ज्ञानवापी-शृंगार गौरी पूजन मामला : एक साधारण से निर्णय का महत्व
अंजन ठाकुर
ज्ञानवापी-शृंगार गौरी पूजन मामला : एक साधारण से निर्णय का महत्व
ज्ञानवापी-शृंगार गौरी पूजन मामले में दायर याचिका न्यायालय द्वारा सुनवाई योग्य मानने की बात वैसे तो एक साधारण अदालती कार्यवाही लगती है, परंतु इसके दूरगामी प्रभाव बड़े गूढ़ हैं। इससे पहले सनातन के प्रतीकों को विवादास्पद बनाने या ना बनाने के मामले में दायर याचिकाओं में सामान्यतया एक अनिच्छुक दिखाई देती अधिवक्ताओं की फौज हिन्दुओं का केस लड़ा करती थी, जो हिन्दुओं को दिल बड़ा रखने का उपदेश देते हुए अपनी विरासत को भूलने का ही परामर्श दिया करती थी या सह अस्तित्व का मुद्दा उठा कर मुसलमानों की भावना का सम्मान करने को कहती थी या अन्ततः लचर दलीलों के साथ केस हार जाया करती थी। यह तो सर्वविदित है कि रामनवमी के अवकाश के बाद न्यायालय में इस याचिका पर विचार होता था कि राम काल्पनिक हैं या यथार्थ। कारण यह है कि सनातन संस्कृति में यही सिखाया जाता है कि दूसरों के दर्द को अपना समझिये और अपने दर्द को भूल जाइए। आमतौर पर हिन्दू मुस्लिम मुद्दों पर दायर याचिकाओं में आपको अधिकांशत: हिन्दू अधिवक्ता ही हिन्दुत्व के प्रतिमानों के विरोध में तर्क रखते मिल जाएंगे। भारत का हर एक गैर मुस्लिम राजनेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी मुसलमानों के पक्ष में बोलता हुआ दिखाई देगा।
आपको याद होगा कि हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। परंतु उसी सदाशयता से आप किसी मुस्लिम राजनेता से यह आशा नहीं कर सकते कि वह सनातन के समर्थन में मुसलमानों द्वारा अधिग्रहीत किए गए स्थानों को छोड़ने की या उस पर अपनी पकड़ कम करने का प्रयास करने की अपील अपने बिरादरी या समानधर्मी समाज से करे।
परंतु इस निर्णय ने अपार संभावना को जन्म दे दिया है और यह बता दिया है कि सनातन के वंशज अब अपने प्रतिमानों की रक्षा करने के लिए कोई भी कसर नहीं छोड़ेंगे। सड़क से लेकर न्यायालय तक और संसद से लेकर चौराहे तक अपने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा की रक्षा के लिए अपना तन मन धन अर्पित करने को तत्पर रहेंगे।
हम जानते हैं कि न्यायालय अधिवक्ताओं की सुनता है और योग्य अधिवक्ता काफ़ी महंगे हो गए हैं, जिन्हें अफ़ोर्ड करना असंगठित सनातन समाज के लिये पहले संभव नहीं था। परन्तु अब शायद सनातनियों का आत्मबोध जाग्रत हुआ है और वे हर प्रकार से उत्तर देना सीख गये हैं।
इस याचिका को न्यायालय द्वारा सुनवाई के लिये स्वीकार करना तो शिव के उस डमरू का निनाद है जो आगे चल कर पाञ्चजन्य के उद्घोष में शीघ्र ही बदलने को तत्पर है।
एको देवः केशवोऽ वा शिवोऽवा॥