राष्ट्र प्रेम की गंगा के भागीरथ डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

राष्ट्र प्रेम की गंगा के भागीरथ डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

वर्ष प्रतिपदा, हेडगेवार जयंती पर विशेष

 सुरेन्द्र शर्मा

राष्ट्र प्रेम की गंगा के भागीरथ डॉ. केशव बलिराम हेडगेवारराष्ट्र प्रेम की गंगा के भागीरथ डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2025 में अपने 100 वर्ष पूरे कर रहा है। संघ भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा गैर राजनैतिक संगठन है। आज भारत के 901 जिलों में 6663 खंडों में 26498 मंडल में 42613 स्थानों पर संघ की 68651 शाखाएं लग रही हैं। वर्ष 2017 से 2022 तक संघ से ऑनलाइन जुड़ने वाले लोगों की संख्या भी 725000 है, जो संघ के प्रति लोगों के आकर्षण को दर्शाती है।

संघ का नाम आते ही लोगों के मस्तिष्क में देश के लिये समर्पित, राष्ट्रभक्त, उद्दात्त चरित्र वाले असंख्य लोगों के चेहरे ध्यान में आते हैं, जिनके जीवन का एक ही ध्येय है, भारत माता की जय और जो केवल एक ही धुन में मगन रहते हैं, ‘मन मस्त फकीरी धारी है, अब एक ही धुन जय जय भारत’ इस जय जय भारत की धुन को लेकर काम करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन जयंती आती है।

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना उस समय की, जब सदियों की दासता के कारण देश के अंदर स्वाभिमान शून्यता की स्थिति थी। लोग कहते थे, गधा कह लो पर हिन्दू मत कहो। हिन्दुओं का संगठन यह कदापि नहीं हो सकता। लोगों के मन में यह भी भ्रांति थी कि मेढकों को तो तौला जा सकता है, पर हिन्दुओं को संगठित नहीं किया जा सकता। चार हिन्दू एक साथ तब चलते हैं, जब पांचवां उनके कंधे पर हो। ऐसे नैराश्य के वातावरण में जब लोग यह कहते थे भारत हिन्दू राष्ट्र हो ही नहीं सकता, हिन्दू राष्ट्र की कल्पना बेमानी है, तब डॉक्टर हेडगेवार ने दृढ़तापूर्वक कहा ‘मैं केशव राव बलिराम पंत हेडगेवार यह घोषणा करता हूं कि भारत हिन्दू राष्ट्र है’।

वर्ष 1897 में स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों को तीन बातें कही थीं- पहली, पश्चिमी देशों से संगठन करना सीखना चाहिए, दूसरी, हमें मनुष्य निर्माण करने का कोई पद्धति तंत्र विकसित करना चाहिए, तीसरी, सभी भारतवासियों को आने वाले कुछ वर्षों के लिए अपने-अपने देवी-देवताओं को एक ओर रखकर केवल एक ही देवता की आराधना करनी चाहिए और वह है अपनी भारत माता। संघ कार्य और संघ शाखा इन तीनों बातों का ही मूर्त रूप है। इस श्रेष्ठ कार्य का बीजारोपण करने वाले थे डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार। डॉक्टर हेडगेवार को जाने बिना संघ को समझना लगभग असंभव है।

राष्ट्र प्रेम की गंगा के भागीरथ डॉ. हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889, वर्ष प्रतिपदा के दिन महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पंडित बलिराम हेडगेवार के घर हुआ था। इनकी माता का नाम रेवती बाई था। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा। केशव का बड़े प्यार से लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था। पिता बलिराम हेडगेवार वेद शास्त्र के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकांड से परिवार का भरण पोषण चलाते थे।

परिवार के वातावरण तथा देश की परिस्थितियों का प्रभाव बालक केशव के मन पर अत्यधिक पड़ा। वह जन्मजात देश भक्त थे। जब वह केवल 8 साल की आयु के थे, तब उन्होंने विक्टोरिया रानी के ध्वजारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त विद्यालय में बांटी गई मिठाई को कूड़े में फेंक दिया। उसके पश्चात जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर सरकारी भवनों पर की गई। रोशनी और आतिशबाजी देखने के लिए बालक केशव ने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया। उस समय उनकी आयु मात्र 8 और 9 वर्ष थी। ये दोनों घटनाएं डॉ. हेडगेवार के जन्मजात देश भक्त होने का परिचय देती हैं।

