क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी : जिनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था
25 मार्च 1931 / इतिहास स्मृति/ क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान
रमेश शर्मा
क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी : जिनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था
सार्वजनिक जीवन या पत्रकारिता में ऐसे नाम विरले हैं, जिनका व्यक्तित्व व्यापक हो और जो विभिन्न विचारों में समन्वय बिठा कर राष्ट्र और संस्कृति की सेवा में समर्पित रहे हों। ऐसे ही क्रांतिकारी पत्रकार थे गणेश शंकर विद्यार्थी। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अहिंसक आंदोलन में जहाँ स्वयं सीधे जुड़े थे, तो वहीं क्रांतिकारी आंदोलन के बलिदानियों के अज्ञातवास की व्यवस्था करते थे। यह व्यवस्था उनके रुकने से लेकर धन प्रबंध तक होती थी। वे पाँच बार जेल गये। वे राष्ट्र के लिये सामाजिक और साम्प्रदायिक एकता आवश्यक मानते थे और कहते थे कि राष्ट्र का आधार समन्वय और सद्भाव है, संस्कृति राष्ट्र की पहचान है। पूजा उपासना पद्धति पृथक होने से राष्ट्रीयता नहीं बदलती। इसलिये सबके लिये राष्ट्र और संस्कृति सर्वोपरि होनी चाहिए। वे सदैव इसी अभियान में लगे रहे और इसी अभियान में उनका बलिदान भी हुआ।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के अतरसुइया मोहल्ले में हुआ था। प्रयागराज का नाम उन दिनों इलाहाबाद हुआ करता था। उनके पिता जयनारायण श्रीवास्तव उत्तर प्रदेश में ही फतेहपुर के निवासी थे, लेकिन मध्यप्रदेश के मुंगावली में आकर बस गये थे। यहां प्रधान अध्यापक थे और इसी स्थान को उन्होंने अपना स्थाई निवास बना लिया था। मुंगावली अशोकनगर जिले के अंतर्गत यह एक तहसील मुख्यालय है। प्रयागराज विद्यार्थी का ननिहाल था। गर्भावस्था में माता गोमती देवी मुंगावली से अपने मायके प्रयागराज गयीं और विद्यार्थी जी का जन्म वहीं हुआ। नानी गंगा देवी गणेश जी की भक्त थीं। नाम “गणेश शंकर” उनकी नाना गंगा देवी ने ही रखा था। शिक्षा और साहित्य विधा में ननिहाल भी परिवार प्रतिष्ठित था, इस नाते विद्यार्थी के ननिहाल की निकटता प्रयागराज में नेहरू परिवार से भी थी और प्रेमनारायण श्रीवास्तव परिवार से रिश्तेदारी भी। प्रेम नारायण जी यानि अमिताभ बच्चन के दादा जी। विद्यार्थी जी की मित्रता बचपन में जवाहरलाल नेहरू से हुई जो आखिर तक रही। लेकिन यह मित्रता विद्यार्थी जी की पत्रकारिता और प्रखर राष्ट्र भाव जाग्रति के अभियान में बाधा न बनी। उनके संबंध कितने गहरे रहे होंगे, इसका अनुमान इस एक बात से लगाया जा सकता है कि विद्यार्थी जी के विरुद्ध लगाये गये एक मानहानि मुकदमे में गवाही देने के लिये जवाहरलाल नेहरू अदालत तक गये थे। यह बात अलग है कि न्यायाधीश ने गवाही के तथ्य को शंकित माना और विद्यार्थी जी को सजा सुना दी। ठीक इसी प्रकार वे गाँधी जी के प्रशंसक थे। वे गाँधी जी के व्यक्तित्व को चमत्कारिक कहते थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से तालमेल के पक्ष में नहीं थे। असहयोग आंदोलन में जब गाँधी जी ने खिलाफत आंदोलन को सम्मिलित किया तो इस पर भी विद्यार्थी जी ने असहमति प्रदर्शित करते हुए प्रताप में संपादकीय लिखा था। उनका मानना था कि खलीफा व्यवस्था का समर्थन करना है तो यह आंदोलन अलग हो और भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन अलग। 1913 के बाद के उनके अनेक लेखों में पूर्ण स्वतंत्रता का आह्वान ही होता था।
