1857 की क्रांति के अमर सेनानी व कुशल रणनीतिकार वीर तात्या टोपे
18 अप्रैल 1859 : सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी तात्या टोपे का बलिदान
रमेश शर्मा
1857 की क्रांति के अमर सेनानी व कुशल रणनीतिकार वीर तात्या टोपे
सुप्रसिद्ध बलिदानी तात्या टोपे संसार के उन विरले सेनानायकों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल एक विशाल क्रॉंति को संचालित किया, अपितु क्राँति के मुख्य नायकों का बलिदान हो जाने के बाद अपने अकेले के दम पर लगभग एक वर्ष तक क्राँति को जीवन्त रखा और पूरे भारत में अंग्रेजों को छकाया।
ऐसे महान क्राँतिकारी तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के अंतर्गत येवला ग्राम में हुआ था। (कुछ विद्वान उनकी जन्मतिथि 6 जनवरी भी मानते हैं) उनके पिता मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव द्वितीय के विश्वस्त सहयोगी थे। घर में ओज और सांस्कृतिक चेतना दोनों का वातावरण था। पिता पाँडुराव भट्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ साये की भाँति रहते थे और जब मराठा साम्राज्य का पतन हुआ एवं पेशवा को बिठूर आना पड़ा तो पाँडुराव भी 1818 में बिठूर आ गये। इसलिये तात्या का बचपन बिठूर में ही बीता। नामकरण संस्कार में उनका नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव यवलकर रखा गया था। पिता मूलतः यवलकर ही थे। लेकिन भट्ट उनका गोत्र था। इसलिए पिता के नाम के आगे भट्ट ही संबोधन लगता था। तात्या को भी लोग रामचंद्र यवलकर की बजाय स्नेह से “तात्या” के नाम से पुकारते थे और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए।
तात्या ने कुछ दिन बंगाल सेना की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया। इस कारण उनका नाम टोपे पड़ा। लेकिन स्वत्व और स्वाभिमानी विचार के चलते नौकरी छोड़कर पुनः बाजीराव द्वितीय की सेवा में आ गये। समय के साथ उनका विवाह हुआ और दो संतानें भी हुईं। उनकी बेटी का नाम मनुताई व बेटे का नाम सखाराम था। आगे चलकर बाजीराव द्वितीय के स्थान पर नाना साहब ने पेशवाई संभाली। उस दौर में यदि स्वामी दयानंद सरस्वती और अन्य संत सामाजिक चेतना का संचार कर रहे थे तो तात्या टोपे ने उत्तर मध्य और मालवा की रियासतों से संपर्क कर एक वातावरण बनाया। इसमें रियासतों में अंग्रेजी सेना के उन सैनिकों का सहयोग मिला, जो अंग्रेज अधिकारियों के दमनात्मक रवैये से क्षुब्ध थे और अंततः क्राँति की तिथि तय हुई और 1857 में पूरे देश में ज्वाला धधक उठी। अधिकांश रियासतों और कानपुर के सैनिकों ने नाना साहब पेशवा को अपना नायक घोषित कर दिया, यह भूमिका तात्या टोपे ने ही बनाई थी। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। इस क्रांति का दमन करने के लिये ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेजी सेना ने कानपुर पर धावा बोला। तब तात्या के नेतृत्व में भीषण युद्ध हुआ। अंततः 16 जुलाई, 1857 को अंग्रेजों का कानपुर पर पुनः अधिकार हो गया। तात्या टोपे ने कानपुर छोड़ा और शीघ्र ही अपनी सेना पुनर्गठित की। वे सेना सहित बिठूर पहुँच गये और पुनः कानपुर पर हमले की योजना बनाने लगे। लेकिन किसी विश्वासघाती ने अंग्रेजों को खबर कर दी और हैवलॉक ने ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। तात्या ने बिठूर खाली किया और ग्वालियर क्षेत्र में आये। वे ग्वालियर में कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये और एक बड़ी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। पहले काल्पी पर अधिकार किया और फिर नवंबर 1857 में कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी। तात्या को सफलता तो मिली, परंतु यह जीत थोड़े समय के लिए ही रही। ब्रिटिश सेनापति कॉलिन कैम्पबेल ने कानपुर को घेरा और छह दिसंबर को पुनः अधिकार कर लिया। अब तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए। इसी बीच 22 मार्च को जनरल ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। तब तात्या टोपे लगभग 20 हजार सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की सहायता के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे।
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लड़ाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। दुर्भाग्य से चरखारी को छोड़कर अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड़ दिया और स्वयं ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का उत्सव मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की, जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड़ गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोषित किया। परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई 18 जून, 1858 को बलिदान हो गयीं।
इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा है। तात्या ने एक साल तक अंग्रेजी सेना को झकझोरे रखा। उन्होंने ऐसे छापेमार युद्ध का संचालन किया, कि अंग्रेजी सेना हलकान हो गई। तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि “हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोड़ों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकड़ने में कभी सफलता नहीं मिली।” उनका युद्ध कौशल अद्भुत था।ग्वालियर से निकल कर तात्या राजगढ़ मध्यप्रदेश, राजस्थान और फिर लौटकर पुनः मध्यप्रदेश व्यवरा, सिरोंज भोपाल नर्मदापुरम, बैतूल असीरगढ़ आदि स्थानों पर गये। लगभग हर स्थान पर उनकी अंग्रेज सेना से झड़प होती और वे सुरक्षित आगे निकल जाते। किन्तु परोन के जंगल में उनके साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और तात्या 7 अप्रैल 1859 को सोते में पकड़ लिए गये और शिवपुरी लाये गये। यहाँ 15 अप्रैल, 1859 को कोर्ट मार्शल किया गया। यह केवल दिखावा था। उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। तीन दिन बाद 18 अप्रैल 1859 को शाम चार बजे तात्या को बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। कहते हैं तात्या फाँसी के चबूतरे पर दृढ़ कदमों से ऊपर चढ़े और फाँसी के फंदे में स्वयं अपना गला डाल दिया। इस प्रकार तात्या मध्यप्रदेश की मिट्टी का अंग बन गये।
कर्नल मालेसन ने 1857 की क्रांति का इतिहास लिखा है। उन्होंने कहा कि तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ बन गये हैं। सच तो यह है कि तात्या सारे भारत के नायक बन गये हैं। पर्सी क्रास नामक एक अंग्रेज ने लिखा है कि अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में तात्या सबसे प्रखर मस्तिष्क के नेता थे। उनकी तरह कुछ और लोग होते तो अंग्रेज टिक नहीं पाते।