चित्तौड़ का दूसरा जौहर : रानी कर्णावती का तीन हजार वीरांगनाओं के साथ अग्नि प्रवेश
8 मार्च 1534 / इतिहास स्मृति
रमेश शर्मा
चित्तौड़ का दूसरा जौहर : रानी कर्णावती का तीन हजार वीरांगनाओं के साथ अग्नि प्रवेश
आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस दिन पहली बार 1907 में न्यूयार्क की सड़कों पर महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिये एक विशाल प्रदर्शन किया था। लेकिन भारतीय इतिहास में 8 मार्च की तिथि एक ऐसी घटना का स्मरण कराती है, जिसमें तीन हजार वीरांगनाओं ने अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अग्नि में प्रवेश किया था।
यह चित्तौड़ का दूसरा बड़ा जौहर था, जो महारानी कर्णावती के नेतृत्व में हुआ था। तीन हजार वीरांगनाओं ने अपना बलिदान दिया था। इनमें नन्हीं बालिकाओं से लेकर बुजुर्ग महिलाएँ भी थीं। रानी कर्णावती को ही इतिहास की कुछ पुस्तकों में रानी कर्मवती भी लिखा गया है। वे बूँदी के राजा नरबद हाड़ा की पुत्री थीं। उनका विवाह चित्तौड़ के महान सम्राट राणा संग्राम सिंह से हुआ और वे चित्तौड़ की महारानी बनीं। उनके पति राणा संग्राम सिंह इतिहास की कुछ पुस्तकों में राणा साँगा के नाम से ख्यात हैं। राणा संग्राम सिंह ने पेशावर की सीमा पर जाकर भगवा ध्वज फहराया था। लेकिन विश्वासघात के चलते उन्हें घायल होकर खानवा के युद्ध से निकलना पड़ा था। उनके साथ विश्वासघात केवल युद्ध भूमि तक ही सीमित न रहा था, अपितु घायल अवस्था में भी एक विश्वासघाती ने विष देकर उनकी हत्या कर दी थी। तब रानी कर्णावती ने अपने बालवय पुत्र विक्रमजीत को गद्दी पर बिठाकर राजकाज देखने का कार्य आरंभ किया। लेकिन चित्तौड़ में राजपरिवार के ही कुछ लोग बालवय राजकुमार को शासक बनाने के पक्ष में नहीं थे। वे भी भीतर ही भीतर सत्ता परिवर्तन का षड्यंत्र रच रहे थे। इस घटनाक्रम से गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह अवगत था। उसने चित्तौड़ पर धावा बोल दिया।
चित्तौड़ पर बहादुरशाह का यह दूसरा हमला था। उसका पहला हमला राणा जी के समय हुआ था, लेकिन तब राणा जी के हाथों बुरी तरह पराजित हुआ था और क्षमा मांग कर गुजरात लौट गया था। वह क्षमा मांग कर लौट अवश्य गया था, पर मन ही मन तिलमिलाया हुआ था। वह अवसर की खोज में था। उसने परिस्थितियों का आकलन किया। उसे लग गया था कि खानवा के युद्ध में चित्तौड़ की शक्ति क्षीण हो गई थी। इस पर राणा जी के निधन से स्थिति और कमजोर हो गई थी। उसे यह अच्छा अवसर दिखा और उसने 1534 में चित्तौड़ पर धावा बोल दिया। रानी ने सहयोग के लिये राजपूतों को सहायता के लिये संदेश भेजे। इस बार चित्तौड़ में अधिक सहयोगी न जुट सके। सहयोगी रायसेन के राजा को बहादुरशाह ने ही धोखे से पराजित कर दिया था, तो खानवा युद्ध के बाद बाबर ने कालिंजर पर धावा बोल दिया था। इस प्रकार चित्तौड़ की इन दो बड़ी सहयोगी रियासतों का पतन हो गया था। इसी अवसर का आकलन करके बहादुरशाह ने फरवरी में चित्तौड़ पर घेरा डाला। यह घेरा लगभग एक माह तक पड़ा रहा। बहादुरशाह ने किले के भीतर रसद ही नहीं, पानी जाने के रास्ते भी रोक दिये थे। चित्तौड़ पर एक बड़ी विपत्ति आ गई थी। रानी कर्णावती के कंधों पर मेवाड़ के सम्मान की रक्षा का दायित्व था और वे इसके लिए दृढ़ संकल्पित थीं। उन्होंने अपने दोनों बेटों विक्रमजीत सिंह और उदय सिंह को गुप्त मार्ग से पन्ना धाय के संरक्षण में बूंदी भेजा और सेनापतियों की बैठक बुलाकर हमले का सामना करने की नीति अपनाई।
चित्तौड़ का अपना इतिहास रहा है। चित्तौड़ के राजपूतों ने अपने प्राण देकर अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा की है। वर्तमान परिस्थिति को भाँप कर मेवाड़ के बहादुर वीरों ने अपने प्राण देकर भी मेवाड़ की रक्षा का संकल्प लिया। उन्होंने समर्पण के बजाय निर्णायक युद्ध करके वीरगति को प्राप्त करने का निर्णय लिया। राजपूताने की भाषा में इस रणनीति को साका और जौहर कहते हैं। रानी कर्णावती के विश्वस्त वीरों ने साका और वीरांगनाओं ने जौहर करने का निर्णय लिया। रात्रि में एक विशाल चिता तैयार की गई और वीरांगनाओं ने अग्नि में प्रवेश किया। इनकी संख्या तीन हजार थी। इनके साथ छोटे बच्चों को भी तालाब में फेंक दिया गया। यह घटना 8 मार्च 1534 की है। अगले दिन किले के द्वार खोलकर निर्णायक युद्ध आरंभ हुआ।
इस जौहर को मेवाड़ का दूसरा जौहर कहा जाता है। पहला जौहर रानी पद्मिनी का था और यह दूसरा जौहर रानी कर्णावती का था। साका अधिक देर न चल सका। बहादुरशाह के तोपखाने के आगे युद्ध पूरे दिन भी न चल सका। जीत के बाद बहादुरशाह किले में प्रविष्ट हुआ, पर उसे सन्नाटा और राख के ढेर मिले। इसके बाद क्रूरता दिखाते हुए बहादुरशाह के सिपाहियों ने आसपास के गाँवों में खूब लूट मचाई।