जवाब चीन को, लेकिन दर्द यहां
भारत-चीन तनाव
मुरारी गुप्ता
हमारे देश में चीन की शह पर पल रहे उन लोगों का क्या किया जाए जो इस तरह की संवेदनशील परिस्थितियों में भी अपने ही राष्ट्र का अपमान करने पर तुले हैं! भारत ने करारा झटका चीन को जरूर दिया है, लेकिन उसके कम्पन हमारे बीच के कई लोगों में महसूस किये जा रहे हैं।
चीन इस समय दुनियाभर के लिए खतरनाक देश साबित हो रहा है। भारत के साथ-साथ ताइवान, हांगकांग, वियतनाम, कंबोडिया, इंडोनेशिया जैसे पड़ोसियों के साथ उसके संबंधों में विश्वास में भारी कमी आई है। चीन अपनी इस विश्वसनीयता को वापस सुधार पाएगा, इसमें संदेह है। अपनी तथाकथित आर्थिक शक्ति के बल पर उसने अनेक छोटे-छोटे देशों को अपना कर्जदार बना लिया है। वह अमरीका के लिए चुनौती बना हुआ है।
लेकिन चीन को पहली बार विवशता का सामना करना पड़ रहा है। यह सच है कि भारत के साथ 1962 के युद्ध में उसने भारत की सदाशयता का बेजा लाभ उठाते हुए या कहें हमारे तत्कालीन नेतृत्व की कमजोरियां का अनुचित फायदा लेते हुए भारत का एक बड़ा भूभाग हथिया लिया था। लेकिन इस बार उसका मुकाबला बदले हुए लेकिन तेज तर्रार और स्पष्ट नेतृत्व के साथ था। संभव है उसे इस बार यह कल्पना नहीं थी कि भारत जमीन के इस टुकड़े के लिए इतना गुत्थमगुत्था हो जाएगा और उसे सैन्य और आर्थिक मोर्चे पर इस तरह का सामना करना पड़ेगा। इस सारे प्रकरण से चीन को निश्चय ही करारा झटका लगा है। इस झटके को चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान के शब्दों में महसूस किया जा सकता है- “उनका देश चीन से जुड़े 59 मोबाइल एप पर भारत सरकार द्वारा प्रतिबंध के कदम से बेहद चिंतित है।” इतना बड़ा आर्थिक साम्राज्य वाला चीन क्यों महज 59 एप्स के भारत में प्रतिबंधित होने से चिंता में है भला।
पिछले दिनों ही केंद्र शासित लद्दाख के गलवान घाटी क्षेत्र में चीन की हरकतों का भारत की सैन्य ताकत ने करारा जबाव दिया। इस जबाव में हमारे बीस सैनिक जरूर वीरगति को प्राप्त हो गए थे, लेकिन उन वीर सैनिकों ने चीन के कई गुना सैनिकों को परलोक पहुंचा दिया था। चीनी सैनिकों के हताहत होने का आंकड़ा कितना होगा इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने अभी तक अपने मरने वाले सैनिकों का खुलासा भी नहीं किया है। अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को सैनिकों के शव तक नहीं दिए गए हैं।
चीन के बदले रुख को भांपने के लिए वहां समाचार चैनलों के एंकरों के ठंडे पड़े स्वरों को सुनिए। वे एंकर इस बात से दुखी हैं कि क्यों भारत में चीन के उत्पादों के बहिष्कार की बातें हो रही हैं। भारत ने बड़े पैमाने पर उन तमाम परियोजनाओं को निरस्त कर दिया है जिनमें भारी संख्या में चीनी निवेश था या जिन परियोजनाओं का ठेका चीनी कंपनियों के पास था। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (और संभव है यहां की भी) और वहां का आर्थिक जगत भारत के इस कड़े रूख से बुरी तरह चकित है।
