नक्सलियों में हताशा का परिणाम है दंतेवाड़ा नक्सली हमला

नक्सलियों में हताशा का परिणाम है दंतेवाड़ा नक्सली हमला

आशीष कुमार अंशु

नक्सलियों में हताशा का परिणाम है दंतेवाड़ा नक्सली हमलानक्सलियों में हताशा का परिणाम है दंतेवाड़ा नक्सली हमला

अप्रैल से जुलाई के बीच के चार महीनों का समय नक्सलियों के लिए बहुत महत्व का होता है। इसमें भी अप्रैल का महीना उनके लिए विशेष होता है। वह इसलिए क्योंकि इसी महीने की 22 तारीख को उनके आदर्श ब्लादिमीर लेनिन का जन्मदिन आता है। तो क्या नक्सलियों ने इस महीने को अपने कैलेण्डर में मार्क करने के लिए पुलिस के विशेष बल डीआरजी पर बुधवार को हमला किया, जिसमें एक ड्राइवर और 10 जवान वीरगति को प्राप्त हो गये?

अगर पूरे घटनाक्रम को देखेंगे तो आपको समझ में आयेगा कि छत्तीसगढ़ में लंबे समय से नक्सलियों से निपटने के उपायों ने उन्हें सीमित भी किया है और हताश भी। बुधवार को भी उन्होंने पुलिस के जिस विशेष बल डीआरजी पर हमला किया वह सिर्फ सुरक्षा बलों पर हमला नहीं है, बल्कि उसमें ‘अपने लोगों’ के विरुद्ध प्रतिशोध की भावना भी है।

डीआरजी यानि डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (district reserve guard)। यह छत्तीसगढ़ पुलिस का ही हिस्सा है, जिसे नक्सलियों से निपटने के लिए वर्ष 2008 में बनाया गया था। उस समय इनकी बस्तर के सभी सात जिलों में नियुक्ति की गयी थी। बाद में दूसरे जिलों में भी सेवा विस्तार हुआ। डीआरजी में स्थानीय युवाओं और पूर्व नक्सलियों की भर्ती की जाती है। स्थानीय युवाओं और पूर्व नक्सलियों की भर्ती इसलिए होती है क्योंकि ये स्थानीय बोली से परिचित होते हैं और इन्हें दुर्गम क्षेत्रों की जानकारी होती है। पूर्व नक्सलियों को जंगल के अंदर सक्रिय नक्सलियों के काम-काज का तरीका पता होता है, इसलिए वे नक्सलियों की पहचान से लेकर उनकी योजनाओं को विफल करने तक बड़ी भूमिका निभाते हैं।

डीआरजी में उन पूर्व नक्सलियों को सम्मिलित किया जाता है, जिन्होंने आत्मसमर्पण किया है। आत्मसमर्पण के बाद भी उनकी सीधी भर्ती नहीं की जाती। पहले उनकी गतिविधियों पर लंबे समय तक नजर रखी जाती है। यदि उनका रवैया विश्वसनीय रहा तो डीआरजी का हिस्सा बनने का प्रस्ताव दिया जाता है। प्रारंभ में उन्हें नक्सलियों से जुड़ी सूचना लाने के काम में लगाया जाता है। नक्सलियों को पहचानने में इनकी सहायता ली जाती है। इस तरह बस्तर में डीआरजी नक्सल विरोधी अभियान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

आपने सुना है लोन वर्राटू का नाम?

पूर्व नक्सली कमलेश ने डीआरजी का हिस्सा बनने के लिए सरेंडर किया था, तब उसे और उसके साथियों को बारसूर थाने तक लाने वाले अभियान को नाम दिया गया था लोन वर्राटू। लोन वर्राटू गोंडी का शब्द है, जिसका अर्थ है घर वापसी। इस अभियान के अन्तर्गत नक्सलियों ने सरेंडर होने के बाद अपने रोजगार से जुड़ी जो भी मांग रखी, उसे पूरा करने के लिए प्रशासन की ओर से प्रयास किया गया।

नक्सली इस योजना के अन्तर्गत सरेंडर करें, इसके लिए भी गंभीर प्रयास किए गए। जैसे इनामी नक्सलियों के गांवों में उनके पोस्टर लगाकर सरेंडर करने की अपील की गई। गांव-गांव तक लोन वर्राटू योजना की जानकारी पहुंचाई गई। नक्सलियों ने इस योजना का खूब विरोध किया, लेकिन कई नक्सली कमांडरों ने इस योजना के अंतर्गत आत्मसमर्पण भी किया। लोन वर्राटू ने दंतेवाड़ा के ग्रामीण परिवारों को इतना हौसला दिया कि वे पहली बार नक्सलियों के विरुद्ध खड़े हुए।

अप्रैल से जुलाई, नक्सली सक्रियता के चार महीने

यह समय नक्सलियों के टेक्टिकल काउंटर ऑफेंसिव कैंपेन (टीसीओसी) का होता है, जिससे निपटने के लिए सुरक्षा बल समय-समय पर अपनी रणनीति में बदलाव करते रहते हैं। इस समय नक्सली नए लड़कों की भर्ती करते हैं, सबसे अधिक वसूली करते हैं। यही समय तेंदू पत्ते के बाजार में आने का है। आमदनी का एक बड़ा हिस्सा, उन्हें तेंदू पत्ते की कमाई की वसूली से मिलता है।

