दत्तोपंत ठेंगडी : एक आधुनिक ऋषि

दत्तोपंत ठेंगडी : एक आधुनिक ऋषि

 

 माधव गोविंद वैद्य

दत्तोपंत ठेंगडी : एक आधुनिक ऋषि

दत्तोपंत ठेंगडी की क्या पहचान है, ऐसा प्रश्न किसी ने किया, तो तुरन्त उत्तर आयेगा ‘‘वे भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक हैं।’’ यह उत्तर गलत नहीं है, किन्तु अपर्याप्त है, समग्र नहीं है। दत्तोपंत की समग्र पहचान है, वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रज्ञावान स्वयंसेवक, निष्ठावान कार्यकर्ता और संघ के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले प्रचारक। वे संघ के स्वयंसेवक नहीं होते तो किसी मजदूर संघ का निर्माण नहीं कर सकते, यह मेरे कथन का अर्थ नहीं है, लेकिन वह मजदूर संघ ‘भारतीय’ मजदूर संघ नहीं होता। ‘भारतीय’ यह विशेषण महत्त्व का है। किन्तु उसका मतलब उसकी देशव्यापी स्थिति को बताना मात्र नहीं है। गुणात्मक दृष्टि से वह ‘भारतीय’ है, केवल विस्तार से नहीं।
गुणात्मक अर्थ
क्या होता है ‘भारतीय’ का गुणात्मक अर्थ? एक प्रसंग बताता हूं। बात साठ के दशक की होगी। मेरे एक अच्छे मित्र एड. श्री. वा. धाबे थे। हम दोनों नागपुर की एक प्रसिद्ध शिक्षण संस्था के संचालन मंडल के जिम्मेदार सदस्य थे। एड. धाबे इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन काँग्रेस (इंटक) के ख्यातनाम कार्यकर्ता थे और ऊँचे पद पर भी आसीन थे। भामसं, नया-नया था। मुझे एड. धाबे जी ने कहा था ‘‘आप (यानी संघ के कार्यकर्ता) मजदूरों का संगठन नहीं कर सकते।’’ मैंने पूछा ‘‘क्यों नहीं?’’ उनका स्पष्ट उत्तर था, ‘‘क्योंकि आपका वर्ग संघर्ष पर विश्वास नहीं है।’’ मजदूरों में काम करना है, तो मजदूर और मालिक, सर्वहारा और पूंजीपति- यह परस्पर व्यावर्तक द्वैत को स्वीकारना ही होता है, यह उस समय की सर्वसाधारण मान्यता थी। भामसं ने उसे झूठ ठहराया और फिर भी वह आज अपने देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन है।
समग्र और एकात्म
एक समय की बात है। नागपुर में मिल मजदूरों का आंदोलन था। भामसं उसमें शामिल था। गेट मीटिंग्ज होती थी, ऐसी ही एक मीटिंग में दत्तोपंत जी का भाषण हुआ। रात्रि में द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी की बैठक में वे आये। संघ के पुराने स्वयंसेवकों को यह ज्ञात होगा कि श्री गुरु जी जब नागपुर में होते, तो रात्रि 9 बजे से 12 बजे तक, उनकी बैठक में किसी को भी आने की अनुमति रहती थी। मैं जो भी थोड़ा बहुत संघ को समझ पाया, वह उन बैठकों के कारण ही। श्री गुरुजी का पत्र लेखन भी चलता था और अन्य बातों की चर्चा भी होती थी। दत्तोपंत जी ने उस मीटिंग का समाचार बताया और कहा कि ‘‘मालिक और मजदूरों के प्रतिनिधियों को साथ बैठकर रास्ता निकालना चाहिये’’ यह मुद्दा हमने रखा। श्री गुरुजी तुरन्त बोले, ‘‘क्या कपड़े के मिल के दो ही घटक होते हैं- मालिक और मजदूर? कपड़ा जिनके लिये बनाया जाता है, उन ग्राहकों का इस विषय में सम्बन्ध नहीं है क्या?’’ यह समग्र विचार है और दत्तोपंत ठेंगडी जी की पूरी जीवन यात्रा मानवी जीवन की और समग्रता से और एकात्मता से देखने वाली जीवनयात्रा है।