किशोर युवकों से संघ कार्य का प्रारंभ

वर्ष 1925 में जब संघ का कार्य प्रारंभ हुआ, तब डॉक्टर हेडगेवार की आयु 35 वर्ष की थी। तब तक उन्होंने तत्कालीन स्वातंत्र्य प्राप्ति हेतु चल रहे सभी आंदोलनों और कार्यों में जिम्मेदारी की भावना से कार्य किया। संघ का कार्य प्रारंभ करने के लिये उन्होंने 12-14 वर्षों की आयु वाले कुछ किशोर स्वयंसेवकों को साथ में लेकर नागपुर के साळूबाई मोहिते के जर्जर बाड़े का मैदान साफ करके, कबड्डी जैसे भारतीय खेल खेलना आरंभ किया। ऊपरी तौर पर देखा जाये तो यह एक प्रकार का विरोधाभास ही प्रतीत होता है। उनके अनेक मित्रों ने इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा भी था ‘डॉक्टर हेडगेवार ने आसेतु हिमाचल फैले इस विशाल हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के रंग में रंगकर सुसंगठित करने का प्रयास सफल सिद्ध करके दिखाने के उदात्त और भव्य कार्य का आरंभ माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शालेय छात्रों के साथ कबड्डी खेल कर किया।’

डॉक्टरजी का मित्र परिवार काफी बड़ा था। फिर भी उन्होंने इन मित्रों को एकत्र कर कोई सभा-सम्मेलनों का आयोजन नहीं किया। सार्वजनिक अथवा किसी निजी स्थान पर अपने चहेतों की सभा लेकर, भाषण आदि देकर कोई प्रस्ताव आदि पारित करने के चक्कर में भी वे नहीं पड़े। अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष भड़काने वाला भाषण देकर लोगों का उद्बोधन नहीं किया। ‘भारत के उत्थान हेतु मैं एक नये कार्य का श्रीगणेश कर रहा हूं’ – ऐसी कोई घोषणा भी नहीं की। समाचार पत्रों में लेख आदि लिखकर अथवा जाहिर भाषण में संघ कार्य के विचार और कार्य-शैली की कोई संकल्पना भी प्रकट नहीं की। ये सारी बातें तत्कालीन प्रचलित पद्धति के अनुसार न करते हुए केवल 20-25 किशोर स्वयंसेवकों को साथ लेकर कबड्डी जैसे देशी खेल खेलने का कार्यक्रम शुरू किया। प्रारंभिक दिनों में इन स्वयंसेवकों के समक्ष भी भाषण आदि देकर संघ – विचारों का प्रतिपादन नहीं किया। खेल समाप्त होने के बाद संघ स्थान पर अथवा अन्य समय में अनौपचारिक रूप से इन किशोर स्वयंसेवकों के साथ वार्तालाप हुआ करता था। कबड्डी जैसे खेलों से शाखा का कार्य प्रारंभ होने पर डॉक्टर हेडगेवार के अनेक मित्रों ने उनसे पूछा कि आप सारे कामों से मुक्त होकर इन छोटे बच्चों के साथ कबड्डी खेलने में क्यों लगे हैं? डॉक्टरजी ने उनके साथ कभी वाद-विवाद या बहस नहीं की। तर्क और बुद्धि का सहारा लेकर उन्हें संघ कार्य का महत्व समझाने का प्रयास भी नहीं किया। तब तक किये गये सारे सामाजिक कार्यों से मुक्त होकर वे मोहिते बाड़े में लगने वाली सायं शाखा में किशोर स्वयंसेवकों के साथ तन्मय होकर खेलकूद में शामिल होने लगे। शाखा के कार्यक्रमों का ठीक ढंग से आयोजन करने, सारे कार्यक्रम अच्छे ढंग से बिना किसी भूल के सम्पन्न हों, इसके लिये एकाग्र चित्त से वे संघ कार्य में जुट गये। नये शुरू किये गये इस कार्य का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, यह बात भी प्रारंभिक दिनों में उन्होंने स्वयंसेवकों से नहीं कही। केवल तन्मयता से विविध खेलों के कार्यक्रमों में वे रम जाते और अपने साथ किशोर स्वयंसेवकों को भी रमाने का प्रयास करते और इस प्रकार संघ की शाखा शुरू हुई।

