जम्मू कश्मीर : परिसीमन के विरोधियों की पीड़ा जायज है
गंगा सिंह राजपुरोहित
जम्मू कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने को लेकर मोदी सरकार की पहल से अलगाववादी अलग- थलग पड़ गए हैं। दशकों से पाकिस्तान की शह पर उछल-कूद करने वाले सभी दलों की नकेल कसने की जबरदस्त तैयारी चल रही है। जम्मू कश्मीर में तयशुदा नियमों से परिसीमन हुआ तो सत्ता और राजनीतिक तंत्र का संतुलन पूरी तरह राष्ट्रीय धारा में आ जाएगा। कश्मीर को अपनी जागीर समझने वाले मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार का वर्चस्व समाप्त होना तय है।
जम्मू कश्मीर में अंतिम बार परिसीमन 1995 में हुआ था। 2005 में पुनः परिसीमन होने से पहले 2002 में राज्य द्वारा संविधान संशोधन कर परिसीमन को 2026 तक टाल दिया गया।
1995 के परिसीमन से विधानसभा में 111 सीटें थीं। इनमें कश्मीर संभाग की 46 (क्षेत्रफल 15.73 प्रतिशत), जम्मू संभाग की 37 सीटें (क्षेत्र फल 25.93 प्रतिशत) और 58.33 प्रतिशत क्षेत्रफल वाले लद्दाख के लिए केवल 4 सीटें रखी गईं। पाक अधिकृत कश्मीर के लिए भी 24 सीटें रखी गईं। पाक अधिकृत कश्मीर के लिए 24 सीटें इसलिए रखी गईं कि कभी यह हिस्सा पुनः भारत में समाहित होगा। जिसकी अब प्रबल संभावना है।
परिसीमन आयोग यदि निर्धारित बिंदुओं को ध्यान में रखेगा तो जम्मू संभाग में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ेगी और जम्मू की सीटें 37 से बढ़कर 44 हो जाएंगी, जबकि कश्मीर की 46 सीटें ही रहेंगी।
जम्मू कश्मीर में मौजूदा 83 विधानसभा सीटों में से 07 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं और यह सभी सिर्फ जम्मू संभाग में हिंदू बहुल आबादी वाले इलाकों में ही हैं। इसके अलावा अनुसूचित जनजातियों के लिए भी 11 सीटें आरक्षित होंगी। मौजूदा परिस्थितियों में जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं है।
यदि परिसीमन 2021 की जनगणना के आधार पर कराया जाता है और आरक्षित सीटों का ठीक से वितरण किया जाता है। तब अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद जो थोड़ी बहुत कसर बची है, वह अपने आप पूरी हो जाएगी। जम्मू संभाग के साथ 1947 से हो रहा राजनीतिक पक्षपात पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। एक नया राजनीतिक समीकरण सामने आएगा जो पूरी तरह मुख्यधारा की सियासत में रचा बसा होगा। इसलिए परिसीमन के विरोधियों का विलाप स्वाभाविक है।