समृद्ध अनुभव
दत्तोपंत वैसे नागपुर से करीब 110 कि. मी. दूर, वर्धा जिले के तहसील स्थान आर्वी के थे। सन,1920 में उनका जन्म आर्वी में हुआ था। मैट्रिक तक की शिक्षा वहीं हुई थी। महाविद्यालयीन शिक्षा पाने हेतु वे नागपुर आये और नागपुर के प्रसिद्ध शासकीय महाविद्यालय में- मॉरिस कॉलेज में- उन्होंने प्रवेश लिया। सम्भवत: वह सन्1936 का वर्ष था, वे मेधावी छात्र थे, वहाँ से बी. ए. की उपाधि प्राप्त कर वे संघ के प्रचारक बने, उन्हें केरल प्रांत में भेजा गया। उस समय संघ की व्यवस्था में केरल अलग प्रान्त नहीं था। वह, जिसको आज तामिलनाडु कहते हैं और उस समय मद्रास प्रान्त कहते थे, उस प्रान्त का हिस्सा था। दो-तीन साल वहाँ काम करने के बाद, स्वास्थ्य खराब होने के कारण वे नागपुर लौटे और ‘लॉ’ के विद्यार्थी बने। बात सम्भवत: सन्1943 की होगी। लॉ के विद्यार्थी के नाते, दो वर्षों तक वे श्री गुरुजी के ही घर में रहते थे और यह जो दो वर्षों का श्री गुरुजी के घर में उनका निवास हुआ और उनसे आत्मीय सम्बन्ध बने, इस कारण वे अत्यन्त लाभान्वित हुये, उस दौर में नागपुर में एक विभाग कार्यवाह का दायित्व उन पर सौंपा गया। विभाग छोटा था। केवल चार शाखाएं उसमें सम्मिलित थी। दो सायम् की और दो प्रभात की। मैं एक सायम् शाखा का- मोहिते सायम् शाखा का- तरुण प्रमुख था। बहुत अच्छी संख्या रहती थी, उस शाखा की। तरुणों के 6 गण और बालों के 16। प्रतिदिन की उपस्थिति तरुण 100 के करीब व बाल 200 के करीब रहती थी। मेरा दत्तोपंत जी का परिचय उस समय आया, उनका स्नेहिल बर्ताव और विषय के मूल तक जाने की प्रवृत्ति का एहसास मुझे इस काल में आया। सन्1945 में प्रचारक के नाते उन्हें बंगाल प्रान्त में भेजा गया था। संघ पर के प्रतिबन्ध के समय वे बंगाल में ही थे। वे बहुत सुन्दर बंगाली बोलते थे। प्रतिबन्ध हटने के बाद वे फिर से नागपुर आये और विद्यार्थी परिषद के कार्य से जुड़ गये। सन् 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। तब विदर्भ प्रान्त के संघटन मंत्री का दायित्व उन पर सौंपा गया। सन् 1952 का चुनाव, उन्हीं के मार्गदर्शन में लड़ा गया था। राजनीतिक क्षेत्र में काम करते समय ही, ऐसा लगता है कि वे मजदूर आंदोलन की ओर आकर्षित हुये।
मौलिक अध्ययनशीलता
मजदूर संगठन की चाल-चलन के बारे में वे कुछ जानते नहीं थे। अत: वे प्रथम काँग्रेस प्रणीत ‘इंटक’ में शामिल हुये। प्रान्तिक स्तर की कार्य-समिति के सदस्य भी बने और वहाँ के अनुभव के आधार पर उन्होंने सन् 1955 में भामसं की स्थापना की। हम सब जानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी मजदूरों की पक्षधर पार्टी है। मार्क्स प्रणीत वर्ग संघर्ष के मूलाधार तत्त्व पर चलने वाली वह एकमात्र पार्टी है। मार्क्सवाद कहिए या साम्यवाद कहिये, जाने बगैर कोई मजदूर-संगठन न बना सकता है और न चला सकता है, ऐसी उस समय की मान्यता थी। ठेंगडी जी ने मार्क्सवाद का अध्ययन किया। केवल किताबों से नहीं। नागपुर के एक मार्क्सवादी विद्वान के पास वे जाने लगे, उनका नाम आज मेरे स्मरण में नहीं। किन्तु दत्तोपंत हर सप्ताह उनके यहाँ होने वाली गोष्ठियों में जाते थे। किसी भी बात का मूलगामी अध्ययन करने की जो एक अच्छे विद्यार्थी की प्रवृत्ति होती है, उसके जीवन्त उदाहरण दत्तोपंत हैं। इस मौलिक अध्ययनशीलता का जीवन भर उन्होंने पालन किया और इसी मौलिक अध्ययनशीलता के कारण ही वे अन्य कार्यकर्ताओं से अलग कुछ विशेष ही लगते थे।
