खालिस्तान: कांग्रेस और उसकी राजनीति (भाग 1)
खालिस्तान: कांग्रेस और उसकी राजनीति (भाग 1)
90 के दशक के शुरुआती सालों में खालिस्तानी चरमपंथियों ने अपनी करेंसी, पोस्टल स्टैंप इत्यादि जारी करने शुरू कर दिये थे। उन्होंने रिजर्व बैंक ऑफ खालिस्तान भी खोल लिया था, जिसका एक गवर्नर भी नियुक्त कर दिया। यही नहीं, कनाडा में एक दूतावास भी बना लिया, जिसका पता ‘Republic of Khalistan, Office of the Consul-General, Johnston Building, Suit 1-45 Kingsway, Vancouver, B.C. Canada V5T3H7, Phone No. 872- 321’ था। इसी दौरान, इंडियन एक्सप्रेस ने 7 फरवरी 1982 को खुलासा किया कि खालिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता मिल सकती है।तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार को इन सभी घटनाक्रमों की पूरी जानकारी थी और इन भारत विरोधी घटनाक्रमों के लिए उन्हें विपक्षी दलों के समक्ष लगातार जवाबदेह भी बनना पड़ रहा था। तभी, अप्रैल 1982 में खालिस्तान नेशनल ऑर्गेनाइजेशन ने प्रेस रिलीज के माध्यम से लंदन स्थित इंडिया हाउस के सामने एक और दूतावास खोलने की घोषणा कर दी।
वास्तव में, यह खालिस्तानी आन्दोलन 1980 से पहले एकदम निष्क्रिय हो चुका था, लेकन इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी के बाद अचानक इस चरमपंथी आन्दोलन को न सिर्फ भारत बल्कि विदेशों में भी समर्थक मिलने लगे थे। इसके पीछे जगजीत सिंह चौहान नाम के एक व्यक्ति का हाथ था। वह 1967 से 1969 के बीच पंजाब विधानसभा का उपसभापति और पंजाब का वित्त मंत्री रह चुका था। तब पंजाब में पंजाब जनता पार्टी और कांग्रेस के गठजोड़ से लक्ष्मण सिंह गिल मुख्यमंत्री थे।
चौहान के मन में खालिस्तान को लेकर अपनी एक अलग ही दुनिया थी, जिसके लिए उसे पैसे और समर्थन दोनों चाहिए थे। भारत में ऐसा संभव नहीं था। भारत सरकार में पूर्व नौकरशाह, बी. रमन अपनी पुस्तक ‘The Kaoboys of RAW: Down Memory Lane’ में लिखते हैं, “ब्रिटेन में पाकिस्तानी उच्चायोग और अमेरिकी दूतावास होम रूल मूवमेंट के लिए आपसी संपर्क में थे।” बस इसी बात का फायदा चौहान को मिल गया। वह जल्दी ही लंदन पहुंच गया और वहां अपने स्थानीय प्रयासों से इन दूतावासों से संपर्क साधने लगा। कुछ आंशिक सफलताओं के बाद उसे पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह याह्या खान ने पाकिस्तान मिलने के लिए बुला लिया।
दरअसल, पाकिस्तान 1971 में भारत से मिली हार का बदला खालिस्तान अलगाववादी आन्दोलन को उभार कर लेना चाहता था। साल 1974 से ही पाकिस्तान द्वारा यह प्रचारित करना शुरू कर दिया गया कि जब भारत की सहायता से बांग्लादेश बन सकता है तो पाकिस्तान की सहायता से खालिस्तान क्यों नहीं बन सकता?” मगर इस काम के लिए तत्कालीन पाकिस्तान सरकार को चौहान में कोई विशेष दम नजर नहीं आया और उन्होंने उससे अपना रुख मोड़ लिया तभी, पाकिस्तान को ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का नेतृत्व मिल गया। उनका खालिस्तान की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं गया। अब चौहान के पास अपने इस आन्दोलन को फिलहाल स्थगित करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।
