जातियों का अस्तित्व और राजनीति

जातियों का अस्तित्व और राजनीति

हृदयनारायण दीक्षित

जातियों का अस्तित्व और राजनीतिजातियों का अस्तित्व और राजनीति

जाति खासी चर्चा में है। डॉ० लोहिया और डॉ० आंबेडकर सहित अनेक चिंतकों ने भारत की जातीय संरचना को राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध बताया है। डॉ० लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा भी दिया था। डॉ० आंबेडकर ने भी जाति के समूल नाश का ध्येय लेकर लगातार काम किया था। जाति खात्मा सभी महान नेताओं का स्वप्न रहा है। लेकिन जाति की अस्मिता बढ़ाने का गलत काम जारी है। जाति की कोई संवैधानिक परिभाषा नहीं है। बेशक भारत में सैकड़ों जातियां हैं। जाति का अस्तित्व है। जाति की राजनीति है। जातियां राष्ट्रीय एकता में बाधक रही हैं। मूलभूत प्रश्न है कि आखिर जातियां हैं क्या? फ्रांसीसी विद्वान सेनार्ट के अनुसार ये एक निकाय जैसी हैं। अनुवांशिकता से प्रतिबद्ध हैं। कतिपय उत्सवों के अवसर पर इनके लोग इकट्ठे होते हैं। समान धंधों व्यवसायों के कारण आपस में जुड़े रहते हैं। कुछ जातियों में परंपरागत जाति मनवाने के लिए जातिवाह्य घोषित करने की परंपरा भी रही है। भारत की वर्तमान जाति व्यवस्था में यह विवेचन लागू नहीं होता। एक विद्वान एच० मस्ले के अनुसार, ‘‘जाति परिवारों का समूह होती है। प्रायः व्यवसाय विशेष की सूचक होती है। प्रत्येक जाति का एक पौराणिक पुरुष होता है। पौराणिक पुरुष अदृश्य देवता भी हो सकता है। जाति के सभी सदस्य स्वयं को उस पुरुष या देवता के प्रति निष्ठावान रखते हैं।” जाति की यह परिभाषा भी भारतीय जाति व्यवस्था का पूरा अर्थ नहीं प्रकट करती।

‘हिस्ट्री ऑफ कास्ट इन इंडिया’ में डॉ० केतकर ने लिखा है, ‘‘ये एक सामाजिक समूह होती हैं। इसकी सदस्यता संतति और इस प्रकार जन्मे लोगों तक ही सीमित रहती है। इसके सदस्यों पर कठोर सामाजिक नियमों के अधीन समाज के बाहर विवाह न करने पर पाबंदी रहती है।” यहाँ जाति का सबसे प्रमुख गुण है कि जाति समूह के बाहर विवाह करने पर पाबंदी रहती है। एक विद्वान नेस्फील्ड ने लिखा है, ‘‘जाति समाज का ऐसा समूह होती हैं जो अन्य वर्ग से किसी प्रकार का सम्बंध स्वीकार नहीं करती। इसके सदस्य अपने जाति समूह के बाहर अन्य जाति समूह से विवाह का रिश्ता नहीं जोड़ते। वे अन्य जातियों से खानपान का रिश्ता भी नहीं जोड़ते।” लेकिन भारत में खानपान के बंधन टूट गए हैं। स्वाधीनता संग्राम के पहले से ही भारत में जातियों की अस्मिता को राष्ट्रीय एकता में बाधक माना गया था। संविधान निर्माता भी जातियों की समाप्ति चाहते थे। इसीलिए संविधान की उद्देशिका में जातियों का उल्लेख भी नहीं है। उद्देशिका संविधान का सारतत्व है। उद्देशिका का प्रारम्भ, ‘हम भारत के लोग’ से होता है। पूरे देश के जन गण मन को ‘हम भारत के लोग’ के दायरे में रखना और अभिज्ञात करना संविधान निर्माताओं का स्वप्न रहा है। उद्देशिका संविधान का प्राण है। संविधान की उद्देशिका में राष्ट्र के स्वप्न अन्तर्निहित हैं। जाति समाप्ति और ‘हम भारत के लोग’ में विलय संविधान निर्माताओं का स्वप्न रहा है।

