ज्योति पर्व दीपावली का माहात्म्य

ज्योति पर्व दीपावली का माहात्म्य

कमलेश कमल

ज्योति पर्व दीपावली का माहात्म्यज्योति पर्व दीपावली का माहात्म्य

ज्योति पर्व दीपावली का माहात्म्य अपार है। यह ज्ञान-ज्योति द्वारा आत्म-ज्योति को जगाने का त्योहार है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें, तो दीप का जलना “तमसो मा अमृतगमय” की प्रार्थना को चरितार्थ करता है। ‘दीप’ देह है, तेल आत्मा है, चेतना बाती है और आत्मज्ञान ज्योति है, जो अज्ञान और मिथ्या ज्ञान के ‘तम’ को दूर करता है। चूँकि, यह मानव तन (पश्चभूतजनित देह) रूपी दीप को ‘माटी का तन’ कहा गया है; इसलिए यह अकारण नहीं है कि दीपावली के दीप भी मिट्टी के ही बनाए गए।

सनातन परंपरा मानती है कि सबसे महत्वपूर्ण दीप हम स्वयं ही हैं और निःश्रेयस की प्राप्ति हेतु ज्योति तो कदाचित् हमारे अंदर ही प्रदीप्त होनी है। कहा भी गया है–

“दीप ज्योति परं ज्योति, दीप ज्योति जनार्दन: दीपोहरतु मे पापं, दीपज्योति नमोस्तुते।।
शुभम करोति कल्याणं आरोग्यम् सुख संपद:।
द्वेषबुद्धि विनाशाय, आत्म ज्योति नमोस्तुते।।
आत्मज्योति प्रदीप्ताय, ब्रह्मज्योति नमोस्तुते।
ब्रह्मज्योति प्रदीप्ताय, गुरुज्योति नमोस्तुते।।”

अर्थात् दीपज्योति ही परम ज्योति है, दीपज्योति ही जनार्दन या विष्णु है, इससे ही पाप का हरण होता है, इसी से शुभ, आरोग्य, सुख-संपदा आदि की प्राप्ति है। द्वेष बुद्धि का विनाश भी आत्मज्योति से ही संभव होता है। आत्मज्योति के प्रदीप्त होने के लिए ब्रह्म-ज्योति को नमन और ब्रह्म-ज्योति से साक्षात्कर के लिए गुरुज्योति को नमन। अस्तु, गुरु का तो अर्थ ही ज्योति है, क्योंकि गु’ का अर्थ है– अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है–प्रकाश। इस प्रकार गुरु वह जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए।

दीपावली का त्योहार हो अथवा “ज्योति से ज्योति जगाते चलो” का गान – सबमें ज्योति का मंगल-मंजुल रूप निरूपित होता है। वस्तुतः, ‘ज्योति’ भारतीय संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण संकल्पनाओं में से एक है। आत्म-ज्योति, जीवन-ज्योति, परम-ज्योति, ज्योतिष, अखंड-ज्योति, ज्योतिर्लिंग, ज्योतिर्विज्ञान, सब कुछ तो ‘ज्योति’ पर ही संकेंद्रित है। वस्तुतः, ‘ज्योति’ शब्द सुनते ही हमारे मन में ज्ञान और चेतना के स्तर के समानुपातिक रूप में अलग-अलग अवधारणाएँ अवतरित होती हैं। एक सामान्य व्यक्ति ‘ज्योति’ का अर्थ रोशनी, प्रकाश या लाइट मान सोचना बंद कर देता है; जबकि यह एक बहुलार्थी, बहुआयामी और कहीं बृहत्तर संकल्पना है।

आदि ग्रन्थों में हमारे दीर्घतपा, अनुसंधित्सु ऋषि-मुनियों द्वारा आभ्यन्तरिक यथार्थ, आत्म-तत्त्व, ज्योतिर्मय परमतत्त्व आदि को समुद्घाटित करने के लिए ज्योति की महत्ता को प्रमुखता से रेखांकित किया है।