एक-दो सालों के बाद समाचार आया कि पाकिस्तान में सेना ने तख्ता पलट कर मार्शल लॉ लागू कर दिया है। वहां अब मोहम्मद जिया-उल-हक के हाथों में सत्ता आ गयी थी। इसमें चौहान को एक बार फिर खालिस्तान आन्दोलन को जीवित करने का अवसर दिखाई दिया। हालाँकि, भारत में तब जनता पार्टी से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए थे। अतः चौहान के लिए स्थितियां एकदम अनुकूल नहीं थीं। फिर भी उसने अपने प्रयास जारी रखे। जैसे मई 1978 में, चौहान अपने लंदन के कुछ साथियों के साथ भारत आया और तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से भी मिला। उसका उद्देश्य स्वर्ण मंदिर में एक ट्रांसमीटर स्थापित करवाना था, जिसके लिए आडवाणी ने स्वीकृति नहीं दी। (द टाइम्स ऑफ इंडिया – 18 जून 1984)
वर्ष 1980 में इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी के साथ ही चौहान ने ब्रिटेन और कनाडा में खालिस्तान आन्दोलन को तेजी से हवा देनी शुरू कर दी। सबसे पहले ओटावा में वह चीनी अधिकारियों से मिला लेकिन चीन ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसके बाद, वह हांगकांग भी गया और वहां से बीजिंग जाने के कई असफल प्रयास किये, लेकिन चीन ने उसे अपने यहाँ आने की स्वीकृति नहीं दी। चीन से कोई समर्थन न मिलने के बाद, अमेरिका की उसमें दिलचस्पी बन गयी।
चौहान ने वाशिंगटन की कई यात्रायें की जबकि भारत सरकार ने उसके पासपोर्ट को अवैध घोषित कर दिया था। एक बार अमेरिका के स्टेट सेक्रेटरी ने उसे बिना पासपोर्ट के ही मिलने के लिए बुला लिया। चौहान को ब्रिटेन द्वारा भी एक पहचान पत्र जारी किया गया था। अप्रैल 1983 में बीबीसी ने चौहान के साथ मिलकर 40 मिनट का एक प्रोपोगेंडा वीडियो जारी किया। जिसके अंतर्गत खालिस्तान गणतंत्र का विचार, नक्शा, और पासपोर्ट दिखाए गए। जब यह मामला भारतीय संसद में विपक्ष द्वारा उठाया गया तो केंद्रीय गृह मंत्री के पास कोई उत्तर नहीं था।
टाइम्स ऑफ इंडिया में केएन मालिक की 3 अक्टूबर 1981 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, “चौहान का अमेरिकन सिक्योरिटी काउंसिल के चेयरमैन, जनरल डेनियल ग्राहम से बेहद निजी संबंध थे। इसी ने चौहान को पाकिस्तान के विदेश मंत्री आगा खान से मिलवाया था।”
इसी दौरान अमेरिका में एक खालिस्तानी नेता गंगा सिंह ढिल्लो उभरने लगा था। उसकी शादी केन्या मूल की एक सिख महिला से हुई थी, जिसकी जनरल जिया की पत्नी से अच्छी खासी दोस्ती थी। दरअसल, जिया की पत्नी भी युगांडा से थी। इन दोनों महिलाओं के पहले से आपसी संपर्कों के चलते गंगा सिंह का जनरल जिया के साथ संबंध स्थापित हो गया। उसने वाशिंगटन में ननकाना साहिब फाउंडेशन की शुरुआत की और पाकिस्तान अक्सर आने-जाने लगा।
गंगा सिंह ढिल्लो ने अमेरिका में खालिस्तान आन्दोलन को 1975 में शुरू किया था। बाद में उसे, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी, ISI के माध्यम से पाकिस्तान गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का संस्थापक सदस्य बनाया गया था। पाकिस्तान में गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की शुरुआत 1993 में ISI के पूर्व जनरल डायरेक्टर जनरल जावेद नासिर ने की थी। उसे अमेरिका के दवाब में