वे ब्लादिमीर लेनिन का जन्मदिन (22 अप्रैल) धूमधाम से मनाते हैं और अपनी ताकत को परखते हैं, अपनी कमजोरी पर बात करते हैं। महत्वपूर्ण स्थानों और पदों पर तैनाती और स्थानांतरण इसी दौरान होता है। एक पूरा सप्ताह वे उन नक्सलियों को याद करते हैं, जिन्हें सुरक्षाबलों ने एनकाउंटर के दौरान मार गिराया होता है।

यहां उल्लेखनीय है कि नक्सलियों के हमलों के इतिहास से यह भी स्पष्ट होता है कि वे फरवरी से ही घटनाओं को अंजाम देने में लग जाते हैं। इस साल भी फरवरी में जगरगुंडा में सड़क निर्माण कार्यों की सुरक्षा में लगे जवानों पर फायरिंग कर दी थी, जिसमें छत्तीसगढ़ पुलिस के 3 जवान बलिदान हो गये थे।

बदल गया नक्सलियों से निपटने का प्लान

टीसीओसी के दौरान किरंदुल क्षेत्र (दंतेवाड़ा) के एक बेहद पिछड़े गांव हिरोली के पास जंगल में नक्सली शहीदी सप्ताह मनाने पहुंचे थे। वे चाहते थे कि मुठभेड़ में मारे गए एक नक्सली का गांव में स्मारक बनाया जाए। इसके लिए उन्होंने ग्रामीणों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। नक्सलियों के दबाव में आए बिना ग्रामीणों ने उनके गांव में होने की जानकारी पुलिस को दे दी। कुछ ही समय में डीआरजी जवान मौके पर पहुंच गए। उन्होंने नक्सली का स्मारक ध्वस्त कर दिया। यह दंतेवाड़ा में नक्सलियों के विरुद्ध खड़े हुए ग्रामीणों का एक उदाहरण भर है।

बस्तर में नक्सलियों की उपस्थिति को लेकर अब कहा जाने लगा है कि वो छत्तीसगढ़ में अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले आठ वर्षों में, जिस तरह केन्द्र सरकार ने नक्सलियों के विरुद्ध लड़ाई का एक्शन प्लान बदला है, नक्सली समझ नहीं पा रहे कि फाइट बैक कैसे करना है? धीरे-धीरे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसकती जा रही है, इसलिए वे बौखलाए हुए हैं।

एक सड़क ने समाप्त कर दी नक्सलियों की जनताना सरकार

जब से बस्तर के अंदर नक्सलियों के सबसे बड़े गढ़ जगरगुंडा को उनसे छीन लिया गया है, तब से नक्सलियों का मनोबल कमजोर पड़ा है। किसी जमाने में यहां नक्सलियों की जनताना सरकार हुआ करती थी। माओवादी अपने द्वारा बनाई गई समानान्तर कथित सरकार को जनताना सरकार कहते हैं। सरल शब्दों में जिस क्षेत्र पर उनका पूरा नियंत्रण हो, वहां वे अपनी जनताना सरकार चलाते हैं।

लेकिन जबसे अरनपुर-जगरगुंडा सड़क बनकर तैयार हुई है, तब से जगरगुंडा, बीजापुर, दंतेवाड़ा से उनकी जनताना सरकारें उखड़ गई हैं। 18 किमी की यह सड़क भी बस्तर के क्षेत्र में नक्सलियों के लिए साफ संदेश लेकर आई है कि अब सरकार बदल गई है, इसलिए लड़ाई के नियम भी बदल गए हैं। अब भारत के जवान नक्सलियों को उनके गढ़ में जाकर उत्तर देने को तैयार हैं। नक्सलियों द्वारा 26 अप्रैल को किया गया हमला इसी सड़क पर हुआ है।

2010 में इस सड़क पर काम रुक रुक कर प्रारंभ हुआ था, लेकिन वर्ष 2016 के बाद काम में तेजी आ गई। इसको तैयार करने में ढाई हजार जवानों ने दिन-रात पहरेदारी की। यह पूरा क्षेत्र नक्सलियों का गढ़ था, इसलिए बारूदी सुरंगें सबसे बड़ी चुनौती बनीं। 18 किमी के सड़क निर्माण में 110 बारूदी सुरंगें मिलीं। इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती के बावजूद कई नक्सली हमले हुए। सड़क निर्माण के लिए जिन गाड़ियों में निर्माण सामग्री भरकर लाई जा रही थी, ऐसी 50 से अधिक गाड़ियों को नक्सलियों ने जला दिया। इस सबके बावजूद हमारे जवान पीछे नहीं हटे। वे मौके पर डटे रहे और सड़क पूरी करके ही माने।

नक्सल समस्या का स्थाई समाधान क्या है?

सुरक्षा बलों की रणनीति से अलग बस्तर में नक्सली समस्या का स्थायी समाधान पाने का प्रयास भी चल रहा है। अगर एक सड़क जनताना सरकार को उखाड़कर फेंक सकती है, तो कुछ अन्य उपाय भी नक्सलियों को इस पूरे क्षेत्र में अप्रासंगिक कर सकते हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात है, रायपुर के तिल्दा में नक्सल समस्या पर तीन दिनों का विकल्प संगम हुआ। इस संगम में शामिल विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बस्तर की समस्या का समाधान जनजाति स्वशासन की स्थापना में है। जिस प्रकार बोडोलैंड में शांति के लिए जनजाति स्वशासन प्रणाली लागू की गई है। इसमें जल, जंगल, जमीन पर अधिकार के प्रश्न पर बोडो ऑटोनॉमस काउंसिल का गठन किया गया है। उसी प्रकार की व्यवस्था बस्तर में लागू की जाए तो इस क्षेत्र में नक्सल समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *