चीनी हरकतें और विपक्षी दलों का रवैया
प्रणय कुमार
जो वामपंथी कला, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति जैसे गैर-राजनीतिक क्षेत्रों में भी तथाकथित सामंतवाद, साम्राज्यवाद, असहिष्णुता, अधिनायकवादिता आदि का आए दिन हौआ खड़ा किए रहते हैं, घोर आश्चर्य है कि वे चीन के साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, आक्रामक एवं तानाशाही रवैये पर एक शब्द भी नहीं बोलते।
आज संपूर्ण भारत वर्ष विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, आक्रामक चीन और वहाँ की तानाशाह सरकार की दादागीरी के प्रति आक्रोशित और क्षुब्ध है। 20 भारतीय सैनिकों की शहादत के पश्चात यह क्षोभ और आक्रोश अपने चरम पर है। भारतीय सैनिकों पर उसका यह हमला सुनियोजित था। बताया तो यहाँ तक जाता है कि चीनी सैनिक लाठी-डंडों पर नुकीले लोहे की तार बाँधकर आए थे और कुछ ने तो चाकू तक छुपा रखा था।
ध्यातव्य हो कि चीन के प्रति देशवासियों का यह क्षोभ और आक्रोश तात्कालिक प्रतिक्रिया या क्षणिक उत्तेजना मात्र नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि 1962 में चीन के हाथों तत्कालीन काँग्रेसी नेतृत्व के एकपक्षीय आत्म-समर्पण को भारतीय जनमानस ने कभी हृदय से स्वीकार नहीं किया। उस शर्मनाक पराजय से भले ही तत्कालीन नेतृत्व और उनके उत्तराधिकारियों को कोई खास फ़र्क न पड़ा हो, पर भारत का देशभक्त जनसमुदाय उस अपमान की आग में सदैव जलता रहा है। और उस अपमान की आग में घी का काम करती रही है सीमावर्त्ती क्षेत्रों में चीन की लगातार घुसपैठ।
थोड़े-थोड़े अंतरालों के पश्चात भारतीय भूभागों का अतिक्रमण, वास्तविक नियंत्रण-रेखा के अति समीपवर्त्ती क्षेत्रों में उसकी सैन्य एवं सामरिक गतिविधियाँ, सियाचिन, नाथुला, डोकलाम और गलवान में भारतीय सैनिकों के साथ उसकी हाथापाई एवं हिंसक झड़पें चीन की नीयत बताती हैं। सच्चाई यह है कि भारत ने भले चीन के साथ हुई तमाम संधियों का वचनबद्धता के साथ पालन किया हो, पर चीन ने कभी भी सहयोग और शांति की किसी संधि का सम्मान नहीं किया।
चीन की इन हरकतों और हिमाकतों से जहाँ एक ओर पूरा विश्व आक्रोशित एवं क्षुब्ध है, वहीं अपने कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं का चीन को लेकर रुख़ हैरान करने वाला है। वे चीन के इस विस्तारवादी-आक्रामक रवैये में भी अपने लिए एक अवसर ढूँढ़ रहे हैं। हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोधी एवं विपक्षी पार्टियों को सरकार से प्रश्न पूछने, उसकी आलोचना करने की आज़ादी मिलती है और मिलनी भी चाहिए। परंतु भारत इकलौता देश है, जहाँ की विपक्षी पार्टियाँ राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करती हैं और युद्ध-काल में भी अपनी सरकार को घेरती हैं। ऐसे-ऐसे वक्तव्य ज़ारी करती हैं, जिनका सीधा लाभ देश के दुश्मनों को मिलता है। वे अपनी ही सेना का मनोबल तोड़ती हैं और देश के शक्ति-बोध एवं सामूहिक बल को कमज़ोर करती हैं। करुणा और संवेदना जताने के नाम पर ज़ारी वक्तव्य, चलाया गया विमर्श कब क्रूर उपहास में परिणत हो जाता है, यह कदाचित राजनीति के इन सिद्धहस्त व सत्तालोभी खिलाड़ियों को भी नहीं मालूम होता है! घोर आश्चर्य है कि इनके अनुयायी और समर्थक-वर्ग बिना सोचे-विचारे उसी विमर्श और उससे निकले निष्कर्ष को आगे बढ़ाते रहते हैं।