विद्यार्थी जी की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सानिध्य में मुंगावली में ही हुई, और मिडिल परीक्षा 1905 में विदिशा नगर से। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए वे पुनः प्रयागराज आये। यहीं से उनका सार्वजनिक जीवन आरंभ हुआ। लेखन में रुचि बचपन से थी। यह विधा उन्हें विरासत में मिली थी। पिता और नाना दोनों परिवार शिक्षा और साहित्य सृजन से जुड़े थे। इस नाते लेखन चिंतन उनके रक्त में आया। जब वे सोलह वर्ष के थे, तब उनकी रचना “सरस्वती” पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। महाविद्यालयीन शिक्षा के दौरान वे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी, लेखक व पत्रकार पं सुन्दर लाल और साहित्यकार एवं पत्रकार पं महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आये। साहित्य में द्विवेदी जी को और पत्रकारिता में पं सुन्दर लाल को वे अपना आदर्श और गुरु मानते थे। साहित्य एवं पत्रकारिता में यह अंतर्धारा उनके प्रत्येक लेखन में झलकती है। उन्हें पढ़ने और लिखने का शौक बचपन से था, इसी शौक ने उन्हें लेखक पत्रकार बनाया। सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने पहला लघु उपन्यास लिखा। प्रयागराज में अपनी पढ़ाई के साथ उनकी रचनायें पत्र पत्रिकाओं में स्थान बनाने लगीं थीं। परिचय भी बढ़ा और समय के साथ “कर्मयोगी” के संपादकीय विभाग में सहयोगी हो गये थे। वे लेखन में अपने नाम के बाद परिवार का पारंपरिक उपनाम “श्रीवास्तव” की बजाय “विद्यार्थी” लिखते थे। वे कहते कि अभी मैं विद्यार्थी हूँ, इसलिये लिखता हूं। 1908 में अपनी पढ़ाई पूरी करके वे कानपुर आ गये। यहाँ करेंसी ऑफिस में नौकरी कर ली। तब उन्हें तीस रुपये माहवार वेतन मिला करता था। लेकिन अध्ययन और लिखना सतत जारी रहा। उनके लेखन में समाज को जाग्रत रहने और स्वयं के सम्मान का ध्यान रखने का आह्वान होता था। लेखन की यह विधा अंग्रेज अधिकारी को पसंद न थी। इसलिये विवाद हुआ और वे नौकरी छोड़कर हाई स्कूल में शिक्षक हो गये। विद्यालय का वातावरण उनके अनुकूल था। पठन-पाठन और लेखन का कार्य तेज चला। कर्मयोगी, स्वराज्य और कलकत्ते की हितवार्ता में वे नियमित लिखते रहे। 1911 में वे शिक्षक की नौकरी छोड़कर पत्रिका सरस्वती में सहायक हो गये। महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती के संपादक थे। यहाँ वे दो वर्ष रहे। 9 नवम्बर 1913 को उन्होंने प्रताप नाम से अपनी पत्रिका आरंभ की। यह नाम उन्होंने महाराणा प्रताप के ओज के रूप में माना था। प्रताप निकालने का निर्णय लिया, तब उनकी आयु तेइस वर्ष की थी। परिवार की विरासत, अध्ययन और आयु का ओज इनकी त्रिवेणी ने उनका विचार बनाया था कि राष्ट्र का निर्माण महाराणा प्रताप जैसी संघर्षशीलता और समर्पण से ही संभव है। इसलिये उन्होंने पत्रिका का नाम “प्रताप” रखा। सात वर्ष पश्चात 1920 में प्रताप को दैनिक कर दिया।
भारत की स्वतंत्रता और सार्वजनिक अभियान में ऐसा कोई नहीं था, जो उनके नाम और निर्भीक लेखन से परिचित न हो। 1916 में तिलक उनके कार्यालय आये थे। पत्रकारिता, लेखन, और समाज सेवा के साथ वे एनीबेसेन्ट के होमरूल आंदोलन से भी जुड़े। नेहरू जी के आग्रह पर विद्यार्थी जी काँग्रेस के सदस्य बन गये। वे 1925 में काँग्रेस के कानपुर अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष बने और बाद मै उत्तर प्रदेश काँग्रेस के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने 1930 के सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल भी गये। विद्यार्थी जी काँग्रेस के सदस्य तो बन गये पर न तो उनके लेखन की दिशा बदली