धर्म ध्वजा वाहक श्री गुरु तेगबहादुर जी के अन्तिम संस्कार का संकल्प
कौशल अरोड़ा
धर्म ध्वजा वाहक श्री गुरु तेगबहादुर जी के अन्तिम संस्कार का संकल्प
धर्म के संदर्भ में, सर्वमान्य कथन है- ‘धर्मो रक्षति रक्षत:’। धर्म उसकी रक्षा करता है, जो धर्म की रक्षा करते हैं। यह सजग समाज के संदर्भ में और भी सटीक है। समाज की उन्नति तभी है, जब वह विधिमान्य नीतियों का पालन करे यानि समाज धर्म का अनुसरण करे।
भारतीय इतिहास में मुगलकाल एक ऐसा ही चुनौती भरा कालखण्ड था। अराजकता, अत्याचार, तलवार के बल पर मतांतरण और महिलाओं के साथ दुराचार चरम पर था। इन मुगलिया अत्याचारों से लड़ने हेतु ही सिख पंथ की स्थापना हुई। गुरु तेगबहादुर सिखों के नौवें गुरु थे। उस समय औरंगजेब का शासन था। औरंगजेब ने वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा का केशवराय मंदिर तुड़वाया, वीर छत्रपति शिवाजी के राज्य को हड़पने का प्रयास किया, हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया। उसने कश्मीर के सूबेदार इफ्तार खान को कश्मीर से हिन्दुओं के सफाए का आदेश दिया। उसका फरमान था जो जितने जनेऊ लाएगा उसे उतनी स्वर्ण अशर्फियां दी जाएंगी।
ऐसे में कृपाराम दत्त के नेतृत्व में कश्मीरी हिन्दुओं का एक दल आनंदपुर में गुरु तेग बहादुर के पास अपनी रक्षा के लिए पहुंचा। तब गुरु तेगबहादुर जी ने कहलवाया कि, जाओ औरंगजेब से कह दो, यदि वह गुरु तेगबहादुर को मुसलमान बनाने में सफल रहा तो उनके बाद हम सब भी मुसलमान बन जाएंगे।
औरंगजेब अपने दुराचारी कार्यों से भारतीय समाज को भयभीत करना चाहता था ताकि आने वाले समय में कोई मुगल शासन के सामने सिर उठाकर न चल सके। गुरु जी की हत्या के बाद घटनास्थल पर उनका धड़ और सिर अलग-अलग स्थान पर पड़े हुए थे। औरंगजेब ने गुरु जी के शीश और देह को उस स्थान से ले जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। घटनास्थल पर मुगल सेना का कड़ा पहरा था। गुरु जी के शरीर को वहाँ से उठाना और विधि अनुरूप संस्कार करना आवश्यक था। तभी वयोवृद्ध बाबा लक्खी शाह बंजारा के मन में अदम्य साहस का संचार हुआ। उसने निर्णय किया कि श्री गुरु जी के शरीर का संस्कार होना चाहिए, चाहे उसे इसके लिये कोई भी कीमत क्यों ने देनी पड़ी।
(मोहिन्दर पाल कोहली, गुरु तेगबहादुर पृ0 40)
बाबा लक्खी शाह लबाना समाज के अंगपाल थे, जो गुरु जी की सेना में थे। उनके तीन पुत्र- हेमा, नगहिया और हाडी, अपने पिता के साथ इस पवित्र कार्य में सहयोगी बने। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर सामान लाने ले जाने का कार्य करते थे। बाबा लक्खी शाह अपने छकड़े को लेकर उस पावन हो चुकी जमीन पर पहुँचे और मुगल सैनिकों व चौकीदारों को भुलावे में डालते हुये अपने प्राणों की चिन्ता किये बिना गुरु जी की देह को उठाकर अपने छकड़े में रख अपने गॉंव रायसीना बिना रुके पहुँचे।
माघ सुदी पंचमी विक्रमी संवत् 1732 की रात्रि को लक्खी शाह ने गुरु जी की मृत बलिदानी देह को अपने घर मे रखे सारे सामान के साथ जला दिया। गुरु जी का शरीर पंचभूतों में विलीन हो गया। वह पावन पवित्र ज्योति अग्नि की जोत में मिल गई। उस अग्निकुंड में एक पावन शरीर का संस्कार हो गया, उस गाँव की धरती पावन हो गई। वह तीर्थ क्षेत्र बन गई। उनके त्याग और आत्म-बलिदान का साक्षी रकाबगंज गुरुद्वारा उसी स्थान पर बना है।
परिस्थितियाँ स्वयं कर्ता को जन्म देती हैं। चाँदनी चौक के बलिदान स्थल पर गुरु जी का शीश अब भी पड़ा था। भाई जैता ने मन ही मन संकल्प लिया कि वह गुरु जी के शीश को हर कीमत पर उनके सुपुत्र गोविन्द सिंह जी को लाकर देगा। इस कार्य में मृत्युदण्ड-सा जोखिम था, चौकीदार निरन्तर उस स्थान पर पहरा दे रहे थे। लेकिन ‘जाको राखे साईयां मार सके न कोय’ वाली कहावत सिद्व करते हुये भाई जैता ने उनका शीश आदरपूर्वक उस स्थान से अपने दो विश्वसनीय साथियों ननुआ और उदा के साथ मिलकर उठाया और निर्भीकतापूर्वक घोड़े पर सवार होकर आनन्दपुर के लिये बिना रुके निकल पड़े।
औरंगजेब को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने धर पकड़ के आदेश दे दिए। जगह-जगह पर तलाशी अभियान चलाया गया। वहीं तीनों गुरु दरबार के सच्चे सेवक अपने-अपने घोड़े पर निश्चित दूरी बनाकर अपने लक्ष्य आनन्दपुर साहिब की ओर चल रहे थे। ऐसी यात्रा जिसमें डर भी था और मौत की क्रूर सजा भी। उनके पास लक्ष्य भी था और संकल्प की सिद्वि भी। जिसे हर हाल और हर कीमत पर पाना उन तीनों योद्धाओं के लिये आवश्यक था।
पाँच दिनों की अथक यात्रा के बाद भाई जैता ने गुरु जी का शीश आनन्दपुर में उनके बेटे श्री गोविन्द सिंह जी को सौंप दिया। उन्होंने भाई जैता को सीने से लगाया और कहा, ‘रंगरेटे गुरु के बेटे’। उसी दिन 16 नवम्बर, 1675 को गोविन्द सिंह जी ने अपने पिता सच्चे पातशाह गुरु तेगबहादुर जी के शीश का विधिवत अन्तिम संस्कार किया। उनकी अस्थियों को पावन सतलुज नदी में प्रवाहित किया गया। कालांतर में दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने अपनी आत्मकथा ‘बचित्तर नाटक’ में अपने पिता के इस आत्मबलिदान का उल्लेख करते हुये लिखा है-
तिलक जंजू राखा प्रभ ताका। कीनो बडो कलू महि साका।
साधनि हेति इती जिनि करी। सीसु दीआ पर सी न उचरी॥
धरम हेतु साका जिनि कीआ। सीसु दीआ परू सिररू न दीआ।
नाटक चेटक कीए कुकाजा। प्रभ लोगन कह आवत लाजा॥
(बचित्तर नाटक, अध्याय 5, 13-16 तक)
यह धर्मार्थ साका था।