क्या भारत-पाकिस्तान के संबंध सुधर सकते हैं?
बलबीर पुंज
क्या भारत-पाकिस्तान के संबंध अमेरिका-कनाडा जैसे सामान्य पड़ोसी देशों की भांति हो सकते हैं? यह प्रश्न हालिया घटनाक्रम के कारण प्रासंगिक है। पाकिस्तान ने 14 जनवरी को वर्ष 2022-26 के लिए अपनी नई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा की। इसमें पाकिस्तानी सत्ता-अधिष्ठान ने अपनी ध्वस्त अर्थव्यवस्था को उबारने पर बल देते हुए जहां फिर से कश्मीर का राग अलापा है, तो पहली बार भारत से उसके कटु संबंधों के लिए ‘हिंदुत्व’ को कलंकित करने का प्रयास किया है। बकौल पाकिस्तान, उसकी सुरक्षा को ‘हिंदुत्व’ प्रभावित करता है। क्या यह सत्य नहीं कि ‘काफिर’ हिंदुओं के साथ बराबरी के साथ सत्ता साझा नहीं करने और इस भूखंड की मूल बहुलतावादी सनातन संस्कृति, जिसे ‘हिंदुत्व’ से ऊर्जा मिल रही है- उससे वैचारिक घृणा करने के कारण ही पाकिस्तान का जन्म हुआ था?
पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के मुख्य बिंदुओं को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि वह भारत से लड़कर थक चुका है और इसलिए वह संबंध सुधारना चाहता है। परंतु जिस वैचारिक नींव पर और ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होकर 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान जन्मा था- वह दर्शन उसे ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने से रोकेगा। पिछले कुछ दशकों में यह विचार न केवल भारतीय उपमहाद्वीप (खंडित भारत सहित) में, अपितु समस्त विश्व में विकराल रूप ले चुका है। हाल ही में अमेरिका में पाकिस्तानी मूल के ब्रितानी नागरिक मलिक फैज़ल अकरम ने आतंकी संगठन अल-कायदा की पाकिस्तानी सहयोगी डॉ.आफिया सिद्दीकी की जेल से रिहाई करवाने हेतु टेक्सास स्थित यहूदी मंदिर- सिनेगॉग में चार लोगों को बंधक बना लिया था, जिसे सुरक्षाबलों ने ढेर कर दिया। अमेरिकी जेल में 86 वर्षों की सजा काट रही आफिया को पाकिस्तान में ‘राष्ट्रपुत्री’ का दर्जा प्राप्त है, तो अब अकरम को ‘शहीद’ घोषित करने की मांग तेज हो गई है।
इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी सत्ता अधिष्ठान भारत से अच्छे संबंध रखने की इच्छा रखता है, परंतु उसके वैचारिक अधिष्ठान के कारण क्या ऐसा संभव है? एक राष्ट्र के रूप में विफल पाकिस्तान द्वारा सहिष्णु, बहुलतावादी और पंथनिरपेक्षी ‘हिंदुत्व’ को अप्रतिष्ठित करने का कुप्रयास, उस डेढ़ दशक पुराने मिथक और झूठे ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ का विस्तारभर है, जिसे तत्कालीन कांग्रेस नीत संप्रग सरकार, वामपंथियों और जिहादियों ने मिलकर अपने हिंदू-विरोधी दर्शन के अनुरूप रचा था। तब से पाकिस्तान भी इसका लाभ उठाने का भरसक प्रयास कर रहा है।
इस कॉलम के मूल प्रश्न का दूसरा उत्तर 15 जनवरी को ‘सेंटर फॉर पीस एंड प्रोगेस’ (सीपीपी) द्वारा आयोजित वेबिनार में निहित है। इसमें सीपीपी के संस्थापक ओ.पी. शाह द्वारा संपादित पुस्तक In Pursuit of Peace: Improving Indo-Pak Relations का विमोचन हुआ था, जिसमें दोनों देशों से 50 बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और राजनीतिज्ञों के विचारों को संग्रहित किया गया है। इसमें मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला। यहां भी पाकिस्तानी पक्ष ने किसी जीर्ण रोग की तरह कश्मीर का मुद्दा उठाकर अपने देश की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के अनुरूप ‘हिंदुत्व’ को भी कलंकित का प्रयास किया है।