एक भ्रान्ति
यह एक भ्रम, समाज में आज भी विद्यमान है कि संघ में अध्ययनशीलता को बढ़ावा नहीं मिलता। अध्ययनशीलता कहें, या विद्वत्ता कहें, संगठन कार्य में उपयुक्त नहीं, ऐसी संघ की विचार प्रणाली है, ऐसा मानने वाले लोग उस समय तो बहुत अधिक थे। इस भ्रम के शिकार लोगों को मैं इतना ही कहना पर्याप्त समझता हूँ कि, वे दत्तोपंत जी की तीन किताबें पढ़ें। पहिली होगी ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय : विचारदर्शन।’ वैसे यह किताब दत्तोपंत जी की नहीं है। इस किताब को उनकी केवल प्रस्तावना है। कितनी लम्बी होगी यह प्रस्तावना? आप कल्पना कर सकते हैं? यह 163 पृष्ठों की है, उसमें
45 पृष्ठ तो केवल परिशिष्टों के हैं । मूलतः यह प्रस्तावना मराठी में है, क्योंकि ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय : विचारदर्शन’ यह द्विखण्डात्मक ग्रंथ मराठी में है। किन्तु, इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ है। दिल्ली के सुप्रसिद्ध सुरुचि प्रकाशन ने सात खंड़ों में प्रकाशित किया है। पहले खंड में केवल ठेंगडी जी की प्रस्तावना है।
दूसरी किताब है ‘संकेत रेखा’। इसका सम्पादन हिन्दी के ख्यात कीर्त सम्पादक एवं लेखक श्री भानुप्रताप शुक्ल ने किया है और प्रकाशक दिल्ली स्थित भारतीय मजदूर संघ ही है और तीसरी किताब है ‘कार्यकर्ता।’ यह भी हिन्दी में है और प्रकाशक है भारतीय विचार साधना, पुणे। इन तीन किताबों का थोड़ा सा भी अध्ययन किया तो दत्तोपंत के अध्ययन की व्यापकता, चिन्तन की मौलिकता और विश्लेषण की अभूतपूर्वता का किसी को भी परिचय होगा और वह पाठक दत्तोपंत की विद्वत्ता से निश्चय ही प्रभावित और अभिभूत होगा।
अलौकिक अध्ययन
‘कार्यकर्ता’ को प्रस्तावना लिखने का सद्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। उसमें मैंने जो लिखा है, उसका ही थोड़ा अंश मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ- ‘‘यह विचारधन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संदर्भ में है। इसमें अधिष्ठान, कार्य पद्धति और कार्यकर्ता इन तीनों दृष्टियों से संघ की चर्चा की गई है। वैसे ये तीनों विषय हम लोगों के सामान्य परिचय के है। इनके साधारण अर्थ भी सभी को ज्ञात है। किन्तु इन सर्वविदित सामान्य विषयों को मा. दत्तोपंत की सर्वस्पर्शी प्रतिभा का स्पर्श होते ही वे एक नई प्रखरता, नया तेज, और नया रुपलावण्य लेकर अपने सामने आते हैं। लोहे को सवर्ण में परिणित करने वाली यह प्रतिभा जितनी अभिजात है, उतनी ही दत्तोपंत के प्रचंड अध्ययन और प्रगाढ चिन्तन से वह विभूषित है। सुप्रसिद्ध कश्मीरी साहित्य-मर्मज्ञ मम्मट ने उत्तम काव्य की निर्मिति के तीन ‘हेतु’ बताये है । मम्मट की भाषा में वे हैं- शक्ति, निपुणता और अभ्यास। ‘शक्ति’ माने स्वयंभू प्रतिभा। ‘निपुणता’ आती है लोक-व्यवहारों, काव्यों तथा शास्त्रों के निरीक्षण से और अभ्यास होना चाहिये काव्य मर्मज्ञों की शिक्षा का।