भारतीय दर्शन में अग्नि से ही जगत् की उत्पत्ति मानी गई है और अग्नि ‘ज्योति’ का केंद्र है। इतना ही नहीं, ऋग्वेद में साधना का उद्देश्य ही ‘अभय-ज्योति’ की प्राप्ति को माना गया है। इस निमित्त एक स्तुति है– “हे आदित्य! मुझे दाहिने और बायें का ज्ञान नहीं है, मैं पूर्व और पश्चिम दिशाओं को नहीं जानता। मेरा ज्ञान परिपक्व नहीं है और ज्ञान के बिना मैं मूढ़ और हतोत्साहित हो गया हूँ। यदि आपकी कृपा है, तो मैं अवश्य ही ‘अभय-ज्योति’ को प्राप्त कर सकता हूँ।– ऋग्वेद-2.27.11

उपनिषदों में भी ब्रह्म को परमतत्त्व, मूल-तत्त्व और परमशब्द के साथ-साथ ‘परम-ज्योति’ भी कहा गया है।अन्य शास्त्रों की अवगाहना से भी यही परिलक्षित होता है कि सत्य की कोई भी खोज अंततः कहीं न कहीं ज्योति से संबद्ध हो जाती है। महर्षि याज्ञवल्क्य की कथा आती है कि जब राजा जनक ने उनसे पूछा कि आत्मा क्या है, तो उन्होंने कहा– “ज्योति ही आत्मा है।” इसे प्रमाणित करने के लिए उन्होंने कहा था कि दिन में हम सूर्य की ज्योति से देखते हैं, तो रात में चंद्रमा की ज्योति से, लेकिन दिन हो अथवा रात, जब आँखें बंद हों, तब हम शब्दों के द्वारा कल्पना कर देखते हैं अर्थात् शब्दों की ज्योति से देखते हैं। अस्तु, जब शब्द भी न हों, तब जो हम देखते या अनुभव करते हैं, वह आत्मा की सत्ता है और वही आत्मा की ज्योति है। उन्होंने कहा था– “ योयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यंतज्योर्ति: पुरुष:!”

लगभग सभी धर्म ग्रंथों में ज्योति की महत्ता व्याख्यायित हुई है। ऋषि-महर्षि, योगी-यति, संत-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैग़म्बर, पादरी सभी ने अलग-अलग नामों से इस एक की ही महिमा गाई है– ज्योति, प्रभा, दीप्ति, मरीचि, लाइट, रोशनी, नूर एक हैं, तो दिव्य-ज्योति, डिवाइन-लाइट या नूर-इलाही भी एक ही हैं। इनमें भेद उनके लिए है, जो शास्त्रों का अध्ययन नहीं करते या फ़िर निहित स्वार्थवश इनके ऐक्य को नहीं मानते। ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है–

“यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति ।।”

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी ‘ज्योति’ ऊर्जा, विद्युत-चुंबकीय विकिरण के मूलभूत कण प्रकाशाणु (प्रकाश-अणु) अथवा फोटोन (photon) आदि है। पादप से लेकर जीव-जंतु तक के भोजन और जीवन के लिए ‘ज्योति’ की आवश्यकता है। बिना इसके पादप अपना भोजन बना ही नहीं सकते; क्योंकि प्रकाश-संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) का अर्थ ही है कि ‘फोटो, प्रकाश या ‘ज्योति’ है, तभी सिंथेसिस होगा, संश्लेषण, सर्जन या निर्माण होगा। अस्तु, ज्योति के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

इतना ही नहीं, आधुनिक विज्ञान की एक बड़ी उपलब्धि ‘विद्युत’ भी इसी ‘द्युत्’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग जोड़कर बना है, जिससे ज्योति शब्द बना है और जिसका अर्थ है–‘विशेष चमक’। अतः, ‘विद्युत’ भी ‘ज्योति’ शब्द की महिमा का ही विस्तार है।

