चीनी कर्ज का मकड़जाल
बलबीर पुंज
मानव सभ्यता चाहे कितना भी विकास कर ले, उसमें व्याप्त राक्षसी प्रवृतियां आज भी जस की तस हैं। कमजोर राष्ट्रों को पहले भी शक्तिशाली सेना और हथियारों के बल पर रौंदा गया है और अब भी ऐसा होता है। उद्देश्य वही है, केवल उसका स्वरूप बदल गया है। अब देशों को गुलाम बनाने या उन पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए सैन्यबल से अधिक आर्थिक प्रपंचों का सहारा लिया जाता है। वर्तमान समय में ऐसे शोषण का मूर्त प्रतीक चीन के रूप में उभरा है। आज जहरीले सर्प रूपी चीन का काटा, पानी मांगने की स्थिति में भी नहीं रहता है।
भारत के पड़ोस में श्रीलंका और पाकिस्तान, साम्राज्यवादी चीन की कुत्सित मानसिकता का नवीनतम शिकार हैं। यह ठीक है कि पाकिस्तान काफी हद तक अपने कुकर्मों के कारण संकटमयी स्थिति से गुजर रहा है, जहां पेट भरने के लिए रोटी की भारी किल्लत है, चायपत्ती का अकाल है, खाद्य-तेल की कमी है, तो बिजली का गहरा संकट है। इस प्रकार की अनियंत्रित स्थिति से बचने हेतु पाकिस्तान को एक बार पुन: उसके ‘मित्र’ चीन से 70 करोड़ डॉलर का नया कर्ज मिला है।
ऊपरी तौर पर लगता है, मानो चीन ने अपने सदाबहार दोस्त पाकिस्तान को बचाया हो, किंतु ऐसा नहीं है। वास्तव में, चीन इसके माध्यम से पाकिस्तान को अपने कर्ज के दलदल में और फंसाता जा रहा है। पाकिस्तानी स्टेट बैंक के अनुसार, इस इस्लामी राष्ट्र पर जो चीनी कर्ज वर्ष 2017 में 7.2 अरब डॉलर था, वह अप्रैल 2018 में 19 अरब डॉलर, तो 2020 में 30 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर गया। वर्तमान में यह लगभग 30 अरब डॉलर है। एक अनुमान के अनुसार, पाकिस्तान को चीनी ऋण चुकाने में 40 वर्ष लग सकते हैं। अभी इस इस्लामी देश पर कुल देनदारी और कर्ज, उसके कुल सकल घरेलू उत्पाद का 70 प्रतिशत है और इसमें लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा अकेले चीन का है। इसके लिए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजना को मिल रहा ब्याजयुक्त चीनी निवेश मुख्य रूप से जिम्मेदार है।
पाकिस्तान से पहले श्रीलंका दिवालिया हो चुका है, जिसमें उसकी विवेकहीन आंतरिक नीतियों के साथ चीनी कर्ज ने बड़ी भूमिका निभाई है। इस द्वीपीय देश को संकट से उबारने हेतु अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अन्य ऋणदाताओं से 10 वर्षीय ऋण अधिस्थगन और 15 वर्षीय ऋण पुनर्गठन का आश्वासन मिलने पर 2.9 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता का प्रस्ताव रखा है। इसमें श्रीलंका के प्रमुख कर्जदाता चीन को छोड़कर, भारत सहित अन्य संप्रभु लेनदारों ने आईएमएफ को संतोषजनक आश्वासन दिया है।
आखिर चीन ने ऐसा क्यों किया? सच तो यह है कि चीन अपने कर्ज की अदायगी नहीं होने पर श्रीलंका में भौतिक संपत्ति (अपने निवेश से हुए निर्माण सहित) को कब्जाना चाहता है, जैसे उसने वर्ष 2017 में हंबनटोटा बंदरगाह के साथ किया था। तब श्रीलंका ने कर्ज नहीं चुका पाने पर चीन को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह 99 सालों के पट्टे पर दे दिया था। इस तरह चीन, अब छह अन्य श्रीलंकाई परियोजनाओं पर नजरें गड़ाए बैठा है, जहां वह भविष्य में हिस्सेदारी या अधिक नियंत्रण या फिर दोनों की मांग कर सकता है। हंबनटोटा ऑयल रिफाइनरी, कोलंबो स्थित फ्लोटिंग एलएनजी प्लांट, चीन द्वारा निर्मित कोलंबो पोर्ट सिटी आदि पर चीन की गिद्धदृष्टि है।
अगस्त 2022 को जारी फोर्ब्स रिपोर्ट के अनुसार, चीन का सबसे अधिक विदेशी कर्ज पाकिस्तान-श्रीलंका के साथ अंगोला, इथोपिया, केन्या, जांबिया और कांगो आदि अफ्रीकी देशों पर है। दावा किया जाता है कि अफ्रीका महाद्वीप पर चीनी ऋण का उपयोग नागरिकों के लिए आधारभूत संरचना को विकसित करने में किया जा रहा है। किंतु ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ के अनुसार, 2000 से 2020 के बीच चीन ने सैन्य खर्चों हेतु आठ अफ्रीकी देशों के साथ 3.5 बिलियन डॉलर (271 अरब रुपये) के 27 कर्ज सौदों पर हस्ताक्षर किए हैं। इसमें से अधिकतर पैसा सैन्य विमान, उपकरण, प्रशिक्षण और सेना-पुलिस के लिए आवासीय इकाइयों के विकास में खर्च हुआ। आर्थिक रूप से कमजोर इन देशों के दिवालिया होने पर इन्हीं सामरिक क्षेत्रों पर चीन का आधिपत्य होने का खतरा है।
वास्तव में, चीन को किसी प्रचलित भाषा या संज्ञा से नहीं बांधा जा सकता। उसकी राजनीति में जहां हिंसक मार्क्सवाद है, तो आर्थिकी निकृष्ट पूंजीवाद पर आधारित है, जहां अमानवीय और उत्पीड़न युक्त साम्राज्यवाद का वीभत्स रूप दिखता है। इसी विषाक्त कॉकटेल रूपी चिंतन से वह अपनी अति-महत्वकांक्षी और खरबों डॉलर की ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) परियोजना से पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश सहित 130 से अधिक देशों की संप्रभुता और आर्थिक संरचना को अपने एजेंडे की पूर्ति हेतु प्रभावित कर रहा है। 6 मार्च 2018 को अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री रेक्स टिलर्सन ने कहा था, “चीन कई देशों को अपने ऊपर निर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। वो जिन अनुबंधों को प्राप्त कर रहा है, वो पूरी तरह से अपारदर्शी हैं। नियम और शर्तों को लेकर स्पष्टता नहीं है। बेहिसाब कर्ज़ देने से उन देशों की आत्मनिर्भता समाप्त होगी।”
बीते कई वर्षों में कुछ देश, चीन की बदनीयती को भांपकर उसके साथ किए समझौतों को या तो निरस्त कर रहे हैं या फिर उसकी समीक्षा। उदाहरणस्वरूप, मलेशिया ने वर्ष 2018 में ओबीओआर के अंतर्गत, 20 अरब डॉलर की लागत से बन रहे ईस्ट-कोस्ट रेलमार्ग परियोजना को यह कहकर निलंबित कर दिया कि वह चीनी कर्ज का बोझ नहीं सह सकता।
इस पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति क्या है? मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, गत दिनों ही भारत सरकार ने चीन संबंधित कर्ज और सट्टेबाजी वाले लगभग सवा दो सौ मोबाइल एप्स को प्रतिबंधित किया है। यह कार्रवाई स्वागत योग्य है। किंतु इस पृष्ठभूमि में भारत-चीन के बीच व्यापार घाटा पहली बार 100 अरब डॉलर के आंकड़े को पार गया है। अनुमान लगाना कठिन नहीं कि भारत से व्यापार करते हुए चीन जो प्रतिवर्ष लाखों करोड़ रुपयों का शुद्ध लाभ कमाता है, उसका प्रत्यक्ष-परोक्ष उपयोग वह अपनी भारत विरोधी नीतियों (पाकिस्तान को कर्ज देने सहित) में ही करता है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)