कृषि सुधार कानूनों की वापसी क्यों?
बलबीर पुंज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते शुक्रवार (19 नवंबर) राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में एकाएक तीनों कृषि सुधार कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी। इस अनपेक्षित घोषणा का निहितार्थ क्या है? अब तक के घटनाक्रम से स्पष्ट है कि इस कानून का जैसा अंधविरोध किया जा रहा था, वह पंचतंत्र कथा में “छह अंधे और हाथ” की कहानी को चरितार्थ करती है। इसमें छह नेत्रहीन, एक हाथी की बनावट कैसी होती है- उसका निर्धारण हाथी के शरीर के अलग-अलग हिस्से को छूकर करते है और अंत में सभी गलत सिद्ध होते है। ठीक इसी तरह की स्थिति किसानों के एक वर्ग द्वारा कृषि-सुधार कानूनों के आंकलन में उभरकर सामने आई है।
मोदी विरोधियों के लिए यह घटनाक्रम राजनीतिक-व्यक्तिगत रूप से अजेय रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पराजय है। ऐसा मानने वाले लोगों में वामपंथी, वंशवादी, छद्म-सेकुलरवादी, ईसाई मजहबी प्रचारक और चीन-पाकिस्तानपरस्त भारतीय पासपोर्ट धारक हैं। इनके अतिरिक्त एक ऐसा वर्ग भी है, जो देशहित से प्रेरित है और वर्तमान मोदी सरकार से सात दशक पुरानी आर्थिक विषमताओं और विकृतियों के उन्मूलन की अपेक्षा रखता है।
ये तीनों कृषि सुधार कानून स्वाभाविक रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था- विशेषकर देश के 14.6 करोड़ किसानों के समक्ष उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में बड़ी भूमिका निभा सकते थे। ये इसलिए भी महत्वपूर्ण थे, क्योंकि मोदी सरकार वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना चाहती थी। वास्तव में, परिवर्तन और यथास्थितिवादियों के बीच शताब्दियों से संघर्ष चला आ रहा है। चाहे परिवर्तन कितना भी वांछनीय और आवश्यक क्यों न हो, वह सदैव यथास्थितिवादियों के लिए कष्टकारी बनकर आता है। भारतीय कृषि के संदर्भ में स्थिति तो और भी अधिक विकट है- क्योंकि देश की लगभग आधी श्रमशक्ति कृषि और उससे संबंधित रोजगारों पर निर्भर है, किंतु उनका वर्तमान भारतीय सकल घरेलू उत्पाद में योगदान मात्र 17-18 प्रतिशत है।
यह ठीक है कि केंद्र सरकार इन कृषि सुधार कानूनों को जल्दबाजी में लेकर आई और वह कहीं न कही यह मानकर चल रही थी कि चूंकि नए कृषि कानून जनहित में हैं, वर्षों से भिन्न-भिन्न किसान संगठन ऐसी मांग उठाते रहे हैं- ऐसे में एक स्वाभाविक स्वीकार्यता होगी और लोग इसका स्वागत करेंगे। परंतु यहां मोदी सरकार, देशविरोधी शक्तियों और निहित-स्वार्थ रखने वाले समूह की बदनीयत को भांपने से चूक गई।
यह कृषि-सुधार देशव्यापी था। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश, जहां देश की कुल जनसंख्या (138 करोड़) में से केवल 13-14 करोड़ लोग बसते हैं- वहां किसानों के एक वर्ग ने, जोकि राष्ट्रीय हरित क्रांति (1960 दशक) के बाद कालांतर में नव-धनाढ्य (आढ़ती सहित) बनकर उभरा है- उन्होंने इन सुधारों को रोकने हेतु आंदोलन प्रारंभ कर दिया। इस वर्ग की संपन्नता उनके शिविरों में लगे वातानुकूलक, पाश्चात्य भोजन वाले लंगरों, महंगे स्मार्टफोन, परिधानों और लंबे निजी वाहनों से स्पष्ट भी है। इस समृद्ध कृषक वर्ग के निहित-स्वार्थों से शायद सरकार निपट भी लेती। किंतु किसानों के नाम पर और विरोधी दलों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से खालिस्तानी-जिहादी कुनबा, जिसका विषाक्त उद्देश्य तख्तियों पर लगी जरनैल सिंह भिंडरांवाले की तस्वीरों, भारत-हिंदू विरोधी नारों, इंदिरा गांधी की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जान से मारने की धमकी, गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली सड़कों पर खुलेआम उत्पात मचाने, उसी दिन लालकिले के ऐतिहासिक प्राचीन की गरिमा भंग करने, धरना देने आई एक युवती से बलात्कार के आरोप और अनुसूचित जनजाति के लखबीर की नृशंस हत्या आदि से स्पष्ट है- वह किसानों के भेष में आंदोलन में शामिल हो गया। वास्तव में, खालिस्तानी-जिहादी कुनबे का लक्ष्य किसान-हित ना होकर केवल ब्रितानियों की भांति हिंदू-सिख संबंधों में विष घोलना था। यह खुला रहस्य है कि कृषि-सुधार कानून के विरुद्ध गत वर्ष शुरू हुए आंदोलन को प्राणवायु (वित्तपोषण सहित) विदेशों में बैठी भारतविरोधी शक्तियों से ही मिल रही थी।