जातियां राष्ट्रीय एकता में बाधक हैं। लेकिन दुर्भाग्य से समाज में उनकी गहन उपस्थिति व अस्मिता है। विचारहीन राजनीति जाति अस्मिता को मजबूत करने पर आमादा है। दुनिया के प्रत्येक संविधान का एक दर्शन होता है। दर्शन विहीन संविधान राष्ट्र के अंतःकरण का भाग नहीं बनता। भारत के संविधान का एक दर्शन है। संविधान निर्माण के प्रारम्भ में पं० नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्य संकल्प का प्रस्ताव रखा था। यह प्रस्ताव 22 जनवरी 1947 को पारित हुआ। संकल्प में कहा गया था कि, ‘‘संविधान सभा भारत को स्वतंत्र, प्रभुत्व सम्पन्न गणराज्य के रूप में घोषित करने के अपने सत्यनिष्ठ संकल्प की और भावी शासन के लिए संविधान बनाने की घोषणा करती है।” आगे कहा है, ‘‘प्रभुत्व सम्पन्न स्वतंत्र भारत की सभी शक्तियां और अधिकार उसके संगठक भाग और शासन के सभी अंग लोक से उत्पन्न हैं। जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रतिष्ठा और अवसर की तथा विधि के समक्ष समता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, उपासना, व्यवसाय, संगमन और कार्य की स्वतंत्रता, विधि और सदाचार के अधीन होगी।”  महत्वपूर्ण बात यह कही गई थी, ‘‘यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना समुचित और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करेगी और विश्व शांति और मानव कल्याण के लिए स्वेच्छा से अपना पूरा सहयोग देगी।” यहाँ ‘प्राचीन भूमि‘ शब्द ध्यान देने योग्य है। भूमि का अर्थ धरती नहीं है। प्राचीन भूमि का अर्थ प्राचीन संस्कृति है। इसी संकल्प से उद्देशिका की रचना हुई थी। उद्देशिका में जाति इकाई नहीं है। लेकिन राजनीति मरणासन्न जाति अस्मिता को बार बार पुनर्जीवन देती है।

भारत जातियों का संगठन नहीं है। संविधान में जातियों की अस्मिता नहीं है। डॉ० आंबेडकर ने कहा था कि, ‘‘जाति अप्राकृतिक है और यह बहुत दिन तक जीवित नहीं रह सकती।” वैदिक काल में जातियां नहीं थीं। वर्ण व्यवस्था भी नहीं थी। उस समय सामाजिक समानता थी। राजनीति में मार्क्सवाद, पूंजीवाद, समाजवाद की तरह ब्राह्मणवाद शब्द प्रयोग भी चलता है। ब्राह्मणवाद का संकेत जाति व्यवस्था से है। जाति की समाप्ति के लिए अनेक महान नेताओं ने परिश्रम किए थे और अनेक संगठनों ने भी। कोलकाता के ब्रह्म समाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और कुछ समाजवादी विचारक भी जाति समाप्ति के पक्षधर थे। सबका उद्देश्य जाति समाप्ति था। शूद्र शब्द बहुत चलता है। सामूहिक रूप में शूद्र सैकड़ों व्यवसायों से जुड़े समूहों का साझा नाम हो सकता है। डॉ० आंबेडकर के अनुसार ‘‘अंतर्विवाह ही जाति उत्पत्ति का कारण है। कुछ वर्गों ने अपने लिए दूसरे वर्गों के सदस्यों के साथ विवाह पर रोक लगाई।” डॉ० आंबेडकर ने प्रश्न उठाया है, ‘‘जाति उद्भव के अध्ययन से हमें इस प्रश्न का उत्तर मिलना चाहिए कि वो कौन सा वर्ग था जिसने अपने लिए बाड़ा खड़ा किया।” डॉ० आंबेडकर ने कहा है कि, ‘‘मैं इसका प्रत्यक्ष उत्तर देने में असमर्थ हूँ। ब्राह्मण वर्ग ने स्वयं की घेराबंदी एक जाति के रूप में क्यों कर ली। डॉ० आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में जाति व्यवस्था पर शोधपूर्ण भाषण दिया था, ‘‘मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ कि जाति धर्म का नियम मनु प्रदत्त नहीं है।” वह ब्राह्मणों को जाति व्यवस्था का जन्मदाता नहीं मानते। कहते हैं, ‘‘ब्राह्मण अनेक गलतियां करने के दोषी रहे हों और मैं कह सकता हूँ वे ऐसे थे। लेकिन जाति व्यवस्था को गैर ब्राह्मणों पर लाद देने की उनकी क्षमता नहीं थी। अपनी तर्कपटुता से उन्होंने भले ही इस प्रक्रिया को सहायता प्रदान की हो। लेकिन अपनी ऐसी योजना को निश्चित रूप से अपने सीमित दायरे से आगे नहीं बढ़ा सकते थे। समाज को अपने स्वरूप के अनुरूप ढालना कितना गौरवशाली लेकिन कठिन कार्य होता है। ऐसा कार्य करने में किसी को भी आनंद प्राप्त हो सकता है। और वह इस प्रशस्ति कार्य को कर सकता है। लेकिन वह इसे बहुत आगे तक नहीं ले जा सकता।” जाति समाप्ति के लिए कठिन परिश्रम की आवश्यकता है। राज बदलना आसान होता है। समाज बदलना कठिन। संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों को चिन्हित कर विशेष रक्षोपाय देने की व्यवस्था की थी। पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए आयोग बनाने की भी व्यवस्था की गई थी। जातियां स्वाभाविक रूप में विदा हो रही हैं। यह शुभ है।

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