ज्ञानवापी मामला: अनुत्तरित प्रश्न

ज्ञानवापी मामला: अनुत्तरित प्रश्न

बलबीर पुंज

ज्ञानवापी मामला: अनुत्तरित प्रश्नज्ञानवापी मामला: अनुत्तरित प्रश्न

पवित्र काशी स्थित ज्ञानवापी मंदिर/मस्जिद का न्यायिक वीडियो सर्वेक्षण सार्वजनिक विमर्श में है। 16 मई को इसके परिसर में अधिवक्ता आयुक्त की कार्यवाही के दौरान प्राचीन शिवलिंग मिलने के दावे के पश्चात संबंधित क्षेत्र पर अदालती प्रतिबंध है। मामला अभी न्यायालय में विचाराधीन है। जब से इसे लेकर न्यायिक सुनवाई प्रारंभ हुई है, तब से वर्ष 1991 का पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम भी चर्चा में है। 31 वर्ष पहले इसे तत्कालीन नरसिम्हाराव सरकार द्वारा संसद से पारित कराया गया था, जिसका उल्लेख वामपंथी-सेकुलर-जिहादी वर्ग यह कहकर जोरदार ढंग से कर रहा है कि यह संसद से पारित कानून है, इसे चुनौती देना लोकतंत्र-संविधान का अपमान है। अब यदि ऐसा है, तो वर्ष 2019 में संसद के दोनों सदनों से पारित नागरिक संशोधन अधिनियम के विरुद्ध इसी जमात ने देश के कई क्षेत्रों को हिंसा की आग में क्यों झोंका?

ज्ञानवापी मामले में हिंदू पक्ष पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम पर अपनी आपत्ति प्रकट कर, उसकी वैधानिकता पर प्रश्न या उसे निरस्त करने की मांग कर रहा है। इसे उपरोक्त कुनबा ‘सांप्रदायिक’ और ‘मुस्लिम विरोधी’ घोषित कर रहा है। अब यदि ऐसा ही है, तो वे वर्ष 2020 में संसद से पारित तीन कृषि-सुधार कानूनों के मामले में क्या कहेंगे? क्या यह सत्य नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से राजनीतिक-वैचारिक-व्यक्तिगत विरोध के कारण हजारों की भीड़ ने इन प्रगतिशील कानूनों को ‘अपवित्र’ और ‘काला’ बताकर दिल्ली-हरियाणा-पंजाब सीमा को एक वर्ष तक अवरुद्ध कर दिया था? यह स्थिति तब थी, जब 73 किसान संगठनों में से 85.7 प्रतिशत अर्थात् 61 संगठनों ने इन कानूनों का समर्थन किया था। बात केवल यहीं तक सीमित नहीं। देश ने 25 नवंबर 2020 से लेकर 21 दिसंबर 2021 के बीच गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक लाल किले की प्राचीर पर मजहबी झंडा लहराते, नंगी तलवारों और धारदार हथियारों के साथ सड़कों पर उन्माद, सैकड़ों ट्रैक्टरों पर सवार होकर सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों को रौंदने का प्रयास, प्रदर्शनकारियों की तख्तियों, परिधानों और वाहनों पर खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले की तस्वीरें, दलित लखबीर को सिख पंथ की बेअदबी के कारण निहंगों द्वारा निर्ममता के साथ और असीम यातना देकर मौत के घाट उतारना, आंदोलन-स्थल पर महिला से बलात्कार की खबर और दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तरह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मौत के घाट उतारने के खुले आह्वान तक को देखा था। ऐसे में देशविरोधी शक्तियों की लामबंदी, विदेशी आकाओं से वित्तपोषण मिलने और इससे राष्ट्रीय संप्रभुता-एकता-अखंडता पर खतरा बढ़ने के पश्चात प्रधानमंत्री मोदी 19 नवंबर 2021 को गुरुनानक गुरपुरब के दिन उन कृषि-सुधार कानूनों को वापस लेने हेतु बाध्य हो गए।

अब जब समाज के एक वर्ग की आपत्ति (अनैतिक होकर भी) जताने पर सरकार ने राष्ट्रहित में कृषि-सुधार कानूनों को निरस्त कर दिया, तो ज्ञानवापी सर्वेक्षण को लेकर हिंदू पक्ष द्वारा 1991 के पूजा-स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम की ‘पवित्रता’, ‘नीयत’ और ‘आशय’ को कटघरे में खड़ा करना या उसे निरस्त करने की मांग करना- अपराध कैसे हुआ? यह अकाट्य सत्य है कि 1991 का पूजा-स्थल अधिनियम, हिंदुओं को उनके ध्वस्त पूजा-स्थलों और तीर्थ-स्थलों को वापस पाने के अधिकार और वहां पूजा-अर्चना से वंचित करने का दूषित प्रयास था, जो वामपंथियों और स्वघोषित सेकुलरिस्टों द्वारा मुस्लिम तुष्टिकरण और सनातन संस्कृति विरोधी मानसिकता से प्रेरित है।