शाखा के साथ ही कार्यपद्धति का विकास भी प्रारंभ हुआ। स्वयंसेवकों के साथ परिचय होने के साथ ही अनौपचारिक वार्तालाप शुरू हो गया था। स्वयंसेवकों का नाम, शिक्षा, घर की स्थिति आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद, यदि कोई स्वयंसेवक किसी दिन शाखा में नहीं आया तो अन्य किशोर स्वयंसेवकों को साथ लेकर डॉक्टरजी उसके घर जाते थे। इस प्रकार धीरे धीरे स्वयंसेवकों के माता-पिता और परिवारजनों के साथ भी परिचय होने लगा। डॉक्टर हेडगेवार जैसा ज्येष्ठ चरित्रवान कार्यकर्ता अपने बच्चे की पूछताछ करने, स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्राप्त करने बड़ी आस्था से अपने घर आता है, यह देखकर स्वयंसेवकों के घर के लोग भी प्रभावित होते। डॉक्टर हेडगेवार के अपने घर आने से उन्हें बड़ी खुशी होती। कोई स्वयंसेवक यदि गंभीर रूप से बीमार होता तो डॉक्टर हेडगेवार बड़े चिन्तित रहते – उस बीमार स्वयंसेवक के लिये अस्पताल से दवाई लाने, इलाज करने वाले डॉक्टरों से आस्था पूर्वक पूछताछ और विचार-विनिमय करने तथा आवश्यक हुआ तो बीमार स्वयंसेवक की सेवा सुश्रुषा के लिये रात भर जागरण करने के लिये स्वयंसेवकों को उसके पास भेजने की व्यवस्था की जाती। इस प्रकार के व्यवहार से स्वयंसेवकों में परस्पर मैत्री पूर्ण संम्बन्ध अधिक मजबूत होने लगे। साथ ही प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों और भावनाओं का भी डॉक्टर हेडगेवार को परिचय होने लगा।

संघ के कार्य में बैठक शब्द एक नये अर्थ में स्वयंसेवकों में प्रचलित हुआ। अनौपचारिक वार्तालाप और हास्य-विनोद से परस्पर मनों को जोड़ने वाली एक नयी कार्यशैली विकसित हुई। इन बैठकों में डॉक्टर हेडगेवार अनेक घटनाओं के सन्दर्भ में अपने अनुभवों के साथ बड़े रोचक ढंग से जानकारी प्रस्तुत करते। इसमें विनोद के साथ ही अत्यंत सरल शब्दों में राष्ट्रीय भावना के लिये पोषक मार्गदर्शन भी होता। तरह तरह के मानवी स्वभावों, अंतर्मन की भावना को प्रकट करने वाले रोचक उद्गारों, शब्दप्रयोगों को लेकर प्रचलित समाज की स्थिति को समझाने का प्रयास भी होता। यह सब हंसी-विनोद के साथ चलता और इसलिये इन बैठकों के प्रति स्वयंसेवकों का आकर्षण बढ़ने लगा। डॉक्टर हेडगेवार के निवास स्थान पर नित्य अधिकाधिक संख्या में ये बैठकें रात्रि के 9 से 12 बजे तक चलती रहतीं।

डॉक्टरजी ने इन बैठकों में स्वयंसेवकों को खुले दिल से अपनी बातें कहने की आदत भी डाली। वार्तालाप का सूत्र टूटने न पाये, स्वयंसेवक अपना विचार व्यक्त करते समय भटकने न लगें, विचार प्रकटन में सुसंगति बनी रहे, इसकी चिंता वे बड़ी कुशलता से करते। इन बैठकों में स्वयंसेवकों के गुण-अवगुणों का निरीक्षण भी होता। बैठक में कौन कौन उपस्थित थे, किसने कौन सी शंका व्यक्त की, उस पर कौन क्या क्या बोले आदि सारे वार्तालाप की बारीकियों को ध्यान में रखा जाता। इससे हरेक के स्वभाव, बोलने की शैली, विषय प्रतिपादन करने की कुशलता, उसके कर्तृत्व और उसकी गुणसंपदा बढ़ाने के लिये क्या क्या आवश्यक है – आदि बातों का निदान भी होने लगा।

