है। पंजाब में अकालियों ने अपनी साख दस वर्ष के शासन में खत्म कर ली, वहां अकाली पांच सीट भी जीतने में सक्षम नहीं है। आप अगर चुनाव जीतती है तो वहां पर खालिस्तान मूवमेंट और पाकिस्तान की आईएसआई का जोर बढ़ने की आशंका है। यह हमें किसान आन्दोलन में भी देखने को मिला। इन सब परिस्थितियों में कैप्टन अमरिंदर सिंह को साथ लेकर चुनावी गणित तैयार करना शायद बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का ठीक लगा और उन्होंने ऐसा किया। इसका नुकसान कांग्रेस को कम और आप को अधिक होगा। पंजाब में अब शायद सीधी टक्कर कांग्रेस और बीजेपी-अमरिंदर में हो और लम्बे समय के लिए वहां नए राजनीतिक समीकरण तैयार हो जाएं। इस स्थिति में अकाली दल-बादल का भी बचाव हो जाए और आने वाली राजनीति में उनका वजूद भी बना रहे। राजनीतिक समीकरण इसी को कहते हैं। यहां पर कुछ भी इथिकल नहीं होता है। अटलबिहारी वाजपेयी के शब्दों में राजनीति में कोई स्थाई मित्र और कोई स्थाई दुश्मन नहीं होता। राष्ट्र की राजनीति में यह तुच्छ से समीकरण कोई कीमत नहीं रखते। कांग्रेस करे या भाजपा, पहले राष्ट्र रहना चाहिए।
मोदी द्वारा किसान कानून वापस लेने की घोषणा के साथ ही अमरिंदर का भाजपा के साथ खड़े होना और पंजाब की राजनीति में नए समीकरण गढ़ने से विपक्ष सकते में है, कांग्रेस कम आप अधिक। आप को आशा थी कि सिद्धू और अमरिंदर के झगड़े में कांग्रेस की दुर्गति का लाभ वह लेगी और हाशिए पर पड़े खालिस्तान समर्थक अकाली दल-मान के साथ मिलकर पंजाब में एक नई राजनीति शुरू करेगी, जो 1980 के दशक में खालिस्तान के लोगों ने खड़ी की थी। सतनाम सिंह पन्नू जैसों को ताकत में लाने का प्रयास आप का था, जो महाराष्ट्र और बंगाल को भारत से अलग होने की सलाह देते फिरते हैं।
किसान कानून सिर्फ पंजाब के मद्देनजर ही वापस किए गए हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नजर नहीं आता। फिर भी इसका फायदा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी मिलने वाला है। भाजपा की चुनावी राजनीति का यह मोड़ शायद विपक्ष के लिए मुश्किल भरा है, क्योंकि अब चुनाव में मुद्दा क्या बनेगा यह सोचने का विषय है। केन्द्र ने पेट्रोल के वैट में कमी करके पूरा विरोध का जहाज ही विपरीत दिशा में मोड़ दिया है। वहीं कृषि कानूनों की वापसी सभी विपक्षी दलों और मीडिया को केन्द्र में रहने के लिए नया मुद्दा खोजने पर मजबूर कर देगी। ऐसे में मास्टर स्ट्रोकवादी इसे कुछ कहेंगे, भक्त कुछ कहेंगे और फॉलोअर कुछ कहेंगे। इंतजार है कि आखिर कांग्रेस की नीति अब क्या होगी? यूपी में सपा के पास क्या मुद्दे रहेंगे? जातिवाद के अतिरिक्त जनता को कौन सा नशा दिया जाएगा? राजनीतिक मुद्दों की उछाल कहां तक होगी? मोदी की राजनीतिक उंचाई का नाप जोख चुनाव बाद कैसे किया जाएगा?
कांग्रेस पंजाब, यूपी के चुनाव के बाद क्या कह पाएगी कि राहुल उनकी ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे? सोनिया राजमाता बनी रहेंगी या उनकी भूमिका बदलेगी? कृषि कानूनों की वापसी के बाद प्रियंका को यूपी के मुख्यमंत्री के रूप में कांग्रेस की ओर से देखा जाएगा? भाजपा की तस्वीर तो साफ है, उसे कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, बस सही नीति और योजना से चुनाव लड़ने की आवश्यकता है। पंजाब में मुख्यमंत्री के दावेदार भाजपा-अमरिंदर गठबंधन के लिए अमरिंदर ही रहेंगे। उत्तर प्रदेश में योगी के अतिरिक्त किसी की ओर भाजपा झांकेगी भी नहीं। बाक़ी सब जनता के वोट पर निर्भर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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