सच तो यह है कि महादेव की नगरी स्थित पुरातन ज्ञानवापी परिसर, ‘सत्य को साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती’ वाक्यांश के सबसे जीवंत उदाहरणों में से एक है। संस्कृत शब्द ‘ज्ञानवापी’ के साथ वर्तमान मंदिर संरचना में नंदी महाराज का मुख बीते साढ़े तीन शताब्दियों से विपरीत दिशा में विवादित क्षेत्र की ओर होना- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, क्योंकि हिंदू मान्यता/आस्था के अनुसार, किसी भी शिवालय में शिवलिंग/शिवमूर्ति की ओर देखते हुए ही नंदी की प्रतिमा होती है। काशी का प्राचीन मंदिर वर्ष 1194 से 1669 के बीच कई बार इस्लामी आक्रमण का शिकार हुआ, तो हर बार वह हिंदू प्रतिकार का साक्षी भी बना। क्रूर इस्लामी आक्रांता औरंगजेब ने जिहादी फरमान जारी करके प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करके उसके अवशेषों से मस्जिद बनाने का आदेश दिया था, जिसका उद्देश्य मुस्लिमों द्वारा इबादत के लिए न होकर केवल पराजितों को अपमानित करना था। इसी दर्शन के साथ औरंगजेब ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि मथुरा स्थित मंदिर को भी ध्वस्त करके मस्जिद बनवाई थी। यह चिंतन आज भी अपरिवर्तित प्रतीत होता है, क्योंकि जब ज्ञानवापी परिसर में अदालत निर्देशित सर्वेक्षण पर विवादित वजूखाने में प्राचीन शिवलिंग के प्रमाण मिले, तो समाज के एक वर्ग (मुस्लिम सहित) की ओर से हिंदू संस्कृति पर कुठाराघात करते हुए कई घृणित टिप्पणियां की गईं। संभवत: इनमें से कोई भी उस प्रकार की नृशंस हिंसा का शिकार नहीं हुआ, जैसे ईशनिंदा के नाम पर हाल ही में फ्रांसीसी शिक्षक सैमुअल पैटी और कमलेश तिवारी हुए थे।

इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मंदिरों/मूर्तियों को तोड़ने की मजहबी मानसिकता का सटीक उल्लेख ‘तारिख-ए-सुल्तान महमूद-ए-गजनवी’ पुस्तक में मिलता है, जिसे वर्ष 1908 में जी.रुस-केपेल, काजी अब्दुल गनी खान द्वारा अनुवादित किया था। इसके अनुसार, जब गजनवी (971-1030) को एक पराजित हिंदू राजा ने मंदिर ध्वस्त नहीं करने के बदले अकूत धन देने की पेशकश की, तब उसने कहा था, “मुसलमानों के मजहब में यह एक सराहनीय कार्य है कि जो कोई भी मूर्तिपूजकों के पूजा-स्थल को नष्ट करेगा, वह न्याय के दिन बहुत बड़ा इनाम पाएगा, और मेरा इरादा हिंदुस्तान के हर नगर से मूर्तियों को पूरी तरह से हटाना है…।” इस प्रकार के रोमहर्षक वृतांतों का उल्लेख इस्लामी आक्रांताओं के समकालीन इतिहासकारों या उनके दरबारियों द्वारा लिखे विवरण में सहज मिल जाता है। औरंगजेब के खूनी इतिहास पर लिखी ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ इसका एक प्रमाण है।

क्या किसी समाज को लंबित न्याय से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाए, क्योंकि उससे संबंधित समुदायों में विवाद उत्पन्न होगा? हम जानते हैं कि भारतीय समाज शताब्दियों तक अस्पृश्यता सहित कई कुरीतियों से अभिशप्त रहा है, जो समाज के भीतर उत्पन्न हुई कई जनजागृतियों के कारण आज बौद्धिक तौर पर शत-प्रतिशत समाप्त, तो व्यवहारिक रूप से कम अवश्य हुआ है। शेष भारतीय समाज ने ऐतिहासिक अन्यायों-गलतियों को सुधारने और उस पर पश्चाताप करने हेतु दलित-वंचितों के लिए आरक्षण व्यवस्था को आज भी बरकरार रखा है, तो दहेज, कन्या भ्रूण-हत्या आदि के संदर्भ में कई प्रभावी कानून बनाए हैं।

इस पृष्ठभूमि में वृहद हिंदू समाज ने विदेशी इस्लामी राज में जिन असंख्य अन्यायपूर्ण कृत्यों को झेला है, उनके परिमार्जन में आखिर कहां समस्या आ रही है है? सच तो यह है कि अतीत में इस्लाम के नाम पर विदेशी आततायियों द्वारा किए गए अत्याचारों के लिए वर्तमान भारतीय मुसलमानों को कोई भी दोष नहीं दे सकता है। किंतु जब इसी समाज का एक वर्ग स्वयं को कासिम, गजनवी, गोरी, बाबर, जहांगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान, सर सैयद, जिन्नाह, इकबाल आदि से जोड़ता है और उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानता है, तब वह वर्ग भी  स्वाभाविक रूप से जिम्मेदार हो जाता है। इस स्थिति के लिए मार्क्स-मैकॉले मानसबंधु भी बराबर जिम्मेदार हैं, जो दशकों से मुस्लिम समाज को उनकी मूल सांस्कृतिक जड़ों के स्थान पर इस्लामी आक्रांताओं से चिपकाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। काशी ज्ञानवापी सर्वेक्षण पर समाज के एक हिस्से की विकृत प्रतिक्रिया- इसका प्रमाण है।

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