कोरोनाकाल में संवेदनशील भारत की गाथा

कोरोनाकाल में संवेदनशील भारत की गाथा

प्रशांत पोल

कोरोनाकाल में संवेदनशील भारत की गाथाकोरोनाकाल में संवेदनशील भारत की गाथा

लगभग दो महीनों के बाद, कोरोना को तीन वर्ष पूर्ण होंगे। कोरोना सारे विश्व के लिए एक भयानक त्रासदी थी। अनेक देशों के आर्थिक गणित, कोरोना ने बिगाड़ दिए। दुनिया के लगभग सभी देश कोरोना की मार अभी तक सहन कर रहे हैं।

अपवाद है भारत !

हमने कोरोना का न केवल बेहतरीन तरीके से सामना किया, वरन् विश्व के अनेक देशों को सहायता भी पहुंचाई। आर्थिक क्षेत्र में हम विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन गए। इस कठिन समय में हमने अपने आप को शक्तिशाली बनाया। आत्मनिर्भर बनाया। एक सौ तीस करोड़ का यह देश, कोरोना जैसी महाभयंकर विपत्ति में भी बलशाली होकर सामने आया।

यह संभव हो सका, इस देश की मिट्टी से जुड़े नागरिकों के कारण। जागरूक नागरिक और संवेदनशील सरकार हमारी सफलता का कारण बने। कोरोना के इस काल में, जिसे हम हिन्दू परंपरा कहते हैं, चिरविजयी सनातन संस्कृति कहते हैं, उसके अनेक उदाहरण सामने आए। ‘सुरुचि प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित ‘कोरोना काल में – संवेदनशील भारत की गाथा’ पुस्तक में इन सभी हृदयस्पर्शी अनुभवों का संकलन है। उन्हीं में से एक अनुभव –

लॉकडाउन के चलते, एक रात को लगभग 8 बजे गुजरात में राजकोट के संघ कार्यालय में, डेप्युटी कलेक्टर का फोन आया। “राजकोट के औद्योगिक परिसर GIDC में एक ‘अजी वसाहत’ हैं। वहां पर सहायता सामग्री के दो किट की आवश्यकता है” ऐसा कहा गया। कोरोना के इस कालखंड में संघ के स्वयंसेवक, प्रशासन को सहायता सामग्री पहुंचाने, रोगियों की सहायता करने तथा अन्य कार्यों में सहयोग कर रहे थे। अर्थात ऐसे फोन संघ कार्यालय में आना बड़ा सहज था। इसलिए संघ स्वयंसेवकों ने स्वाभाविक रूप से चार किट साथ में रखीं और चल दिये।

अजी वसाहत में, दिये गए पते पर ओड़ीशा के दो श्रमिकों को खोज निकाला और प्रशासन से मिली सूचना के अनुसार, उन्हें दो किट दे दीं।

बाजू में खड़ा एक व्यक्ति यह देख रहा था। उसने हाथ जोड़कर कार्यकर्ताओं से पूछा, “ये किट आप किसको बांटते हो?” कार्यकर्ता ने बताया, “हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हैं और प्रशासन की सूचना के अनुसार हम जरूरतमंदों को यह किट देते हैं।”

वो व्यक्ति बोला, “सामने जो घर दिखता है, जर्जर और टूटे किवाड़ वाला, वहां इस किट की आवश्यकता है। यदि संभव है, तो वहां अवश्य दें।

कार्यकर्ता उस मकान के दरवाजे पर गए। आवाज लगाई। दो – तीन आवाज के बाद, धीमे धीमे चलती हुई एक 80 वर्ष की बूढ़ी मां बाहर आई। पीछे लगभग 10 वर्ष का एक छोटा बच्चा था। कार्यकर्ताओं ने अपना परिचय दिया और राशन की आवश्यकता पूछी। घर में कौन – कौन हैं, यह भी पूछा।

उस वृद्ध माताजी ने बताया, “घर में मैं और मेरा यह पोता है। मेरा लड़का और बहू, कुछ वर्ष पहले, इस बच्चे को छोड़ कर चल बसे। बस, तब से घर – घर के बरतन साफ करके इस बच्चे को पालती हूं। अभी तो लॉकडाउन के कारण काम बंद है। तीन दिन से घर में कुछ नहीं है। इस बच्चे को चूल्हे पर पानी उबालकर पिलाती हूं और समझाती हूं, की कल खाना मिल जाएगा।

यह सुनकर कार्यकर्ता दंग रह गए। साथ में लाई हुई दो अतिरिक्त किट तुरंत देने लगे। वह बूढ़ी मां बोली, “बेटा, हमें एक ही दो, दूसरी किसी और जरूरतमंद के काम आएगी। हमें आवश्यकता होगी, तो आप जैसा कोई और फिर देवदूत बनकर चला आएगा।”

यह भारत है…!

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