और न अन्य गतिविधियां। उन्होंने प्रताप के कार्यालय के नीचे एक गुप्त तहखाना बनाया हुआ था, जहाँ देश का समस्त प्रतिबंधित साहित्य एकत्रित रहता था और वही क्रांतिकारियों के छिपने का स्थान था। विद्यार्थी जी को प्रताप में माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे सहयोगी मिल गये। इनके कारण प्रताप की यात्रा निर्बाध रही। विद्यार्थी जी के आंदोलन में जाने अथवा जेल जाने का प्रताप पर कोई अंतर न पड़ता था। सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह ने अपने अज्ञातवास का ढाई वर्ष का काल-खंड विद्यार्थी जी के सानिध्य में ही गुजारा। वे “बलवंत सिंह” के नाम से प्रताप में काम करने लगे और इसी नाम से लेख लिखते। यह समाचार पत्र “प्रताप” की क्रांतिकारी आवाज थी कि तब कलकत्ता और पंजाब के बाद कानपुर ही क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। प्रताप में भगतसिंह ही नहीं राम दुलारे त्रिपाठी ने भी काम किया। इन्हें भी काकोरी कांड में सजा हुई थी। गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने ही अपने कार्यालय में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह की भेंट कराई थी। विद्यार्थी जी की प्रेरणा से ही श्यामलाल गुप्त ने “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा” झंडा गीत लिखा और यहीं माखन लाल चतुर्वेदी जी ने अपना कालजयी गीत ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखा। ये दोनों गीत सबसे पहले प्रताप में प्रकाशित हुए। विद्यार्थी जी के प्रयत्न से ही झंडा गीत कानपुर में काँग्रेस अधिवेशन में गाया गया। विद्यार्थी जी के प्रयत्न से ही क्राँतिकारी अशफाक उल्ला खान की कब्र बन सकी। बलिदानी अशफाक उल्ला को 1927 में फैजाबाद जेल में फाँसी दी गयी थी।
विद्यार्थी संस्कृत, हिन्दी, उर्दू फारसी और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार थे। उनकी भाषा सरल शुद्ध और मुहावरेदार होती थी। पत्रकारिता में शुद्ध, सरल और मुहावरेदार भाषा का चलन विद्यार्थी जी ने ही आरंभ किया था। उनका प्रत्येक पल राष्ट्र, संस्कृति और पत्रकारिता के लिये समर्पित था। पर यह जीवन यात्रा दीर्घ जीवी न रह सकी। मात्र 41 वर्ष की आयु में ही उनका बलिदान हो गया। वह 25 मार्च 1931 का दिन था। कानपुर बंद का आयोजन हुआ था। यह बंद क्रांतिकारी भगतसिंह को फाँसी दिये जाने के विरोध में आयोजित था। क्रांतिकारी भगतसिंह को 23 मार्च को फाँसी दी गई थी। गम, गुस्से और विरोध में देश के विभिन्न स्थानों पर बंद का आयोजन हुआ। इसकी पहल विद्यार्थी जी ने की थी। लेकिन मुस्लिम लीग और कुछ संगठन थे, जिन्होंने बंद का विरोध किया। 24 मार्च से कानपुर में साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये। विद्यार्थी जी को लगा कि वे दंगाइयों को जाकर समझा सकते हैं कि भगतसिंह का बलिदान इस राष्ट्र की स्वाधीनता के लिये हुआ है। सबको मिलकर विरोध करना चाहिए। हालांकि सहयोगियों ने विद्यार्थी जी को रोकना चाहा पर वे न रुके। विद्यार्थी जी जितने सरल और सहज थे, उतने ही अपने निर्णय और लेखन पर दृढ़ रहते थे। वे न माने और समझाने के लिये दंगाइयों के बीच चले गये और वापस न लौट सके। दो तीन बाद दंगा थमा, तब विद्यार्थी जी को ढूंढने का प्रयत्न हुआ। लेकिन वे कहीं न मिले। अंत में 29 मार्च को उनका शव ‘अज्ञात शवों’ के ढेर में मिला। देखकर लगा कि शव के साथ भी अमानुषिकता बरती गयी थी। शव निकाला और अंतिम संस्कार किया गया। किस गली में प्रहार हुआ, किसने किया यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।