विज्ञान मानता है कि ज्योति की यांत्रिक तरंगें निर्वात में अनुप्रस्थ रूप में (ट्रांसवर्स) गमन कर सकती हैं और इनका द्रव्यमान और भार शून्य होता है। हमें विचार करना चाहिए कि आत्मा एवं ब्रह्म को ज्योतिर्मय बता कर इसकी इन्हीं विशेषताओं की ग्रंथों में चर्चा हुई है। यदि विज्ञान यह मानता है कि विद्युत ऊर्जा है, इसका क्षय नहीं होता अपितु रूपांतरण होता है; तो सनातन धर्म भी यही मानता है कि आत्मज्योति का नाश नहीं होता, बस स्वरूप परिवर्तन होता है। भगवद्गीता में इसे ऊष्मा गतिकी के प्रथम नियम (ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत) के प्रतिपादन से पूर्व ही इस तरह कहा गया–

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)

योग-साधना में मानव चेतना के मूल के रूप में आज्ञा चक्र में स्थित दिव्यनेत्र अर्थात् अंतःत्राटक के केंद्र के रूप में प्रकाशज्योति की ही स्वस्तिप्रद संकल्पना है। सत्य को मुक्ति का हेतु बताते हुए बुद्ध का “अप्पदीपो भव” हो अथवा आर्ष-मनीषियों का “ज्योतिष्मान भव”; इस प्रकाशमान, ज्योतिर्मय सत्ता को ही अलग-अलग विधियों से इंगित करता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो ईश्वर भी ज्योतिर्मय ही हैं– प्रचंड-प्रवाह-युक्त अक्षय-पुंज। साकार उपासक अपने आराध्य अथवा उपास्य की तस्वीर के चहुँओर प्रभामंडल दिखा कर इसे ही तो इंगित करते हैं।

निराकार ब्रह्म को मानने वाले भले ही कोई मूर्ति नहीं लगाते, पर अपनी आराधना का केंद्र ‘ज्योति’ को ही मानते हैं। इस साधना पद्धति में ऐसी अश्वस्ति है कि जैसे सोना आग में तप कर कुंदन बन जाता है, वैसे ही तप की अग्नि से अंतर्ज्ञान की ‘ज्योति’ प्रज्वलित होती है। इसी अर्थ में कहा गया है– “मेरे मन के अंधकमल में ज्योतिर्मय उतरो।”

गहराई में उतर कर देखा जाए तो, पूरा का पूरा अध्यात्म मात्र तीन मूलभूत तत्त्वों के अंतर्संबंध को आख्यायित करता है– ज्योति, शब्द और आत्मा। शास्त्रों में शब्दों से जिसकी अभिव्यक्ति हुई है, वह शब्द-ब्रह्म , साधना की पद्धति में ‘ज्योति-स्वरूप परंब्रह्म’ में परिणत हो जाता है। आत्मा का परमात्मा से और आत्म-ज्योति का दिव्य-ज्योति से सम्मिलन एक ही परिघटना के अलग-अलग नाम हैं।

ज्योतिषीय दृष्टि से तो “ज्योति ही ज्योतिष है”– “ज्योतिरेव ज्योतिषिम”। सृष्टि के मूल में तो ‘ज्योति’ ही है; उपनिषदों में भी ब्रह्म को ‘सत्यस्य सत्यम’ के साथ-साथ ‘ज्योतिषाम् ज्योति’ भी कहा गया है। भूत, भविष्य और वर्तमान सब ‘ज्योति’ पर ही निर्भर हैं। वेद की आँखों के रूप में ज्योतिष को अभिहित करने का कारण भी कदाचित् यही है।

ध्यातव्य है कि ‘ज्योति’ से बना ‘ज्योतिष’ ही वह तत्त्व है, जो भवितव्यता को देखने एवं इसकी दिशा और दशा को कुछ हद तक प्रभावित करने में मदद करता है। ज्योतिष संबंधी सिद्धांत अथवा ग्रंथ को भी ‘ज्यौतिष’ कहा जाता है, जो कि ‘ज्योति’ शब्द की सत्ता के विस्तार का ही द्योतक है। चराचर विश्व को आलोकित करने का काम दिन में सूर्य की ज्योति करती है, जिसे आदित्य ज्योति, अरुण-ज्योति, दिन ज्योति, दिनकर ज्योति आदि कहते हैं। इसी तेजोमय रूपविधान के कारण सूर्य को भास्कर भी कहा गया है। ‘भा’ का अर्थ प्रकाश या ज्योति, ‘कर’ का अर्थ करने वाला। इतना ही नहीं, ‘ज्योति’ से बनने वाले अनेक शब्द, यथा – खज्योति, तमो-ज्योति, महा-ज्योति, मूर्द्ध-ज्योति, मेघज्योति, बहिर्ज्योति, विश्वज्योति, सुवर्णज्योति, स्वयंज्योति, अखण्डज्योति आदि भी ज्योति की विस्तीर्ण सत्ता को ही व्याख्यायित करते हैं।

भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो ज्योति शब्द ‘द्युत्’ धातु से बना है। ‘द्युत्’ धातु से ही ‘द्युत’ विशेषण बनता है, जिसका अर्थ है ‘चमकीला’ अथवा ‘प्रकाशमान्’। ‘द्युत्’ धातु में ‘इन’ प्रत्यय लगाकर ‘द्युति’ बनता है, जिसका अर्थ है– लावण्य अथवा चमक।

यहाँ थोड़ी शाब्दिक यात्रा करें, तो जिसमें चमक हो उसे द्युतिमान कहते हैं तथा सूर्य, चंद्र आदि ज्योतिर्पिण्ड जो चमक या प्रकाश करते हैं, उन्हें द्युतिकर कहते हैं। तारे, सूर्य आदि प्रकाशमान पदार्थों के लोक का एक नाम ‘द्युलोक’ भी है। सभी ‘द्युति’ या ज्योति को धारण करने के कारण विष्णु को ‘द्युतिधर’ भी कहते हैं।

व्याकरणिक आधार पर देखें, तो मौलिक धातु ‘द्युत्’ से ज्योति की व्युत्पत्ति इस तरह हुई : द्युत्– ज्युत्– ज्योत– ज्योति। {नियम :- द्युत् में इसिन् प्रत्यय तथा ‘दकार’ को ‘जकारादेश’ करके ज्योतिः अथवा ‘ज्योतिष्’ बना। इसी में ‘अच्’ प्रत्यय करके ‘ज्योतिष’ शब्द बना।}

व्याकरण के उत्तुंग शिखर से उतर लोक-जीवन में झाँके, तो ज्योति-कलश का स्थापन, संध्या-आरती, अखण्ड-ज्योति आदि की मान्यता से जनजीवन में ‘ज्योति’ की महत्ता रेखांकित होती है। सर्वशक्तिमान, जगदीश्वर शिव की स्वयंभू ज्योति की पहचान के रूप में भारतवर्ष की पुनीत धरा पर 12 जगहों पर स्थापित ज्योतिर्लिंग तो ‘ज्योति’ की महिमा के सबसे बड़े संकेत हैं ही।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ज्योति की सत्ता अपरिमित और अति विस्तीर्ण है। जीवन का कोई भी आयाम ज्योति से अनछुआ नहीं है। यह हम पर है कि भारतीय संस्कृति के सरोकारों से संपृक्त रह, विचारों के औदात्य और स्वाध्याय से युक्त होकर आत्मज्योति से परम-ज्योति की ओर की यात्रा आरंभ करते हैं अथवा नहीं। ऐसे में, दीपावली इस महती उद्देश्य की संप्राप्ति हेतु हमें एक शुभ अवसर देती है। शुभ-दीपावली

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