क्या महाराणा प्रताप में संयम नहीं था और सावरकर वीर नहीं थे?

महाराणा प्रताप वीर सावरकर

सामाजिक विज्ञान पुस्तक विवाद

प्रणय कुमार

महाराणा प्रताप वीर सावरकर
राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की पुस्तकें बच्चों से कहती हैं कि महाराणा प्रताप में संयम नहीं था और सावरकर वीर नहीं थे। आखिर क्यों ये सरकारी पुस्तकें महाराणा प्रताप और विनायक दामोदर सावरकर जैसे महापुरुषों के साथ वीरोचित न्याय नहीं कर पाती हैं?

भारत के विद्यार्थियों के साथ पिछले कई दशकों से यह बिडंबना ही रही है कि उन्हें वही इतिहास पढ़ाया जाता रहा है जिससे उनमें अपनी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति हीन भावना पैदा हो। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय इतिहास के लेखन की जिम्मेदारी उस वामपंथ विचारधारा से प्रभावित लेखकों को सौंप दी गई, जिनके लिए भारत का कोई ऱाष्ट्रीय अस्तित्व ही नहीं है। उनके लेखन से फिर कैसी अपेक्षा?

ताजा मामला राजस्थान में इतिहास की पुस्तकों में इसी विचारधारा के लेखकों द्वारा छेड़छाड़ का है, जिसमें उन्होंने दुराग्रह से महाराणा प्रताप जैसे महावीरों की अवमानना की है। राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दसवीं की सामाजिक विज्ञान की ई-पाठ्यपुस्तक के दूसरे पाठ ‘संघर्षकालीन भारत 1260 AD-1757 AD’ में संशोधन करते हुए लिखा गया है कि ”सेनानायक में प्रतिकूल परिस्थितियों में जिस धैर्य, संयम और योजना की आवश्यकता होनी चाहिए, प्रताप में उसका अभाव था।” इतना ही नहीं बल्कि इसमें आगे कहा गया है कि ‘मुगल सेना पहाड़ी इलाकों में लड़ने के लिए निपुण नहीं थी, जबकि मेवाड़ की सेना मैदान में लड़ने के लिए सक्षम नहीं थी।” यह भी ध्यातव्य रहे कि जहाँ पहले की पुस्तक में महाराणा प्रताप को हल्दी घाटी के युद्ध का विजेता घोषित किया गया था वहीं अब नई पुस्तक में वे इस युद्ध के विजेता नहीं हैं।

जब भी इतिहास की पुस्तकों में भारतीय वीरों और भारतीयता की महानता की चर्चा होती है, वामपंथ विचारधारा से प्रभावित लेखक उस चर्चा को कुंद करने का भरसक प्रयास करते हैं। पूर्व में भी राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की दसवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में विवादित संशोधन किए गए थे। तब तत्कालीन राज्य सरकार के संकेत पर स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के नाम से पूर्व प्रयुक्त और प्रचलित विशेषण ”वीर” हटा लिया था। सरकार का बचकाना तर्क था ”सावरकर ने अपनी रिहाई के लिए अंग्रेजों से माफ़ी माँगी थी इसलिए उन्हें वीर नहीं कहा जा सकता।” राजस्थान की वर्तमान सरकार ने महाराणा प्रताप को भी ‘महान’ मानने से इंकार कर दिया था। उसका तर्क था कि ”अकबर और प्रताप के बीच राजनीतिक युद्ध हुआ था। दोनों ने सत्ता के लिए लड़ाई लड़ी थी। इसलिए इन दोनों में से किसी को महान नहीं कहा जा सकता।”

विचार करने वाली बात है कि कई दशकों तक ब्रिटिश सत्ता भी यही तर्क देकर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता-आंदोलन को चंद राजे-रजवाड़ों या सिपाहियों का विद्रोह बताकर उसे स्वतंत्रता आंदोलन मानने से इनकार करते रही। यह कैसा संयोग है कि देश को आज़ादी दिलाने का दंभ भरने वाली पार्टी आज देश को ग़ुलाम बनाने वालों की भाषा बोल रही है। वह क्यों नहीं चाहती कि इस देश की भावी पीढ़ी में अपने वीर पूर्वजों के प्रति स्वाभिमान जाग्रत हो?