किन्तु ये तीन अलग-अलग नहीं है। ऊपर की कारिका लिखने के तुरन्त बाद स्पष्टीकरण देते हुये, मम्मट लिखते हैं ‘‘इति हेतु: न हेतव:’’ मतलब है, तीनों मिलकर एक ही ‘हेतु’ बनता है। दत्तोपंत के इस सम्पूर्ण विवेचन में भी, अभिजात प्रतिभा (शक्ति), लोक व्यवहारों के सम्यक् निरीक्षण से आई ‘निपुणता’ और संघ कार्य का स्वयं का समृद्ध अनुभव, तथा प. पू. गुरुजी के निकट सम्पर्क से प्राप्त ज्ञान संपन्नता और शिक्षा की उच्च कोटि की उपलब्धि, इन तीनों का एक संपृक्त रसायन भरा है। इस विवेचन में क्या नहीं है।
सामान्य बुद्धि को चकित करने वाले सारे संदर्भ हैं। संदर्भों की व्याप्ति तथा विविधता अलौकिक है। अथर्व वेद से लेकर बाईबिल तक, संत ज्ञानेश्वर से लेकर उमर खैय्याम तक, डायोजेनिस डेमॉक्रॅटिस से लेकर कार्ल मार्क्स तक, पातञ्जल योग से लेकर इमर्सन-कार्लाइल तक, कालिदास से लेकर टेनिसन तक, ईसा-मसीह से लेकर मोहम्मद साहब तक, संत रामदास से लेकर जोसेफ मॅझिनी तक, नारद भक्ति सूत्र से लेकर विश्वगुणादर्श चम्पू तक, गॉस्पेल ऑफ जॉन से लेकर शरु रांगणेकर के वंडरलैंड ऑफ इंडियन मॅनेजमेंट तक, अनेक व्यक्तियों के संस्मरणों तथा कई ग्रंथों के उद्धरणों का रत्न भण्डार इस करीब तीन सौ पृष्ठों के ग्रंथ में विद्यमान है। दत्तोपंत आराम कुर्सी पर बैठकर विद्वत्ता की उपासना करने वाले पढाकू पंडित नहीं हैं। सक्रिय कार्यकर्ता हैं। संघ के प्रचारक, जनसंघ के संगठक, मजदूर संघ के संस्थापक, किसान संघ-स्वदेशी जागरण मंच, प्रज्ञा प्रवाह आदि मोर्चों एवं मंचों के सक्रिय मार्गदर्शक-
इन सब भूमिकाओं को एक व्यक्ति द्वारा निभाना- यही एक महान आश्चर्य की बात है। यह सब करते हुये, वे कब पढ़ते होंगे, पढा हुआ कैसे ध्यान में रखते होंगे और यथा समय उसकी उपस्थिति कैसी होती होगी, इन सब भूमिकाओं को एक व्यक्ति ने निभाना- यही एक महान आश्चर्य है। इन सब प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे तो अलौकिकता की परिधि में प्रवेश कियेे बिना चारा नहीं।’’
अधिष्ठान का महत्त्व
स्वयं दत्तोपंत बताते थे कि किसी भी कार्य की सफलता के लिये पांच कारण होते हैं, वे इस सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता के 18 वें अध्याय का एक श्लोक बताते हैं। श्लोक है-
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्छमम्॥ (अ. 18, श्लोक 14)
तो प्रधान है ‘अधिष्ठान’। यानी आधारभूत सिद्धान्त। बाद में कर्ता, करण तथा विविध चेष्टाएं आती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अधिष्ठान है हिंदुत्व। हिंदू यह किसी संप्रदाय का, मजहब का या रिलिजन का नाम नहीं है। यह एक संस्कृति का यानी मूल्य-व्यवस्था का नाम है। यह संस्कृति, जिनको दुनिया, हिंदू इस नाम से जानती है, उन्होंने विकसित की, इसलिये इसे हिंदू संस्कृति या हिंदुत्व कहा जाता है। हमारी राष्ट्र-अवधारणा इसी सिद्धान्त पर आधारित है। इस लिये हम कहते हैं कि यह हिंदू राष्ट्र है। एक जमाना था कि जब राष्ट्र भाव, आंतरराष्ट्रीय सोच का विरोधी माना जाता था। दत्तोपंत जी ने ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय : विचारदर्शन’ की विस्तृत प्रस्तावना में इस भ्रान्ति को दूर किया है। अनेक उद्धरण दत्तोपंत जी ने इस विषय की चर्चा करते हुये दिये हें।
