क्रिप्टो हिंदू नेताओं ने हिंदू हितों को ताक पर रख दिया
कैप्टेन आर. विक्रम सिंह
क्रिप्टो हिंदू नेताओं ने हिंदू हितों को ताक पर रख दिया
बलोच पाकिस्तान में 65 लाख रह गये हैं फिर भी उनकी स्वाधीनता की जंग जारी है। वे मारे जा रहे हैं। बहुतों की लाशें भी नहीं मिलीं। लेकिन मुकाबला चल रहा है। दूसरी ओर सिंध में मात्र 40 लाख हिंदू बचे हुए हैं जो मुख्यतया अमरकोट, थरपारकर, मीरपुर खास, संघर आदि जनपदों में ही केन्द्रित हैं। यह हिंदू जनसंख्या जो 1947 में पाकिस्तान की जनसंख्या की 20% थी, अब घटकर सिर्फ 1.5% रह गयी है। वे लगातार बेटियों के अपहरण, बलात् धर्मपरिवर्तन के शिकार बनते, असहाय गुलामों जैसी बेचारगी की जिंदगी बिता रहे हैं।
स्वाधीनता के दौर में बंगाल और पंजाब का बंटवारा तो हुआ लेकिन सिंध नहीं बांटा गया। क्यों? उन बेशर्म निकृष्ट नेताओं के उत्तर सुन कर आपका खून खौल जाएगा। सेकुलरिस्ट भारत को सिंध में बसे हिंदुओं के विनाश पर कभी पीड़ा नहीं हुई। वे असहाय हिंदू बलोचों की तरह इस्लामिस्टों के अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने की सोच भी नहीं सके। वहां कभी भी पाकिस्तान की सीमा के अंदर के इन जिलों को मिला कर सिंध हिंदू ऑटोनॉमस एनक्लेव या (स्वायत्त सिंध हिंदू परिक्षेत्र) की मांग तक नहीं उठी। मांग तो छोड़िये, यह विचार भी संभवतः पहली बार रखा जा रहा है। भारत के हिंदू राष्ट्रवादियों ने भी सिंध के लिए आज तक कभी ऐसी कोई मांग नहीं उठाई है।
उधर बांग्लादेश में आज भी एक करोड़ से अधिक हिंदू बचे हैं। वे भी 1947 में जनसंख्या के 23% थे। तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं व उनके वारिसान ने उनका सौदा कर लिया था। उन पर जो पीड़ा, प्रताड़ना गुजर रही है वह हम सेकुलरिज्म के बीमारों की चर्चाओं, विमर्श का हिस्सा ही नहीं बन पाता। यह तो स्वाधीनता के बाद से ही पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के हिंदुओं व भारत के बंगाली राष्ट्रवादियों का मुद्दा होना चाहिए था। पूर्वी पाकिस्तान से काटकर हिंदू बंगाल सुरक्षित परिक्षेत्र कायम करना पूर्णतया जायज मांग होती। आश्चर्य यह है कि आंदोलन संघर्ष तो दूर हमारे मन में यह विचार तक नहीं आता। हमारे दम पर स्वतंत्र हुआ देश भी हिंदू समाज पर अत्याचार करने लगे तो इससे हमें अपनी हैसियत का अनुमान लगता है। हम कुछ न कर पाते हैं, न सोच पाते हैं। मुसलमान वोट बैंक की गुलाम बनी यहां की सत्ता की भूखी राजनीति अपने धर्म-समाज के अस्तित्व के मुद्दों से आंखें चुराती है। विश्व में बहुत सी ऐसी व्यवस्थाओं के उदाहरण हैं फिर भी हमने क्यों नहीं मांगा कि सिंध व बांग्लादेश के हिंदुओं के लिए पाकिस्तान व बांग्लादेश की सीमाओं में :
1- स्वायत्त सिंध हिंदू परिक्षेत्र
2- स्वायत्त बंगाल या चटगांव हिंदू परिक्षेत्र
जैसी राजनैतिक व्यवस्था कायम की जाए। रूस ने अभी अभी यूक्रेन के रूसी बहुल क्षेत्रों के लिए डोनबास में दो परिक्षेत्रों लोहांस्क व डोनास्क की घोषणा कर भी दी है। हमारे यहां तो प्रधानमंत्री नेहरू थे जो पाकिस्तान में अल्पसंख्यक अधिकारों को सुरक्षित करने के बजाय नेहरू-लियाकत पैक्ट पर हस्ताक्षर कर आए।
हम आखिर अतिशय कायर क्यों हैं? क्या गुलामी हमारी सहज वृत्ति है? यहां भगत सिंह, आजाद जैसे क्रांतिकारी, देश के नेता क्यों न बन सके? क्रिप्टो हिंदू हमारे नेता बन गये। क्या हम परतंत्रता के लिए अभिशप्त समाज हैं?