तीन जौहरों का साक्षी चित्तौड़गढ़

तीन जौहरों का साक्षी चित्तौड़गढ़

तीन जौहरों का साक्षी चित्तौड़गढ़तीन जौहरों का साक्षी चित्तौड़गढ़

चित्तौड़ की मिट्टी में पराक्रम की सुगंध है। यहॉं का प्रत्येक रज कण पावन है। चित्तौड़  के वीरवीरांगनाओं ने कभी किसी आक्रांता के सामने घुटने नहीं टेके। इतिहास के पन्नों में उनके नाम स्वाभिमान से जीने और मरने के लिए अमर हैं। चित्तौडगढ़ के गौरवशाली इतिहास की प्रतीक रानी पद्मिनी समेत हजारों वीरांगनाओं के जौहर की गाथाएं कभी भुलाई नहीं जा सकतीं।

चित्तौड़ ने तीन जौहर देखे, जिनमें हजारों वीरांगनाओं ने अपनी आनबान की रक्षा के लिए स्वयं को अग्निदेव को समर्पित कर दिया। ये तीनों जौहर मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के समय हुए। तीन जौहर स्थलों में से दो के बारे में लोग लगभग अनजान हैं। एक जौहर स्थल विजय स्तंभ गौमुख कुंड के पास स्थित है। इसके लिए यहां एक छोटा सा साइन बोर्ड लगा हुआ है। वहीं दो अन्य जौहर स्थलों में एक कुंभामहल में सुरंग तथा दूसरा भीमलत कुंड के पास बताया जाता है। इनका भी जिक्र जौहर स्थली के रूप में है और यहां जौहर करने का संकेत चिन्ह लगा है। इनके बारे में अधिकांश लोग कुछ जानते भी नहीं

चित्तौड़ का पहला जौहर 26 अगस्त सन 1303 में हुआ था, जब अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी की सुंदरता के बारे में सुना। वह चाहता था कि पद्मिनी उससे विवाह करें। इसी बात को लेकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ के राजा के पास संदेश भेजा कि यदि युद्ध से बचना चाहते हैं तो रानी पद्मिनी को मेरे पास भेज दो। लेकिन उसे पता नहीं था कि मेवाड़ के वीर कभी झुकते नहीं। राजा रतन सिंह ने उस प्रस्ताव को फाड़ दिया, इससे अलाउद्दीन खिलजी आग बबूला हो उठा।

अब अलाउद्दीन खिलजी ने दूसरा प्रस्ताव भेजा कि वह एक बार पद्मिनी के दर्शन करना चाहता है, यदि ऐसा नहीं किया तो निश्चित रूप से युद्ध होगा। राजा रतन सिंह खून खराबा नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने अलाउद्दीन की बात मान ली।बहुत दूर से ही सही, लेकिन पद्मिनी को देखते ही अलाउद्दीन खिलजी आपा खो बैठा। अलाउद्दीन की रवानगी के समय राजा रतन सिंह शिष्टाचार के नाते उसे किले के बाहर तक छोड़ने आए। तभी अलाउद्दीन खिलजी ने छल से राजा रतन सिंह को बंदी बना लिया और छोड़ने के बदले पद्मिनी को देने की शर्त रख दी।

जब यह समाचार चित्तौड़ किले में पहुंचा तो वहां हाहाकार मच गया। लेकिन रानी पद्मिनी ने सूझ बूझ से काम लिया। उन्होंने अलाउद्दीन को कहलवाया कि वह उनकी अगवानी के लिए तैयार रहे। वे अपनी 800 दासियों के साथ उसके पास रही हैं। यह समाचार सुनते ही अलाउद्दीन का चेहरा खिल गया। फिर क्या था चित्तौड़ से पालकियां निकलीं, लेकिन इनमें उन चुनिंदा 800 वीर सैनिकों को स्त्रियों के भेष में बिठाया गया जो चित्तौड़ के सबसे शक्तिशाली सैनिक माने जाते थे। राजा रतन सिंह को लेकर अलाउद्दीन के सेनापति पालकियों के समीप आए। राजा रतन सिंह को सुरक्षित सामने पाते ही, वे 800 वीर सैनिक मुगल सैनिकों पर टूट पड़े और राजा रतन सिंह को सुरक्षित चित्तौड़गढ़ पहुंचा दिया।

अलाउद्दीन खिलजी ने बौखलाकर अपनी पूरी शक्ति से चित्तौड़ पर हमला कर दिया। इस युद्ध में चित्तौड़ के राजा रतन सिंह मारे गए, हजारों की संख्या में सैनिक बलिदान हो गए। जब महारानी पद्मिनी के पास यह समाचार पहुंचा तो उन्होंने अपनी किले की अन्य महिलाओं की मर्यादा राजपूती स्वाभिमान की रक्षा के लिए जौहर का रास्ता चुना। पद्मिनी समेत 16000 वीरांगनाएं अग्निकुंड में कूद गईं। आज भी विजय स्तंभ के पास यह जगह जौहर स्थली के रूप में पहचानी जाती है। लेकिन यह अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की उपेक्षा का शिकार है। पहचान के नाम पर यहां एक छोटा सा संकेत बोर्ड लगा है। इसका रख रखाव के बराबर है।

चित्तौड़ का दूसरा जौहर सन 1535 में हुआ था, जब गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। तब रानी कर्णावती ने भी शत्रु की अधीनता स्वीकार नहीं की और 13 हजार वीरांगनाओं के साथ जौहर कर लिया। रानी कर्णावती चित्तौड़गढ़ की एक महान रानी, शासक और राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) की पत्नी थीं रानी कर्णावती दो महान राजाओं राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की माता और महाराणा प्रताप की दादी थीं।

तीसरा जौहर 1567 में हुआ जब अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। तब रानी फूलकंवर ने हजारों रानियों के साथ जौहर किया था। रानी फूलकंवर महाराणा प्रताप की पत्नी थीं। जयमलफत्ता भी इसी युद्ध में बलिदान हुए थे। 

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