जो वामपंथी कला, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति जैसे गैर-राजनीतिक क्षेत्रों में भी तथाकथित सामंतवाद, साम्राज्यवाद, असहिष्णुता, अधिनायकवादिता आदि का आए दिन हौआ खड़ा किए रहते हैं, घोर आश्चर्य है कि वे चीन के साम्राज्यवादी, विस्तारवादी आक्रामक एवं तानाशाही रवैये पर एक शब्द भी नहीं बोलते! उन्हें यूरोप-अमेरिका का पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, बाजारवाद, उपभोक्तावाद तो दिखाई देता है, पर विश्व भर के बाज़ार-व्यापार पर कब्ज़ा करने को उद्धत-आतुर साम्राज्यवादी चीन का नहीं! चीन पर उनकी अंतहीन और भयावह चुप्पी क्या अंदरखाने में किसी गोपनीय सांठगांठ की कहानी नहीं बयां करती? मत भूलिए कि यह वही दल है जिसने 62 के युद्ध में भी चीन का समर्थन किया था और अपने इस धृष्ट-दुष्ट आचरण के लिए उसने कभी देशवासियों से क्षमा-याचना भी नहीं की।
अब बात देश की मुख्य विपक्षी पार्टी काँग्रेस की। सच तो यह है कि आज वैचारिक स्तर पर भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी काँग्रेस का अपना कोई मौलिक व ठोस वैचारिक आधार बचा ही नहीं है। गाँधी के ठीक बाद से ही उनका वैचारिक क्षरण होने लगा था। नेहरू स्वप्नजीवी रहे और उनके बाद तो धीरे-धीरे काँग्रेस वामपंथ एवं क्षद्म धर्मनिरपेक्षता का मिश्रित घोल बनकर रह गया। काँग्रेस के वर्तमान नेतृत्व ने तो देश को हर मुद्दे पर लगभग पूरी तरह निराश ही किया है। उनके किसी विचार से उनकी ताज़गी का एहसास नहीं होता। बल्कि चीन या सर्जिकल स्ट्राइक जैसे गंभीर मुद्दे पर उनका बचकाना बयान उनकी बची-खुची साख़ में भी बट्टा लगाता है।
ऐसे में सत्तारूढ़ दल व उसके नेतृत्व से अपेक्षाएँ और बढ़ जाती हैं। चीन की धमकी एवं दादागीरी से बेफ़िक्र रहते हुए भारत-चीन सीमावर्त्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे को मज़बूती प्रदान करने के बहुप्रतीक्षित कार्य को समयबद्ध चरणों में संपन्न करना होगा। साम्राज्यवादी एवं कुटिल चीन को समझने में जो भूल पंडित नेहरू ने की थी, वैसी ही भूल दुहराना या उस पर भरोसा करना देश को नए-नए संकटों में डालना होगा।
सबसे महत्त्वपूर्ण और स्मरणीय बात यह है कि केवल सरकार और राजनीतिक नेतृत्व के भरोसे किसी भी राष्ट्र का गौरव और स्वाभिमान सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। अपितु इसके लिए नागरिकों को भी अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदयित्वों का सम्यक निर्वाह करना पड़ता है। निहित स्वार्थों की तिलांजलि देकर राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी पड़ती है। अपितु स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर राष्ट्र की राह में सरकार से बड़ी भूमिका सजग-सतर्क-सन्नद्ध नागरिकों की ही होती है। सरकारें संधियों-समझौतों से बँधी होती हैं, जनसाधारण नहीं। स्वदेशी वस्तुओं का व्यापक पैमाने पर उपयोग-उत्पादन कर चीन की आर्थिक रीढ़ तोड़ी जा सकती है। रोज़गार के नए-नए अवसर तलाशे जा सकते हैं।