कोरोनाकाल में प्रवासी विस्थापित श्रमिकों का ऐतिहासिक प्रवास…

कोरोनाकाल में प्रवासी विस्थापित श्रमिकों का ऐतिहासिक प्रवास...

प्रशांत पोळ

कोरोनाकाल में प्रवासी विस्थापित श्रमिकों का ऐतिहासिक प्रवास...कोरोनाकाल में प्रवासी विस्थापित श्रमिकों का ऐतिहासिक प्रवास…

सब कुछ ठप था, अर्थात फैक्ट्रियां, छोटे – बड़े कारखाने, निर्माणाधीन इमारतें, सामानों की ढुलाई…. सभी काम बंद थे। इन उद्योगों में काम करने वाले एक करोड़ से अधिक असंगठित श्रमिक, अपने अपने स्थानों पर कैद हो गए थे। ‘आज कमाओ और आज खाओ’ जैसी स्थिति में इनका जीवनयापन होता है। जब काम ही नहीं, तो स्वाभाविकतः पैसे नहीं और खाने की व्यवस्था भी नहीं।

ऐसी परिस्थिति में इन श्रमिकों ने लॉकडाउन के दो – तीन सप्ताह तो जैसे तैसे निकाले। केंद्र सरकार के सभी राज्यों को निर्देश थे कि इन प्रवासी श्रमिकों की उन्हीं राज्यों में चिंता की जाए, उनके खाने – पीने का प्रबंध किया जाए। इस दौरान कोई भी मकान मालिक अपने किरायेदार को नहीं निकाल सकता।

किन्तु अब इन श्रमिकों का धैर्य जवाब देने लगा। सामने अनिश्चिंतता का भविष्य था। कोरोना का यह कहर और कितने दिन चलेगा, इसका कोई स्पष्ट चित्र सामने नहीं था। भोजन तो मिल रहा था, किन्तु काम – धंधे बंद होने से आवक नहीं थी। अनेक लोग परिवारों के साथ थे। उनका मन अपने गावों की ओर दौड़ने लगा। वहां का वो सुकून भरा वातावरण, अपनों के बीच रहना, वो घर की दाल – रोटी… सब कुछ उन्हें याद आने लगा।

कोरोना के फैलाव की गति तेज थी। 14 अप्रैल तक पहला लॉकडाउन था। किन्तु तब तक कोरोना संक्रमितों की संख्या 10 हजार का आंकड़ा पार कर गई थी। मृत्यु की संख्या भी बढ़ रही थी। विश्व में तो कोरोना का जबरदस्त आतंक फैला था। इटली, स्पेन, जर्मनी, ब्रिटन, अमेरिका… ये सारे संपन्न देश असहाय से दिख रहे थे। 14 अप्रैल को विश्व में कोरोना से मरने वालों की संख्या 1,11,000 से भी ज्यादा हो गई थी। अमेरिका में छह लाख से ज्यादा संक्रमित थे तो 26 हजार लोगों की कोरोना से मृत्यु हुई थी।

11 अप्रैल को, लॉकडाउन की अवधि समाप्त होने को मात्र 3 दिन बचे थे। कोरोना संक्रामण की गति बढ़ती ही जा रही थी। ऐसे समय में प्रधानमंत्री मोदी जी ने, मुख्यमंत्रियों के साथ आभासी बैठक की। इस बैठक में सभी मुख्यमंत्रियों ने लॉकडाउन को बढ़ाए जाने पर अपनी सहमति दी।

इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए दिनांक 13 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन को पुनः 21 दिन, अर्थात 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा की। इस घोषणा के समय उन्होंने कहा, “आज भारत के पास भले ही सीमित संसाधन हों, लेकिन मेरा भारत के युवा वैज्ञानिकों से विशेष आग्रह है कि विश्व व मानव कल्याण के लिए आगे आएं। कोरोना की वैक्सीन बनाने का बीड़ा उठाएं।”

13 अप्रैल की बैसाखी ऐतिहासिक रही। पहली बार लोगों ने यह त्यौहार घर पर रह कर मनाया। 14 अप्रैल को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती भी पहली बार सामूहिक रूप से संपन्न न हो सकी।

इस बीच बेचैन श्रमिकों को अपने घर – गांव पहुंचने की जल्दी थी। पूरे देश की ट्रेनें बंद थीं। बसें भी नहीं चल रही थीं। आवागमन के कोई अन्य साधन भी नहीं थे।

लॉकडाउन में बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी, फिर भी इन श्रमिकों का, अपने गांव का प्रेम, इन सब पर भारी निकला। इनके अंदर का साहस जाग उठा और ये मजदूर चल दिये, जो वाहन मिला, उसी से चल दिये। साइकिल, रिक्शा, सामान ढोने वाली ट्रक… और अधिकतम लोगों को जब यह नहीं मिला, तब वे पैदल ही चल पड़े, अपने गंतव्य की ओर, सैकड़ों किलोमीटर दूर…!

और शुरू हुआ प्रवासी विस्थापित श्रमिकों का ऐतिहासिक प्रवास…

समाचार पत्रों, संवाद एजेंसियों, न्यूज़ चैनलों के लिए यह बहुत बड़ा समाचार था। श्रमिकों की इस घर वापसी के छायाचित्र विश्व के समाचार माध्यमों में आने लगे। देश – विदेश के माध्यम कहने लगे, ‘अब भारत के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो गई। ये श्रमिक हिंसक भी हो सकते हैं। मन में भारी कटुता लेकर ये चल रहे हैं। प्रशासनिक व्यवस्था के लिए यह विस्थापन एक प्रश्नचिन्ह है।’

इन लोगों को भारत की सही पहचान ही नहीं थी..! ये श्रमिक, ये मजदूर अकेले नहीं थे। सारा समाज इनके साथ था। वो इनकी विवशता समझ रहा था और जितना संभव था, इनकी सहायता भी कर रहा था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तंत्र तो सारे देश में सक्रिय था ही। अन्य सामाजिक संगठन भी आगे आए। इन प्रवासी मजदूरों के चलने के समाचार मिलते गए और व्यवस्थाएं बनती गईं। देश के हर कोने में, जहां – जहां से ये प्रवासी श्रमिक गुजरे, वहां पर इनके लिये चाय, नाश्ता, भोजन पानी, शरबत, बच्चों के लिए दूध, दवाइयाँ, पांव में पहनने हेतु चप्पल, आदि सभी प्रकार की व्यवस्थाएं की गईं।

भारत के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व दृश्य था। लाखों की संख्या में श्रमिक, परिवार के साथ, अपने गांव की ओर, पैदल जा रहे थे। किंतु इस सारे प्रवास में अव्यवस्था कहीं नहीं हुई। असंतोष कहीं नहीं उमड़ा। दंगे कहीं नहीं भड़के। अप्रैल – मई की चिलचिलाती धूप में प्रवास करने पर श्रमिक परिवार विवश थे। कष्ट में थे। किंतु एक परिवहन व्यवस्था छोड़ कर उनका सभी प्रकार से खयाल रखा जा रहा था।

पैदल या साइकिल से, जो भी मजदूर गए, उन्हें भोजन पानी की कोई कमीं नहीं आई। समाज को साथ लिए, संघ का मजबूत तंत्र, उनके साथ स्थान – स्थान पर, चट्टान की भांति खड़ा था। कोरोना के सारे दिशा निर्देशों का पालन करते हुए उन्हें हर प्रकार की सहायता उपलब्ध करा रहा था…!

_(‘सुरुचि प्रकाशन’, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, ‘कोरोना काल में, संवेदनशील भारत की सेवा गाथा’ पुस्तक के अंश)_

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