बिपिनचंद्र पाल कहते हैं- ‘‘राष्ट्रीयता वैश्विक मानवता से अलग नहीं की जा सकती’’ और वे आगे कहते हैं ‘‘हिंदुत्व यह एक फेडरल संघात्मक संकल्पना नहीं है, वह उसके इतनी आगे बढ़ गई है कि भारत वैश्विक ऐक्य का,वैशि्वक संघराज्य का- प्रतीक बन गया है।
कम्युनिस्ट नेता अच्युत मेनन को दत्तोपंत उद्धृत करते हैं, मेनन कहते हैं- ऐसा प्रतीत होता है कि सांस्कृतिक एकता को बनाने के लिये हिंदू जीवन श्रद्धाओं का बहुत योगदान रहा है। मैं हिंदू जीवन श्रद्धा की बात कर रहा हूँ। हिंदू रिलिजन की नहीं, इस का कारण यह है कि सामान्य अर्थ में हिंदू रिलिजन नहीं है। यह सर्वसमावेशक, विविधताओं का आदर करने वाला, मानव से लेकर चराचर सृष्टि तक को अपने-पन की भावना में समाविष्ट करने वाला तत्त्व हिंदुत्व है, वहीं हमारे राष्ट्रभाव का आधार है। संघ जब हिंदू राष्ट्र की बात करता है, तब यही उदारता को वह अधोरेखित करता है। इस बुनियाद पर वह सम्पूर्ण हिंदू समाज को संगठित करने के कार्य में जुटा है। ‘सम्पूर्ण समाज का संगठन’ यह ध्यान में रखना चाहिये। ‘समाजें का एक संगठन’ नहीं ‘ऑफ्’ और ‘इन्’ का अर्थ भेद हमें ध्यान में रखना चाहिये।
समाज की व्यामिश्रता
समाज का स्वरूप व्यामिश्र रहता है। समाज जितना अधिक प्रगत और प्रगल्भ, उतनी व्यामिश्रता अधिक रहेगी, ऐसे समाज-जीवन के अनेक क्षेत्र और उप क्षेत्र बनना अत्यंत स्वाभाविक है। राजनीति एक क्षेत्र है। धर्म, शिक्षा, उद्योग, कृषि जैसे ऐसे अनेक क्षेत्र होते हैं। मजदूर उद्योग क्षेत्र का उप क्षेत्र है। इन सभी क्षेत्रों का ‘अधिष्ठान’ हिंदुत्व की विचारधारा होनी चाहिये। दत्तोपंत जी ने यह मूलभूत सिद्धान्त को कभी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। भारतीय मजदूर संघ के बाद, दत्तोपंत जी की प्रेरणा से भारतीय किसान संघ आया, सामाजिक समरसता मंच आया, सर्वपंथ समादर मंच का निर्माण किया गया। इन सभी में अधिष्ठान, सर्वव्यापक, सर्वसमावेशक हिंदुत्व रहा।
राजदूत और सेनापति
प्रतिबन्ध के बावजूद जब संघ में भी एक वैचारिक तूफान खड़ा हुआ था, तब श्रीगुरु जी ने सबसे पहले सन् 1954 में सिन्दी, उसके बाद सन् 1960 में इन्दौर में और अन्त में सन् 1972 में ठाणे में संघ की सम्पूर्ण समाज के संगठन की भूमिका कार्यकर्ताओं के सामने स्पष्ट की थी। उन्होंने कहा था कि ‘‘सम्पूर्ण समाज का संगठन का अर्थ है, समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का संगठन।’’ इसी हेतु से संघ के कार्यकर्ता विभिन्न क्षेत्रों में गये। कुछ अपनी रुचि और प्रतिभा से, तो और कुछ संघ की प्रेरणा से। धर्म के क्षेत्र में तो स्वयं श्री गुरुजी ने पहल की थी। सिन्दी में उन्होंने बताया था कि विभिन्न क्षेत्रों में गये अपने कार्यकर्ता अपने राजदूत हैं। राजदूत किसी भी देश में जायें, अपने देश के हित की चिन्ता करता है। इन्दौर में या ठाणे में उन्होंने कहा, ‘‘वे अपने सेनापति हैं, विभिन्न क्षेत्रों में विजय पाने के लिये गये हैं।’’ श्री गुरुजी के देहावसान के बाद तो संघ प्रभावित क्षेत्रों का एक विशाल परिवार ही बना है। विभिन्न क्षेत्रों में गये राजदूत हो या सेनापति, वे संघ के हित का ध्यान रखेंगे। किन्तु संघ के हित का यानी किसके हित का? ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नामक एक संस्था का हित? नहीं, संघ की जो विचारधारा है, उसका हित। उस हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्र की अधिष्ठान की विजय, उस सिद्धान्त से उस क्षेत्र को प्रभावित करने का कार्य।
अधिष्ठान का महत्त्व
दत्तोपंत ठेंगडी की विशेषता यह है कि वे इस अधिष्ठान को भूले नहीं। गंगा गये गंगादास नहीं बने। पं. दीनदयाल जी उपाध्याय के बारे में ठेंगडी जी ने जो लिखा, वह शत-प्रतिशत उनके बारे में भी सही है। ठेंगडी जी लिखते हैं -‘‘राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले स्वयंसेवकों की ओर से संघ की जो अपेक्षाएं होती हैं, वे उन्होंने (दीनदयाल जी ने) शत-प्रतिशत पूर्ण की। अपने कार्य की रचना और विकास, संघ सिद्धान्तों के प्रकाश में किया। अपने क्षेत्र में जल्दी सफलता मिले, इस हेतु से उस क्षेत्र की गलत धारणाएं या गलत रीति-नीतियों का मोह उनको नहीं हुआ। संघ संस्कारों के अनुकूल रीति-नीति का सूत्रपात उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में किया। इस कारण तात्कालिक सफलता पाने में बाधा आयेगी, यह वे जानते थे, किन्तु वे यह भी जानते थे कि औरों ने गन्दे किये हुये कार्य क्षेत्र को स्वच्छ और परिष्कृत करने का दायित्व अपने ऊपर है, इस कारण, कार्य- सिद्धि में विलम्ब हुआ तो भी चलेंगा, यह उन्हे मान्य था।’’ ऐसा लगता है कि ठेंगडी जी, मानों, अपनी ही बात कह रहे हें। संघ के जो कार्यकर्ता भिन्न- भिन्न क्षेत्र में गये हैं और वहाँ पर कई वर्षोंं से काम कर रहे हैं, उन्हें उपरिलिखित संदर्भ में अपने-अपने कर्तृत्व का अन्त:परीक्षण करना चाहिये और मूल्यांकन करना चाहिये कि वे अपने मौलिक अधिष्ठान से कितने प्रामाणिक रहे हैं।
आधुनिक ऋषि
अपने भारत के इतिहास में ऋषि संस्था का उल्लेख आता है। ऋषि स्वयं के लिये कुछ भी नहीं चाहते थे, किन्तु समाज ठीक चले, सब सामाजिक व्यवस्थाएं ठीक चले, इसका भान रखते थे। मैं कहता हूँ कि दत्तोपंत भारत के प्राचीन ऋषि संस्था के आधुनिक प्रतिनिधि थे। ‘कार्यकर्ता’ के प्रस्तावना के अन्त में मैने लिखा था ‘‘मुझे यह सम्पूर्ण पुस्तक (कार्यकर्ता) एक उपनिषद की भाँति, प्रत्यक्ष अनुभूति से प्राप्त मौलिक ज्ञान से ओत-प्रोत लगती है। मानो राष्ट्र उपनिषद जैसी। हां उपनिषद। संघोपनिषद्।’’ और उपनिषद, ऋषि के द्वारा नहीं प्रकट होगी तो और किस के द्वारा।
(लेखक रा. स्व. संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख रहे हैं)
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