महात्मा गांधी एवम डॉक्टर हेडगेवार

1934 में वर्धा का शीत शिविर महात्मा गांधी के आगमन के कारण काफी चर्चा का विषय बन गया। महात्मा गांधी ने कहा डॉक्टर साहब आपका संगठन बहुत अच्छा है। यह भी कहा कि मुझे पता चला है कि आप बहुत दिनों तक कांग्रेस में काम करते थे, फिर कांग्रेस जैसी लोकप्रिय संस्था के अंदर इस प्रकार का स्वयंसेवी संगठन क्यों नहीं चलाया। बिना कारण ही अलग संगठन क्यों बनाया। डॉ. हेडगेवार ने उत्तर देते हुए कहा, मैंने पहले कांग्रेस में ही यह कार्य प्रारंभ किया था। 1920 की नागपुर कांग्रेस में मैं स्वयंसेवक विभाग का संचालक था, परंतु सफलता नहीं मिली। तब यह स्वतंत्र किया है। महात्मा गांधी ने कहा, कांग्रेस में आपके प्रयत्न सफल क्यों नहीं हुए, क्या पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिली? डॉ. हेडगेवार ने कहा, नहीं पैसे की कोई बात नहीं थी, पैसे से अनेक बातें सफल हो सकती हैं, किंतु पैसे के भरोसे ही संसार में सभी योजना सफल नहीं हो सकती। यहां प्रश्न पैसे का नहीं अंतःकरण का है। महात्मा गांधी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये कहा, आपका यह कहना है उद्दात्त चरित्र के व्यक्ति कांग्रेस में नहीं थे? डॉक्टर हेडगेवार ने कहा, मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं है। कांग्रेस में अनेक अच्छे व्यक्ति हैं, परंतु प्रश्न मनोवृत्ति का है। कांग्रेस की स्थापना एक राजनीतिक कार्य को सफल करने की दृष्टि से हुई है। कांग्रेस के कार्यक्रम इस बात को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं तथा उन कार्यक्रमों की पूर्ति के लिए उसे स्वयंसेवकों वॉलिंटियर्स की आवश्यकता होती है। कांग्रेस के लोगों की धारणा स्वयंसेवक के संदर्भ में सेवा परिषद में बिना पैसे लिये दरी उठाने वाले मजदूर की है, स्वाभाविक है इस धारणा से राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने वाले स्वयंसेवी कार्यकर्ता कैसे उत्पन्न हो सकेंगे, इसलिए कांग्रेस में कार्य नहीं हो सकता।

महात्मा गांधी ने कहा फिर स्वयंसेवक की आपकी क्या कल्पना है? डॉक्टर हेडगेवार ने कहा कि देश-देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए प्राथमिकता से अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए तत्पर शुद्ध नेता को हम अपना स्वयंसेवक समझते हैं तथा संघ का लक्ष्य इसी प्रकार के स्वयंसेवक का निर्माण करना है। हम एक दूसरे को समान समझते हैं तथा एक दूसरे को समान रूप से प्रेम करते हैं। हम किसी प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय नहीं देते हैं। इतने थोड़े समय में धन तथा साधनों का आधार ना होते हुए भी संघ की वृद्धि का यही रहस्य है।

मृत्यु से पहले फूट-फूट कर क्यों रोये थे हेडगेवार

21 जून 1940 को डॉक्टर हेडगेवार ने अपना शरीर छोड़ दिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार वे मृत्यु के पूर्व फूट-फूटकर रोए थे। यहां यह महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि अपनी सारी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक इच्छाओं को पूर्णतया भस्म कर देने वाला डॉक्टर हेडगेवार जैसा लौहपुरुष जोर-जोर से क्यों रोया? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि उनकी चिरप्रतीक्षित अभिलाषा भारत की स्वतंत्रता परमेश्वर ने उनके जीवनकाल में पूरी नहीं की। यही व्यथा उनकी आंखों से आंसुओं की बरसात बनकर बह रही थी।

डॉ. हेडगेवार शब्दों से नहीं, आचरण से सिखाने की पद्धति पर विश्वास रखते थे। संघ कार्य की प्रसिद्धि की चिंता ना करते हुए संघ कार्य के प्रमाण से ही लोग संघ कार्य को अनुभव करेंगे, समझेंगे तथा सहयोग एवं समर्थन देंगे, ऐसा उनका विचार था। इसलिए उनके निधन के पश्चात भी अनेक उतार-चढ़ाव संघ के जीवन में आने के बाद भी संघ कार्य अपनी नियत दिशा में निश्चित गति से लगातार बढ़ता हुआ अपने प्रभाव से संपूर्ण समाज को स्पर्श व आलोकित करता हुआ आगे ही बढ़ रहा है। संघ की इस यशोगाथा में ही डॉक्टर जी के समर्पित युग दृष्टा सफल संगठन और सार्थक जीवन की यशोगाथा है।

डॉक्टर हेडगेवार के बताये मार्ग पर आज करोड़ों स्वयंसेवक भारत माता की सेवा में दिन रात एक कर रहे हैं। सब यही गाते हैं, पूर्ण करेंगे हम सब केशव वह साधना तुम्हारी। संघ की शाखाओं में उच्चारित होने वाला ‘परम वैभवं नेतु मेतत स्वराष्ट्रम’ का मंत्र अब सिद्ध हो चला है। सारी दुनिया में भारत की यशो दुंदुभी बज रही है। भारत को जो मान सम्मान स्थान अब मिल रहा है, उसके पीछे केशव रचित सृष्टि ही तो है।

(लेखक अभाविप मध्य भारत प्रांत के पूर्व प्रांत संगठन मंत्री हैं)

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