यदि किसानों की स्थिति में गुणात्मक सुधार लाना है, तो वह इस क्षेत्र में आमूलचूल नीतिगत परिवर्तन लाए बिना असंभव है। 1960-70 के दशकों में जब देश भुखमरी से गुजर रहा था और हम अपनी जरूरत का अनाज भी नहीं उगा पा रहे थे, तब उस कठिन समय में विज्ञान और तकनीक की सहायता से हरित-क्रांति का सूत्रपात हुआ। इसकी सफलता में पंजाब और हरियाणा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उसी कालखंड में किसानों को केंद्र सरकार द्वारा उनके कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया जाने लगा। 1966-67 में तब किसानों को गेहूं पर एमएसपी मिलता था, जोकि आज 23 फसलों के लिए मिलने लगा है। इसी तरह रासायनिक खादों, नए बीजों और किसानों के अथक परिश्रम ने भारतीय कृषि की बदहाल सूरत बदल दी। किंतु कालांतर में लोगों की बदलती प्राथमिकताओं, स्वाद और किसान परिवार में होने वाले पीढ़ी-दर-पीढ़ी जमीन बंटवारे ने किसानों के समक्ष असमान भू-वितरण सहित कई अन्य समस्याएं पैदा कर दीं।
आज भारत में गेहूं और चावल की पैदावार इतनी अधिक मात्रा में होती है कि सरकार द्वारा एमएसपी पर खरीदा गया अनाज, करोड़ों लोगों को मुफ्त में बांटने के बाद भी बड़ी मात्रा में बच जाता है, जो सीमित भंडारण होने के कारण सड़ने लगता है। खरीफ विपणन अवधि 2021-22 के दौरान इस वर्ष पांच अक्टूबर तक सरकारी एजेंसियों ने 1.68 लाख करोड़ रुपये की एमएसपी पर कुल 894 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद की है, जिससे 131 लाख से अधिक किसानों को लाभ पहुंचा है। रबी विपणन अवधि 2021-22 के अंतर्गत 85,603 करोड़ रुपये की एमएसपी पर कुल 433.44 लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीद हुई है और इससे लगभग 49.20 लाख किसान लाभान्वित हुए हैं।
इस पृष्ठभूमि में देश ने हाल ही में इंडोनेशिया और फिलीपींस को 1.5 लाख टन गेहूं का निर्यात किया है, तो 2021 के पहले सात महीनों में भारत से विभिन्न देशों में 1.28 करोड़ टन चावल का निर्यात हुआ है। एक आंकड़े के अनुसार, एक किलो चावल को उगाने में औसतन 2,500-3,000 लीटर पानी लगता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत चावल के रूप में करोड़ों-अरब लीटर शुद्ध पानी विदेशों में निर्यात कर रहा है। यह संकट इसलिए भी विकराल है, क्योंकि भारत के कई क्षेत्रों में भू-जल का स्तर लगातार गिर रहा है। अकेले हरियाणा के कुल 141 में से 85 ब्लॉक, अत्याधिक भूजल दोहन के कारण लाल श्रेणी में पहुंच गए हैं। वर्ष 2004 में यह स्थिति 55 ब्लॉकों तक सीमित थी। इसी तरह राजस्थान में कोटा संभाग के 560 गांव इसी मामले में संवेदनशील हैं।
इस पृष्ठभूमि में दो प्रश्न स्वाभाविक हैं। पहला- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को अपने देश के नाम संबोधन में तीन कृषि कानूनों- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020, लागू करने के एक वर्ष पश्चात वापस लेने की घोषणा क्यों की? इसका उत्तर प्रधानमंत्री के वक्तव्य की इन पंक्तियों में मिल जाता है, जिसमें उन्होंने कहा था- “…कृषि कानून किसानों के हित में लाए थे, लेकिन देशहित में उन्हें वापस ले रहे हैं…।” दूसरा प्रश्न- कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद किसान-आंदोलन जारी क्यों है?- क्योंकि यह आंदोलन कभी भी किसानों द्वारा किसान हितों के लिए था ही नहीं।