ISI से हटाया गया था क्योंकि नासिर पर दुनिया भर में आतंकी गतिविधियों को फैलाने के पुख्ता साक्षी उपलब्ध थे। गंगा सिंह ढिल्लो 1978 में जिया के बुलावे पर पहली बार पाकिस्तान गया था। उसके बाद, अप्रैल 1980 और मार्च 1981 में फिर से दो बार उसने पाकिस्तान की लगातार यात्रायें कीं। वह नवंबर 1981 और मई 1982 में चंडीगढ़ में आयोजित सिख एजुकेशनल कांफ्रेंस में भी खालिस्तानी गितिविधियों को बढ़ावा देने के लिए हिस्सा लेना चाहता था। मगर भारत सरकार ने ढिल्लो के बजाय उसकी पत्नी और बेटे को भारत आने की स्वीकृति प्रदान कर दी। (टाइम्स ऑफ इंडिया – 4 नवंबर 1981)
अब इन सभी गितिविधयों से स्पष्ट हो गया कि खालिस्तान के पीछे पाकिस्तान का हाथ है (द ट्रिब्यून – 14 जनवरी 1982)। इस तथ्य पर संसद में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री निहार रंजन लश्कर ने भी सरकार की तरफ से स्वीकृति जता दी। (लोकसभा – 3 मार्च 1982)
दरअसल, पाकिस्तान अब सार्वजनिक रूप से खालिस्तान को अपना समर्थन देने लगा था। द ट्रिब्यून की 28 फरवरी 1982 को प्रकाशित के खबर के अनुसार पाकिस्तान के जनरल जिया ने अधिकारिक रूप से वैंकूवर स्थित खालिस्तान के कथित काउंसल जनरल, सुरजान सिंह को उनके देश [खालिस्तान] के लिए शुभकामना संदेश भेजा था। यह पत्र उन्होंने उर्दू में लिखा था जोकि इंडो कैनेडियन टाइम्स में प्रकाशित हुआ था।
पाकिस्तानी पीपुल्स पार्टी के एक प्रमुख नेता ने एक बार द टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता को बताया कि 1980 में लंदन स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग ने ब्रिगेडियर स्तर के 5 सैन्य अधिकारियों की नियुक्ति पाकिस्तान और खालिस्तानी नेताओं के बीच समन्वय एवं निर्देशन के लिए की थी। (द टाइम्स ऑफ इंडिया 20 दिसंबर 1984)
पाकिस्तान द्वारा विदेशों में खालिस्तानी अलगाववादी समाचारों के प्रचार – प्रसार के लिए भी कई हथकंडे अपनाए गए थे। साल 1964 के आसपास ‘देश परदेश’ नाम से एक पंजाबी साप्ताहिक निकलता था, जिसका 1984 में 10,000 के आसपास सर्कुलेशन था। उस दौर में इस पत्रिका का उपयोग पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध जमकर किया। ऐसे ही, लंदन के सिक्खों में ‘वतन’ नाम से एक उर्दू पत्रिका बहुत प्रचलित थी, जिसे 1984 में जनरल जिया के मंत्रिमंडल के एक पूर्व सदस्य चौधरी जहुल इलाही ने खालिस्तान को प्रचारित करने के लिए शुरू किया था। लंदन में जंग नाम से भी एक पाकिस्तानी समाचार पत्र खालिस्तानी गतिविधियों को प्रचारित करता था। (द टाइम्स ऑफ इंडिया 20 दिसंबर 1984)
लंदन स्थित हैवलॉक रोड पर सिंह सभा गुरुद्वारा पाकिस्तान की खालिस्तानी गितिविधयों का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। भारतीय उच्चायोग के किसी अधिकारी को वहां अंदर जाने की अनुमित नहीं थी, जबकि दूसरी तरफ़ पाकिस्तानी अधिकारियों का गुरुद्वारे में आना जाना लगा रहता था। यही नहीं पाकिस्तानी मंत्रियों को गुरुद्वारे द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका था। इस गुरुद्वारे के माध्यम से जरनैल सिंह भिंडरांवाले को 1 लाख पाउंड से अधिक की राशि भेजी जा चुकी थी। (द टाइम्स ऑफ इंडिया 20 दिसंबर 1948)
क्रमश: