गुजरात दंगों पर शीर्ष न्यायालय का फैसला : षड्यंत्रकारियों का दांव उल्टा पड़ा

गुजरात दंगों पर शीर्ष न्यायालय का फैसला : षड्यंत्रकारियों का दांव उल्टा पड़ा

प्रमोद भार्गव

गुजरात दंगों पर शीर्ष न्यायालय का फैसला : षड्यंत्रकारियों का दांव उल्टा पड़ागुजरात दंगों पर शीर्ष न्यायालय का फैसला : षड्यंत्रकारियों का दांव उल्टा पड़ा

आखिरकार गुजरात के सांप्रदायिक दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फंसाने का दांव याचिकाकर्ताओं और उनके उत्प्रेरकों को ही उल्टा पड़ गया। अब प्रमुख षड्यंत्रकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और आईपीएस आरबी श्रीकुमार पुलिस हिरासत में हैं। जकिया जाफरी ने एसआईटी रिपोर्ट के विरुद्ध शीर्ष न्यायालय में याचिका दायर की थी। दरअसल इन दंगों में जकिया के पति एहसान जाफरी की मौत हो गई थी। इन दंगों के लिए नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराने की मांग न्यायालय से की गई थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल इस मांग को खारिज किया, बल्कि एसआईटी की जांच और एसआईटी द्वारा मोदी को दी गई क्लीन चिट को सही ठहराया। अलबत्ता न्यायालय ने तीखा रुख अपनाते हुए टिप्पणी की कि यह याचिका कड़ाही को खौलाते रहने की इच्छा से दायर की गई है। स्पष्ट है, इसके पीछे का मंतव्य गलत है। अतएव इस प्रक्रिया में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा करने की आवश्यकता है। ऐसे लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही जरूरी है। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति एएम खानविलकर की अगुवाई वाली पीठ ने 452 पृष्ठ के निर्णय में करते हुए कहा है कि जकिया की याचिका किसी दूसरे के निर्देषों से प्रेरित है। जकिया याचिका के बहाने परोक्ष रूप से अदालत में विचाराधीन मामलों में दिए गए निर्णयों पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं। ऐसा क्यों किया, यह उन्हें पता है। स्पष्ट रूप से उन्होंने किसके इशारे पर ऐसा किया, यह जांच का विषय है।’