मैं दो पाकिस्तानी पक्षाकारों को उद्धत करना चाहूंगा। पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने झूठा आरोप लगाते हुए कहा- “भारत में जब से हिंदुत्ववादी सरकार सत्ता में आई है, तब से दोनों देशों के संबंध खराब हो गए हैं।” इसपर मैंने कसूरी को भारत-पाकिस्तान युद्ध/संघर्ष का इतिहास स्मरण कराया। अक्टूबर 1947 में जब भारत-पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध हुआ, तब गांधीजी और पं.नेहरू जीवित थे। इसी तरह 1965 का युद्ध भारत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में हुआ। 1971 का युद्ध, जिसमें पाकिस्तान के दो टुकड़ों हो गए थे और बांग्लादेश जन्मा था- वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में हुआ था। सियाचिन हिमनद में भारतीय वायुसेना का ‘ऑपरेशन मेघदूत’ भी अप्रैल 1984 में इंदिरा गांधी के जीवनकाल में हुआ था। इसी प्रकार 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में का कारगिल युद्ध हुआ। मई 2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने अपनी संप्रभुता, सुरक्षा और अखंडता की रक्षा हेतु प्रतिकार स्वरूप सितंबर 2016 में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक, तो फरवरी 2019 बालाकोट एयर स्ट्राइक का सफलतापूर्वक संचालन किया था। सच तो यह है कि पाकिस्तान में कई रंगों की सरकारें आई है, चाहे वह सैन्य तानाशाही हो या फिर छद्म-लोकतांत्रिक- उसका प्रत्येक नेतृत्व अपने वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप ‘काफिर’ भारत के खिलाफ युद्ध की मुद्रा में रहा है और आगे भी रहेगा।
कसूरी के अतिरिक्त जावेद जब्बर, जोकि पाकिस्तान लेखक और राजनीतिज्ञ भी हैं- उन्होंने पुस्तक में और चर्चा के दौरान कहा कि अगस्त 1947 में दो देशों भारत-पाकिस्तान का जन्म हुआ था और दोनों ही देशों को समृद्ध विरासत, सभ्यता और विविधताओं का आशीर्वाद प्राप्त है। इससे बड़ा झूठ मैंने आजतक नहीं सुना। वर्ष 1953 से पाकिस्तान अपने दस्तावेजों, स्कूली पाठ्यक्रमों और अपनी आधिकारिक वेबसाइटों में इस बात का उल्लेख करता आया है कि उसकी जड़ें सन् 711-12 में इस्लामी आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम द्वारा हिंदू शासित तत्कालीन सिंध पर किए आक्रमण में मिलती हैं। वह कासिम को ‘पहला पाकिस्तानी’, तो उसके हमले पश्चात सिंध को दक्षिण एशिया का पहला ‘इस्लामी प्रांत’ मानता है। अब यदि इस आधार से पाकिस्तान स्वयं को आठवीं शताब्दी से जोड़कर देखता है, तो अकाट्य रूप से अनादिकालीन सनातन संस्कृति की जन्मभूमि भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 में कैसे हो गया?
जिन भारतीय क्षेत्रों को मिलाकर 1947 में पाकिस्तान बनाया गया था, वहां हजारों वर्ष पहले वेदों की ऋचाएं सृजित हुईं थीं और बहुलतावादी सनातन संस्कृति का विकास हुआ था। इसलिए पुरातत्वविदों के उत्खनन में आज भी वहां वैदिक सभ्यता के प्रतीक उभर आते हैं, जिसका इस्लाम में कोई स्थान नहीं। फिर भी इस्लामी पाकिस्तान अपना इतिहास मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, सिंधु घाटी, आर्य सभ्यता, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और गांधार कला में भी होने का दावा करता है। अब यह विरोधाभास की पराकाष्ठा है कि जिन इस्लामी आक्रांताओं- कासिम, गजनवी, गौरी, बाबर, टीपू सुल्तान आदि को पाकिस्तान अपना घोषित ‘नायक’ मानता है, जिनके नामों पर उसने अपनी मिसाइलों-युद्धपोतों को ‘विभूषित’ भी किया है- उन ‘प्रेरणास्रोतों’ ने ही ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होकर भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्व-इस्लामी सभ्यता के अधिकांश प्रतीकों का विनाश किया था, जिसे अन्य इस्लामी अनुचरों के साथ पाकिस्तान भी एक देश के रूप में 1947 से लगातार आगे बढ़ा रहा है।
मेरा निश्चित मत है कि पाकिस्तान के भारत के साथ अच्छे संबंध कभी भी संभव नहीं हैं। वह स्वयं को उन इस्लामी आक्रांताओं- कासिम से लेकर टीपू सुल्तान आदि को गर्व के साथ जोड़कर देखता है, जिन्होंने पिछले 1,300 वर्षों में दो कारणों से भारत पर बार-बार हमले किए। पहला- अकूत धन-संपदा लूटने का लालच। दूसरा- काफिर-कुफ्र दर्शन से प्रेरित होकर मूर्तिपूजकों को समाप्त कर गजवा-ए-हिंद का सपना पूरा करना। पाकिस्तान का अधिकांश जनमानस यह मानकर चलता है कि जो काम उनके नायकों ने अधूरे छोड़ दिए, उन्हें पूरा करना उनका ‘मजहबी फर्ज’ है। यही पाकिस्तान का सत-तत्व है। जब तक यह नहीं बदलेगा, तब तक भारत-पाकिस्तान के संबंध सामान्य हो ही नहीं सकते। परंतु क्या ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से तर-बतर चिंतन के बिना पाकिस्तान का भारत से अलग होकर जीवित रहना संभव है?