सामाजिक समरसता, आस्था और विश्‍वास का प्रतीक गोगामेड़ी का मेला

सामाजिक समरसता, आस्था और विश्‍वास का प्रतीक गोगामेड़ी का मेला

सामाजिक समरसता, आस्था और विश्‍वास का प्रतीक गोगामेड़ी का मेलासामाजिक समरसता का प्रतीक गोगामेड़ी का मेला

वीर गोगा जी राजस्थान के पाँच प्रमुख लोक देवताओं में से एक हैं। वीर गोगा जी पर ग्रामीण समाज की ‘सर्पदंश के जहर से मुक्तिदाता’ के रूप में अगाध श्रद्धा है। गाँव-गाँव में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे गोगा जी के थान (पूजा स्थल) होते हैं। वैसे तो उनके जन्म स्थान ददरेवा सहित सम्पूर्ण राजस्थान में गोगा जी की अनेक मेड़िया हैं परन्तु गोगामेड़ी उनका सबसे बड़ा स्मारक एवं धाम है, जहाँ उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की नवमी (इसबार 31 अगस्त) को भव्य एवं विशाल मेला लगता है। राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड, बिहार, हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में भी लोकदेवता के रूप में गोगाजी की अपार मान्यता है। गोगामेड़ी हनुमानगढ़ जिले में नोहर तहसील से लगभग 40 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।

मेले का स्वरूप

गोगामेड़ी का मेला पूरे भाद्रपद महीने अपने आकर्षक रूप में रहता है। महीने की दोनों नवमी (कृष्ण व शुक्ल पक्ष) को विशेष धोक लगती है। गोगामेड़ी के समान ही ददरेवा में भी गोगा जी का मेला लगता है। गोगा जी के आस्थावान भक्त दूर-दूर स्थानों से पैदल चलकर ऊंचे-ऊंचे निशान लेकर बड़े उत्साहपूर्वक गीत गाते एवं ढोलक, मृदंग बजाते गोगा जी की मेड़ी तक आते हैं। ढोल की तान पर थिरकते हुए ये लोग लोहे की सांकलों के गुच्छों को अपने हाथों से ऊपर उठा-उठाकर अपने सिर एवं पीठ पर बारम्बार प्रहार करते हैं और एक विशेष प्रकार का नृत्य करते हैं, जिसे ‘छाया चढ़ना’ कहते हैं। नृत्य करते समय ये लोग ‘गूगा की मढ़ाई मढ़ है’ व ‘गोगा पीर तेरो लग्योउमावो’ आदि घोष लगाते हैं।

निशान के पीछे-पीछे जन समुदाय चलता है। इन निशानों पर बहुरंगी झण्डे व मोरपंख लगे रहते हैं। गोगा जी की मेड़ी के सम्मुख यह नृत्य चरम सीमा पर होता है। नृत्य करने के बाद निशानों को गोगा जी की प्रतिमा के आगे झुकाया जाता है और गोगा जी का जयकारा लगाया जाता है। तदन्तर भक्तगण उसी प्रकार नृत्य करते और ढोल बजाते हुए अपनी-अपनी टोलियों के साथ लौट जाते हैं।

सामाजिक समरसता का परिचायक

यह मेला सामाजिक समरसता को प्रगाढ़ करता है। मेले में यात्री मुख्यतया पीले वस्त्र पहने रहते हैं। इन पीले वस्त्रों में गरीब-अमीर तथा जाति वर्ण का भेद अनायास ही तिरोहित हो जाता है। मेले में आसपास के गाँव वाले तथा दूरदराज क्षेत्र के शिल्पी कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। साथ ही अपनी जीविका का प्रबन्ध भी इसी मेले में करते हैं। ग्रामोद्योग, स्थानीय शिल्प एवं कुटीर उद्योगों को यह मेला एक आधार प्रदान करता है। पर्यटन एवं क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने में इसका अहम योगदान है। जिला प्रशासन, पशुपालन विभाग व अन्य विभागों एवं संगठनों के समन्वय से मेला व्यवस्थित रूप से पूर्ण होता है।

मेले में परिवहन, चिकित्सा, पानी एवं सुरक्षा आदि की व्यवस्था की जाती है। अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं इस मेले में सेवा कार्य कर सेवा भावना का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। गोगा जी का यह मेला समाज में एकता, अखण्डता एवं राष्ट्रीयता की भावना को जन-जन तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाता आ रहा है।

लोक देवता गोगा जी

गोगा जी कब हुए इस पर इतिहासकारों की अलग-अलग राय है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार वीर गोगादेव का जन्म 11वीं शताब्दी में राजस्थान के चूरू जिले के ददरेवा नामक स्थान पर यहाँ के शासक राणा जेवर (जीवराज) की पत्नी बाछल देवी के गर्भ से भाद्रपद की नवमी को हुआ था। राणा जेवर एवं रानी बाछल देवी की नाथपंथी गुरु गोरखनाथ के प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी, इसलिए गोगा देव का जन्म इन्हीं के वरदान से हुआ माना जाता है। गोगा जी को गुग्गावीर, जाहरवीर, गोगा पीर, जाहर पीर आदि कई नामों से पूजा जाता है।

वीर गोगा देव अपने समय के महान योद्धा थे। राणा जेवर के देवलोक गमन के बाद वे ददरेवा के शासक बने एवं गोगा राणा के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने अनेक युद्ध लड़े एवं जीते। इनका राज्य विशाल मरुभूमि के अलावा हांसी और सतलज (हरियाणा) तक था। नारी का अपमान करने पर इन्होंने अपने मौसेरे भाइयों अर्जन-सुर्जन को भी मार डाला था।इन्होंने धर्म एवं गोरक्षार्थ ग्यारह बार मुगलों से युद्ध किए।

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