गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।

संत कबीर का यह दोहा कम शब्दों में ही गुरु की महानता का सम्पूर्ण परिचय दे देता है। अनादिकाल से ही भारतीय संस्कृति में गुरु को विशेष स्थान प्राप्त है। गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है।

माता-पिता हमारे जीवन के प्रथम गुरु होते हैं जो हमारा पालन पोषण करते हैं, हमें बोलना-चलना सिखाते हैं और सभी संस्कार देते हैं। उसके बाद हमारे आचार्य हमारे गुरु होते हैं जो हमें ज्ञान एवं शिक्षा से परिपूर्ण करते हैं और गुरु की शरण में आने से ही मनुष्य को परमात्मा का ज्ञान होता है।

गुरु हमारे अंदर संस्कारों का सृजन, गुणों का संवर्द्धन एवं दुर्भावनाओं का विनाश करते हैं। गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है- गुरु पूर्णिमा।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महर्षि वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। उनको समस्त मानव जाति का प्रथम गुरु माना जाता है। गुरु पूर्णिमा सद्गुरु के पूजन का पर्व है। गुरु पूर्णिमा ज्ञान का आदर और पूजन है।

रामचरित मानस में श्रीराम माता पिता और गुरु के आदेशों से बंधे थे और जो भी धर्म तथा देश के हित में हो, वही आदेश उन्हें माता पिता गुरु से प्राप्त होता था।

सभी भारतवासी समर्पण और कृतज्ञता के साथ अपने गुरु में श्रद्धा रखते आए हैं और शायद यही कारण है कि हमारा राष्ट्र, समाज और संस्कृति कई आक्रमणों के बाद भी बरकरार है। मगध के छिन्न-भिन्न हो रहे साम्राज्य को कौन बचाता अगर चन्द्रगुप्त के गुरु चाणक्य न होते? बर्बर मुस्लिम आक्रमणकारियों से हिन्दू राष्ट्र की रक्षा कौन करता अगर छत्रपति शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास न होते? गुरु गोविंद सिंह का खालसा पंथ कैसे सिरजा जाता तथा भारत और समाज की रक्षा कैसे होती अगर गुरु ग्रंथ साहिब की अमर वाणी न होती?

यह आवश्यक नहीं कि किसी देहधारी को ही गुरु माना जाए। मन में सच्ची लगन एवं श्रद्धा हो तो गुरु को कहीं भी किसी भी रूप में पाया जा सकता है। एकलव्य ने मिट्टी की प्रतिमा में ही गुरु को ढूंढ लिया और महान धनुर्धर बने। भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरु बनाए। वे कहते थे कि जिस किसी से भी जितना सीखने को मिले, हमें अवश्य ही सीखने का प्रयत्न करना चाहिए। उनके 24 गुरुओं में पक्षी, पृथ्वी, सूर्य, पिंगला, वायु, मृग, समुद्र, तीर (बाण) बनाने वाला आदि भी थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलीराम हेडगेवार जी ने ज्ञान, त्याग व यज्ञ की संस्कृति की पताका भगवा ध्वज को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। विश्व भर के स्वयंसेवक प्रतिदिन शाखा में इसी भगवा ध्वज की छत्रछाया में एकत्रित होकर भारत माता की आराधना करते हैं। त्याग और अपनत्व की भावना से लाखों स्वयंसेवक समाज में हजारों सेवा प्रकल्प चलाते हैं। वे समर्पण, त्याग, सेवा, सहयोग और समन्वय के गुणों के साथ समाज कल्याण में तत्पर हैं। गुरु के प्रति समर्पण ही स्वयंसेवकों का परम कर्तव्य है।

भगवा ध्वज रामकृष्ण, दक्षिण के चोल राजाओं, सम्राट कृष्णदेव राय, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह और महाराजा रणजीत सिंह की पराक्रमी परम्परा और सदा विजयी भाव का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है तो व्यास, दधीचि और समर्थ गुरु रामदास से लेकर स्वामी रामतीर्थ, स्वामी दयानंद, महर्षि अरविंद, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का आध्यात्मिक तेज भी प्रकट होता है, जिसने राष्ट्र और धर्म को संयुक्त किया।

जैसे सूर्य के ताप से तपती भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु चरणों में साधक को ज्ञान, शांति, भक्ति मिलती है।

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