लेकिन हमारे देश में चीन की शह पर पल रहे उन लोगों का क्या किया जाए जो इस तरह की संवेदनशील परिस्थितियों में भी अपने ही राष्ट्र का अपमान करने पर तुले हैं। भारत ने झटका चीन को जरूर दिया है, लेकिन उसके कम्पन हमारे बीच के कई लोगों में महसूस किये जा रहे हैं। आप पार्टी के बड़बोले नेता संजय सिंह ने ट्वीट किया- एप बंद करने की नौटंकी इसलिये की गई कि चंदा वापस करने की माँग पीछे हो जाये। पेटीएम टिकटॉक समेत तमाम कम्पनियों से पीएम केयर्स में सैंकड़ों करोड़ चंदा लिया गया है। इसमें वो कम्पनियाँ भी शामिल हैं जिनका सम्बंध चीनी सेना से है इन कम्पनियों का चंदा वापस करो मोदी जी।”
ख्यात वकील प्रशांत भूषण सहित एक पूरी ट्विटर फौज चीनी एप्स पर प्रतिबंध से विलाप करने लगे हैं। संभव है आने वाले दिनों में प्रशांत भूषण उच्चतम न्यायालय में टिक-टॉक का मुकदमा भी लड़ें। संजय सिंह और प्रशांत भूषण जैसे लोग आखिर चीनी एप की वकालात क्यों करने लगे हैं? उन्हें टिक-टॉक के पैसों की इतनी फिक्र क्यों होने लगी भला। कहीं तार बीजिंग से तो नहीं जुड़े हैं? क्योंकि ऐसे ही तार अमरीका में वहां की एजेंसियों ने खोज निकाले हैं, जो सीधे बीजिंग तक जाते थे।
वैसे भी प्रोपेगेंडा में चीन की कम्युनिस्ट सरकार को महारत हासिल है। इस प्रोपेगेंडा में भारत के तथाकथित उदार चरित्र वाले लोग नहीं फंसे होंगे, यह विश्वास करना कठिन है। अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक ट्वीट में चीन पर निशाना साधते हुए लिखा है कि चीन अमरीका के अखबारों को भारी भरकम विज्ञापन देकर अपने प्रोपेगेंडा चला रहा है। अमरीका में इस साल जनवरी महीन में मिले दस्तावेजों अनुसार चीनी की कम्युनिस्ट सरकार के एक प्रचार आउटलेट ने पिछले कुछ सालों में कई अमरीकी अखबारों को विज्ञापन और मुद्रण शुल्क के रूप में कई मिलियन डॉलर दिए हैं। ऐसे भी कई मामले सामने आए हैं कि चीन की शि जिनपिंग सरकार ने स्कॉलरशिप और शोध के नाम पर बड़ी रकम देकर अमरीकी पत्रकारों और प्रभावशाली लोगों को अपने पक्ष में करने के प्रयास किए हैं। ऑस्ट्रेलिया में तो एक सांसद को चीन के साथ मिलीभगत के मामले में गिरफ्तार तक किया गया है। इसलिए भारत में जब इस तरह की आवाजें उठती हैं, तो हमें संदेह नहीं होना चाहिए कि इन आवाजों के तार कहां से जुड़े हैं।
भारत में किसी भी दुश्मन को उसी की भाषा में जबाव देना जानता है और लगातार दे भी रहा है। उसका असर भी दिख रहा है। लेकिन चीनी कम्युनिस्टों के प्रोपेगेंडा का जबाव तो हम सबको मिलकर ही देना होगा। हम नागरिकों का कर्तव्य हमारे बीच बैठे उन घुसपैठियों की पहचान करना है, जो जिनकी रगों में नमक भले भी भारत का हो, लेकिन उनका मन कहीं दूर बीजिंग से संचालित हो रहा है। इस संवेदनशील घड़ी में जब हर एक भारतीय नागरिक सरकार के निर्णय के साथ है, तो इन तथाकथित लिबरल और वामपंथ प्रेरित लोगों को क्यों सरकार के हर निर्णय पर संदेह है? क्या उनकी आस्थाएं उन्हें यह सब स्वीकार करने से मना करती हैं?