सड़क के बीचों बीच स्थित दो गड्ढे बातें कर रहे थे….(व्यंग्य रचना)
शुभम वैष्णव
सड़क के बीचों बीच स्थित दो गड्ढों के बीच वार्तालाप का दौर शुरू हो गया। छोटे गड्ढे ने बड़े गड्ढे से पूछा – कैसे हो भैया?ठीक हूं, रोज-रोज अपने आसपास से गुजरते वाहनों को देखता रहता हूं। कई वाहन मेरे पास से गुजर कर जाते हैं तो कई वाहन मेरे भीतर ही आकर समा जाते हैं। आजकल तो चोट खाकर अस्पताल जाते लोगों को देखने की आदत सी हो गई है। अभी एक दिन की बात है जब एक अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टर मेरे भीतर आ गिरे। बेचारे अब तक कोमा में लेटे हुए हैं। मेरा तो कुछ इसी तरह का हाल है भैया, अब अपने भी तो हाल बताओ बड़े गड्ढे ने छोटे गड्ढे से कहा।
कुछ आप जैसा ही हाल हमारा है। पहले मैं आकार में थोड़ा छोटा था। अब धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा हूं। पहले लोग मुझ पर ध्यान नहीं देते थे और आज कल मेरी बात करते हैं। आजकल तो मैं समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ का आकर्षण बनता जा रहा हूं। रोज कहीं ना कहीं मेरी तस्वीर छप जाती है। मुझे तो इस खस्ताहाल सड़क को देखकर सरकारी तंत्र की बदहाली याद आ गई। सड़कों की तरह ही सरकारी व्यवस्थाओं में भी गड्ढे हो गए हैं, छोटे गड्ढे ने कहा।
छोटू, मुझे तो लगता है सारा सरकारी तंत्र ही गड्ढे में समा चुका है। तभी तो सरकारी तंत्र भ्रष्टाचार के मंत्र से फल-फूल रहा है। जिसमें फल और फूल को तो सरकारी तंत्र हजम कर जाता है और शेष बचा डंठल आम आदमी के हिस्से में आता है। आजकल के नेताओं और राजनीतिक दलों के स्वार्थ को देखकर लगता है कि चुनाव के पहले और चुनाव के बाद गठबंधन नहीं गड्ढा बंधन हो रहा है, जिसमें राजनीतिक दल एक दूसरे को पटकने की होड़ में लगे हुए हैं और आम आदमी दूर खड़ा होकर यह सब दृश्य देख रहा है, बड़े गड्ढे ने पत्रकार की तरह समीक्षा करते हुए कहा।