2002 में राजधानी अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार से जुड़े मामले में विशेष जांच दल अदालत ने फैसला सुनाया था। अहमदाबाद में हुए दंगों के 14 साल बाद यह फैसला आया था। यह मामला कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफरी समेत 69 लोगों की हत्या से जुड़ा था। बहुचर्चित इस मामले में विशेष जांच दल ने 66 आरोपियों को नामजद किया था। इनमें से 24 आरोपियों को दोषी और 36 को निर्दोष करार दिया गया था। 24 में से 11 को अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी पाया। बाकी 13 को इससे कमतर अपराधों का दोषी माना था। कुल आरोपियों में से 6 की मौत फैसला आने से पहले ही हो चुकी थी। इस फैसले की सबसे अहम बात यह रही कि किसी भी आरोपी को धारा 120-बी के अंतर्गत पूर्व नियोजित षड्यंत्र का दोषी नहीं पाया गया था। अदालत ने इस संदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा था कि उपद्रवी भीड़ ने जो कुछ भी किया, वह क्षणिक या तात्कालिक उत्तेजना के चलते किया।दरअसल कांग्रेस समेत जो भी वामपंथी दल, विदेशी धन से पोषित चंद एनजीओ और बौद्विक धड़े थे, जिन्होंने अपने बयानों और छद्म लेखन से यह धारणा रचने के पुरजोर प्रयास किए थे कि गुजरात-दंगे तात्कालिक सत्तारूढ़ दल के षड्यंत्र का परिणाम हैं। साफ है, ये तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी नगरीय बौद्धिक इस मुगालते में थे कि उनकी मन-गढ़ंत धारणाएं नरेंद्र मोदी को संदेह के घेरे में ले लेंगी, क्योंकि इस भयावह दंगों के समय नरेंद्र मोदी ही गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस-6 में सवार 58 कारसेवकों को निर्ममतापूर्वक जिंदा जलाने की घटना थी। इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया के चलते 28 फरवरी 2002 को पूरे गुजरात में सांप्रदायिक माहौल खराब हो गया था। परिणामस्वरूप अहमदाबाद के मेघानी नगर क्षेत्र की गुलबर्ग आवासीय सोसायटी की इमारतों पर क्षणिक रूप से उत्तेजित होकर 400 लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया था। हमले में कांग्रेस के पूर्व सांसद जाफरी समेत 69 लोग मारे गए थे। मरे लोगों में 39 लोगों के शव तो मिल गए थे, लेकिन बाकी 30 की लाशें नहीं मिली थीं। परिणामस्वरूप इन्हें सात साल बाद कानूनी परिभाषा के अनुसार मृत मान लिया गया। गुलबर्ग के अलावा नरोदा पटिया, बेस्ट बेकरी और सरदारपुर में भी भीशण हिंसक घटनाएं घटी थीं। इन घटनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाने के कारण गुजरात की तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार पर ये आरोप मढ़ने के प्रयास हुए थे कि उसने दंगों को उकसाने का काम किया था। दंगों के ठंडे पड़ने के बाद राज्य सरकार पर ये आरोप भी लगे थे कि वह आरोपियों को बचाने, सबूतों को नष्ट करने और कानूनी प्रक्रिया को कमजोर करने में लगी है। यही नहीं 2007 अक्टूबर में एक स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से भी यही प्रयास किए गए थे कि दंगे पूर्व नियोजित षड्यंत्र का हिस्सा हैं। वहीं आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट और आरबी कुमार ने यह बेबुनियाद फर्जी दावा भी किया कि वे मुख्यमंत्री की उस बैठक में उपस्थित थे, जिसमें कथित तौर पर दंगों का षड्यंत्र रचा गया था। एसआईटी ने इस दावे को अपनी जांच में नितांत झूठा ठहराया है। इसी तरह एक झूठ यह भी गढ़ा गया कि मोदी ने मुख्यमंत्री रहते हुए दंगों को रोकने की दृष्टि से गंभीर प्रयास नहीं किए। इस सिलसिले में शीर्ष न्यायालय ने यह कहकर साफ किया है कि पुलिस की कमी के बावजूद मुख्यमंत्री ने दंगों को रोकने के पूरे प्रयास किए और उचित समय पर केंद्रीय सुरक्षा बलों एवं सेना को बुलाने की मांग की। साथ ही शांति बनाए रखने के लिए अनेक बार सद्भाव पूर्ण अपीलें भी कीं। याद रहे एसआईटी का गठन शीर्ष न्यायालय ने ही किया था।

इस कार्यवाही पर आशंका प्रकट करने वालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी था। अंत में आयोग, सरकारी संगठन सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस और जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी ने भी अदालत से पुन: जांच की मांग की थी। याचिकाकर्ताओं की इस मांग पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने गुलबर्ग, नरोदा और सरदारपुर जैसे 10 बड़े नरसंहरों से जुड़े मामलों पर निचली अदालतों में चल रही न्यायिक प्रक्रिया पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी थी। साथ ही राज्य सरकार को निर्देशित किया था कि वह मामलों की निष्पक्ष जांच के लिए एसआईटी गठित करे। राज्य की मोदी सरकार ने शीर्ष न्यायालय के आदेश का पालन करते हुए तत्काल सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में एसआईटी गठित कर दी थी। हालांकि याचिकाकर्ताओं ने तो यहां तक मांग की थी कि जांच सीबीआई को सौंपी जाए और मुकदमों की न्यायिक प्रक्रिया भी गुजरात से बाहर किसी अन्य प्रदेश में चले। साफ है, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस ने राज्य की अदालतों पर भी संदेह करने की बड़ी भूल की थी। जकिया ने तो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भी दंगों के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया था। लेकिन मोदी से लंबी पूछताछ के बाद अप्रैल 2012 में एसआईटी ने मोदी को क्लीनचिट दे दी थी।