आज, जब हर महापुरुष के संबंध में हजारों-हजारों संदर्भ मिल रहे हैं। शोधकर्ता उन महापुरुषों के बारे में शोध कर नए तथ्य सामने ला रहे हैं, ऐसे में यह कैसा पूर्वाग्रह है? देश की आज की नई पीढ़ी को आप अपनी सरकारी किताबों में नहीं पढ़ाओगे तो क्या वह पीढ़ी भी यही मानेगी कि सावरकर ‘वीर’ और प्रताप ‘महान’ नहीं थे? जिस वीर सावरकर को ब्रिटिश सत्ता सबसे खतरनाक विद्रोही समझती थी उसे राजस्थान सरकार की सरकारी पुस्तकें वीर कहने में भी हिचकती हैं। कितनी लज्जास्पद स्थिति है। वीर सावरकर ने अपनी प्रखर मेधा-शक्ति के बल पर 1857 के विद्रोह को ‘प्रथम स्वाधीनता आंदोलन’ की संज्ञा देकर भारतीय इतिहास की महान सेवा की। ऐसे स्वातंत्र्य वीर सावरकर के नाम के आगे वीर बोलने में सरकारी किताबों के पन्ने क्यों हड़बड़ा जाते हैं?

और महाराणा प्रताप…। जिनका नाम सुनकर ही मां भारती के प्रति हर वीर के ह्रदय में साहस उमड़ पड़ता है, ऐसे हिंदवी सूरज पर विवाद, वह भी महाराणा की अपनी ही कर्मभूमि पर, कितनी शर्मनाक स्थिति है। मातृभूमि की आन-बान-शान व स्वाभिमान की रक्षा के लिए जिस प्रताप ने मुग़लों के आगे कभी सिर नहीं झुकाया, जंगलों-बीहड़ों-गुफाओं की ख़ाक छानी पर स्वतंत्रता की लड़ाई ज़ारी रखी- वे महाराणा प्रताप इनके लिए महान और पराक्रमी नहीं, धैर्यवान और संयमी नहीं? क्या धैर्य, संयम, पराक्रम, पुरुषार्थ, ध्येय और समर्पण की प्रताप से बड़ी मिसाल भी कोई और हो सकता है! महान कौन होता है? वह आक्रांता जो नरसंहार कर भी अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता है अथवा वह जो अपनी स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा के लिए जी जान से उससे लड़ रहा है?

प्रताप चाहते तो अपने समकालीन राजाओं की तरह अपमानजनक संधि कर अपने लिए सुख का ताज चुन सकते थे। पर उन्होंने मातृभूमि के गौरव और स्वाभिमान के लिए काँटों भरा पथ चुना। यह दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि सत्ता के लिए तमाम समझौते करने वाले लोग आज महाराणा प्रताप और वीर सावरकर जैसे तेजस्वियों-तपस्वियों का आकलन-मूल्यांकन कर रहे हैं। हमें याद रखना चाहिए कि प्रताप और सावरकर जैसे धवल चरित्रों पर सवाल उठाकर हम अपने ही भाग्य पर कालिख पोत रहे हैं।

लोकमानस अपने महानायकों के साथ न्याय करना खूब जानता है। कुछ सस्ती-स्याह बूँदें अतीत के उज्ज्वल-गौरवशाली चरित्रों को कदापि धूमिल नहीं कर सकतीं। वे लोक की दृष्टि में सदा महान और वीर थे और सदा महान तथा वीर ही रहेंगे। हमें याद रखना चाहिए कि मानसिक गुलामी, शारीरिक गुलामी से ज्यादा भयावह होती है, क्योंकि शारीरिक गुलामी से केवल एक पीढ़ी जबकि मानसिक गुलामी से कई पीढियां समाप्त हो जाती हैं। इसलिए इतिहास लेखन जैसे संवेदनशील विषय से उन दुराग्रही विचार के लोगों को निकाल बाहर फेंकना चाहिए जिनका खुद का अतीत हिंसक और लूटमार का रहा हो। इतिहास लेखन जैसे संवेदनशील विषय पर पूर्वाग्रह से रहित विशेषज्ञों की समिति बनाकर ही आगे बढ़ना चाहिए।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

1 thought on “क्या महाराणा प्रताप में संयम नहीं था और सावरकर वीर नहीं थे?

  1. महाराणा प्रताप का अपमान करने का प्रयत्न अपने ही मुँह पर थूकने जैसा है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *