हम हिन्दू : सहजधारी सिख

हम हिन्दू : सहजधारी सिख

गुरु नानक जयंती/ 30 नवम्बर

हम हिन्दू : सहजधारी सिख

जब से श्रीहरिमंदिर साहिब में मुस्लिमों को इबादतार्थ अनुमति देने और शाहीन बाग़ में लंगर की ख़बरें आईं तबसे हिन्दुओं के बड़े और सिखों के एक छोटे तबके में यह समाचार बेचैन करने वाला बन गया कि हिन्दू और सिखों का रिश्ता आख़िर क्या है?

क्या वाकई नानक जी कुछ ऐसा लेकर आये थे जो हिन्दू धर्म में नहीं था? क्या वाकई उनकी शिक्षा ऐसी थी जिसका हिन्दू धर्म की किसी शिक्षा के साथ टकराव था? क्या वाकई नानक देव जी ने कोई नया धर्म लाया था या पूर्ण हिन्दू धर्म के अंदर के वो एक महान मार्गदर्शक, सुधारक और पुनरुत्थानवादी थे?

इसका लिटमस टेस्ट बस एक ही है, कि श्री गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं का सांगोपांग पारायण किया जाए, देखा जाये कि उनकी कौन सी ऐसी शिक्षा है जिसका मूल हिन्दू शिक्षा के साथ टकराव है? यह भी देखा जाए कि उनकी कौन सी शिक्षा है जिसका स्वागत और स्वीकृति इस्लाम में है?

ये सच है कि नानक देव जी ने ‘वहदत’ यानि ‘तौहीद’ यानि ‘एकेश्वरवाद’ यानि ‘monotheism’ की बात की। तो क्या इतने भर से वो इस्लाम के प्रचारक हो गए? क्या एकेश्वरवाद का हिन्दू चिंतन और इस्लाम का तौहीद एक ही चीज़ है? इस्लाम का तौहीद अपने साथ -साथ नबी और पैगंबर और किताब और जन्नत और जहन्नम और क़यामत और न जाने कितनी चीजों को अंतर्निहित रखता है; जबकि नानक देव जी का तौहीद केवल और केवल एक अकाल की बात कर सीधे मानव-मात्र की भलाई के समता और ममता तथा संगत और पंगत तक जाकर स्वमेव विस्तृत हो जाता है।

“इस्लामिक तौहीद” अंतहीन मान्यताओं के साथ जकड़ा है; जबकि ‘नानक देव’ की ‘वहदत’ वही है जिसे वेदों ने “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” कहा….नानक की शिक्षाओं के अंदर जो विस्तार है, पूर्णता है; वो उसी बीज का प्रस्फुटन है जिसे उपनिषदों “ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते…..” कहा। क्या नानक ने ‘वहदत’ की बात कर पंजाब पर किसी आंधी तूफ़ान की तरह काबिज़ होने की कोशिश में लगे इस्लाम को चुनौती नहीं दे डाली थी कि तुम ये कौन सी नई बात हमको बता रहे हो क्योंकि ये तौहीद तो हमारी थाती है, जो भारत-भूमि से उठा था और विकृत होकर तुम्हारे पास पहुँचा था?

नानक देव जी की शिक्षा हिंदुत्व के पूर्ण का ही और विस्तार हो जाना है। हमारे वेदों में दान को सर्वोपरि धर्म और सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य के रूप में निरूपित किया गया है, हमारे वेद ने कहा – ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त संकिर’ अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। इसके बाद फिर कहा, ‘दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते’….और इस वैदिक आदर्श के अनुपालन की सैकड़ों मिसालें हमारे यहाँ मौजूद हैं; जिसमें महादानी कर्ण से लेकर महादानी राजा शिबि तक के आख्यान हैं। ऐसे अनगिनत आख्यानें हैं जिसमें राजा हर चौथे-पांचवें वर्ष या किसी ख़ास यज्ञादि अवसरों पर अपनी समस्त संपत्ति अपनी प्रज्ञा को दान कर देते थे।

इस वैदिक आदेश का लोप जब समाज में होने लगा तो इसी को गुरु नानक देव ने पुनः आरम्भ किया। नानक देव जी ने संगत और पंगत का उपदेश हुए इसी वैदिक आदर्श को मूर्त रूप में जीवित कर दिया कि उनके शिष्यों (सिखों) के जीवन में और कुछ हो न हो दान एक आदर्श चरित्र के रूप में स्थापित हो गया है, गुथ गया है। नानक देव जी जब सिखाते थे कि “वंड छको” (मिल बांट कर खाओ) तो क्या वो “शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त संकिर” का साकार प्रस्फुटन नहीं था?

नानक जी के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने अवतारवाद का विरोध किया इसलिए हिन्दुओं के साथ उनका साम्य नहीं है। तो प्रश्न है कि अगर उन्होंने अवतारवाद और मूर्ति-पूजा का विरोध किया तो क्या ऐसा करने वाले वो अकेले थे? मध्यकाल तो भक्ति-युग था जहाँ भारत का हरेक क्षेत्र अपने यहाँ महान भक्ति-धारा का गवाह बना हुआ था तो क्या नानक जी के अलावा कबीर जैसे और संत नहीं हुए जिन्होंने अवतारवाद और मूर्ति-पूजा का खंडन किया था? क्या दयानंद ने अवतारवाद का विरोध किया तो वो हिन्दू नहीं रहे? क्या ये सच नहीं है कि अवतारवाद के विरोधी दयानंद को “महर्षि दयानंद” कहकर हम हिन्दुओं ने ही शोभित किया?

क्या हम हिन्दू ये नहीं जानते कि बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, नानक, कबीर, रामानंद, दयानंद, विवेकानंद ये सब वो चिकित्सक थे जो रुग्ण हिन्दू समाज की शल्य-चिकित्सा करने आये थे और इसके लिए उन्होंने कुछ कड़े विधि अपनाए। तो क्या इतने मात्र से हम उन्हें हिन्दू धर्म से अलग घोषित कर दें?

नानक ने निराकार की उपासना सिखाई तो क्या उन्होंने अपने सिखों को हिंदुत्व की वर्तुल से अलग कर दिया? अगर ऐसा है फिर तो ईश्वर के निराकार रूप को भजने वाले रामानंद, शंकर देव भी हिंदुत्व के वर्तुल से अलग हो जायेंगे?

ये कौन से बचकाने तर्क हैं?

जिस समय इस्लाम “आलमी मसावात” यानि मानव समानता की बात करते हुए पंजाब को मतान्तरित करने की कोशिश में था तब वो नानक देव ही थे जिन्होंने गगनभेदी ललकार से उन्हें समझाया था कि तुम्हारे समानता के ये दावे इसलिए झूठे और कपट हैं क्योंकि इसके वर्तुल में केवल और केवल मुसलमान आते हैं जबकि मैंने जिस शिक्षा का प्रबोधन किया है उसका दायरा पूरी मानव जाति को बिना भेद किये हुए स्वयं में समेटती है।

अगर नानक ऐसा कह रहे थे तो क्या वो उसी वेद-मूलक समाज की ओर हमको नहीं खींच रहे थे जिसके बारे में ऋग्वेद कहता है :- “अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय” अर्थात् ऐसे तुम, जिनमें न कोई बड़ा है और न कोई छोटा है, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए मिलकर बढ़ो?

नानक ने अपने शिष्य हर जाति से लिए। क्या वो किसी नये विधान को जन्म दे रहे थे या हिन्दुओं को उस वेदकालीन व्यवस्था का ही पुनः स्मरण करा रहे थे; जिसमें बढई रैक्य, दासी/ गणिका पुत्र सत्यकाम और वाल्मीकि को समाज के प्रबोधन का अधिकार था। नानक जब “सरबत का भला” कहते थे तो क्या वो उसी हिन्दू आदर्श की बात नहीं कर रहे थे जो मानव-मात्र के कल्याण को  अभिप्रेरित था। नानक जब “ईश्वर सबके लिए” का आदर्श स्थापित कर रहे थे तो क्या वो उसी वैदिक आदेश को आगे नहीं बढ़ा रहे थे जो कहती है कि ईश्वर की वाणी वेद श्रवण और पठन का अधिकार सबका है?

नानक देव जी की ऐसी कौन सी शिक्षा थी जिसका हिन्दुओं को इंकार है? और नानक देव जी की ऐसी कौन सी शिक्षा है जिसे मानने में हमें हिचक हो सकती है? इन दोनों प्रश्नों के साथ एक प्रश्न ये भी है कि नानक देव की ऐसी कौन सी शिक्षा है जिसे इस्लाम बिना किंतु-परंतु के मान्यता दे सकता है?

सौ-सवा सौ साल पहले गढ़े “असी हिन्दू नई” के विभाजनकारी नारे की मृगतृष्णा में आज कुछ सिख बंधु इतने आगे निकल आये हैं कि उन्हें नानक देव की बुनियादी शिक्षाओं पर चिंतन का समय ही नहीं मिल रहा है ताकि वो निष्पक्ष होकर चीज़ों पर नीर-क्षीर विवेक से काम ले सकें।

नानक देव जी ने केवल अपने सिख बनाये थे और उस सिखी के अंदर तमाम हिन्दू हैं। अलगाववाद के जहरीले नारों से प्रभावित होकर कुछ सिख संगठन अलगाववाद पैदा कर रहे हैं, लेकिन हर हिन्दू नानक का सिख है और नानक का हरेक सिख सहजधारी है। हम हिन्दू सहजधारी हैं। हम सब हिन्दू सिख हैं।

प्रश्न अब सबके लिए है कि हमारा घर, अपना पंजाब आज अलगाववाद की जिस भयंकर आंधी में जल रहा है उसे बुझाने को कितना आगे आयेंगे? क्या आप उस सच को स्वीकारेंगे जो घर के चूल्हे से भी अधिक सांझी है या उस झूठ को पोषित करेंगे जिस बीज को “मैकालिफ़” ने बोया था?

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