चूंकि एसआईटी को शीर्ष न्यायालय की निगरानी में काम करने की इजाजत थी, इसीलिए एसआईटी ने अपनी पहली रिपोर्ट मई 2010 में न्यायालय को सौंपी थी। लेकिन रिपोर्ट के निष्कर्ष सामने आए तो कथित संगठन व राजनीतिक दलों ने एसआईटी की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर दिए थे। यही नहीं शीर्ष न्यायालय द्वारा नियुक्त किए गए न्यायमित्र ने भी सवाल उठाए थे। बेबुनियाद दलीलें देते हुए कहा गया कि राज्य के राजनीतिक नेतृत्व ने राजनीतिक लाभ के लिए, दंगों को मनमाने ढंग से हवा दी और प्रशासनिक अमले व पुलिस का अपने हितों के लिए दुरुपयोग किया। अदालत ने जांच प्रक्रिया में संपूर्ण निष्पक्ष व पारदर्शिता लाने की दृष्टि से एसआईटी को फिर निर्देशित किया कि वह उठाई जा रही सभी शंकाओं का निराकरण करे। इसके बाद एसआईटी ने कुछ नए तथ्यों, साक्ष्यों, बयानों व ब्‍यौरों को नत्थी करके अंतिम रिपोर्ट 2012 में न्यायालय को सौंपी। इसी रिपोर्ट में मोदी को क्लीनचिट दी गई थी। एसआईटी की रिपोर्ट में मेघानी नगर के थाना प्रभारी वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक केजी एरडा को कटघरे में खड़ा करते हुए दलील दी थी कि एरडा ने ड्यूटी पर रहते हुए लापरवाही तो बरती ही, सबूतों के साथ भी छेड़छाड़ भी की। एरडा को हिरासत में भी लिया गया था। किंतु अदालत ने सब दलीलों को दरकिनार करते हुए एरडा को बरी कर दिया था।

इन सब के बावजूद मीडिया की उत्तेजक व फिजूल बहसों में यह कहा जाता रहा कि न्याय प्रक्रिया लंबी खिंचने से साक्ष्य कमजोर व नष्ट हुए। अनेक गवाह मुकर गए व कई ने लालच के चलते बयान बदल दिए और कई मर भी गए। यह दलील भी दी गई थी कि न्याय वैसा दिखाई नहीं दिया, जो संपूर्ण समाज को सच लगे। ‘न्याय का लंबा खिंचना, हमारे प्रशासनिक व न्यायिक ढांचे की विसंगति का परिणाम हो सकती है, लेकिन किसी भी मामले में ऐसा निर्णय कभी नहीं आ सकता, जो संपूर्ण समाज और वादी के साथ प्रतिवादी को भी सच या न्यायसंगत लगे? यदि यही निर्णय समय पर आ जाता तो शायद पीड़ितों को अधिक संतोष होता। वैसे यह भी कम नहीं है कि निर्दोषों की हत्या में सम्मिलित 24 लोग  सजा के दायरे में आए। इनमें भी 11 धारा 302 के दोषी थे। यह उन लोगों के लिए भी कठोर चेतावनी है, जो किसी संप्रदाय विशेष से जुड़े मामले में भावनात्मक उत्तेजना के वशीभूत होकर कानून अपने हाथ में लेने से नहीं चूकते हैं।      

यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि हमारे यहां सांप्रदायिक दंगों से जुड़े प्रकरणों में दोषियों को सजा मुश्किल से ही मिल पाती है। अपराध अदालत की दहलीज पर पहुंचकर सिद्ध ही नहीं हो पाते हैं। यह गुजरात में ही संभव हुआ है कि दंगों के 10 मामलों में से 8 पर फैसले सुनाए गए थे। दोषियों को कठोर सजाएं भी मिलीं। वरना हम जानते हैं कि इंदिरा गांधी की बेरहम हत्या के बाद 1984 के सिख विरोधी दंगे हों, अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस  के बाद 1992-93 के दंगे हों या अन्य दंगे हों, अपेक्षाकृत कम ही मामलों में दोषियों को सजा सुनाई गई हैं। जबकि गुजरात में हमलावरों की पहचान हुई, पर्याप्त साक्ष्य जुटाए गए, गवाहों के बयान हुए और 8 मामलों में आरोपियों को सजाएं भी सुनाई गईं। इससे यह विश्वास मजबूत हुआ है कि भारतीय राज्य एवं न्याय व्यवस्था अपने-अपने दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। शीर्ष न्यायालय के फैसले से याचिकाकर्ता और उसके उत्प्रेरक जिस तरह से स्वयं षड्यंत्रकर्ता के रूप में पेश आए हैं, उससे साफ है कि भविष्य में फर्जी दावों की कूट रचना करने वाले लोगों की अक्ल ठिकाने पर आएगी और नरेंद्र मोदी जैसे निर्दोषों को भगवान शंकर की तरह विषपान की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। 

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