देशघातक स्वयंसेवी संगठनों का सच

देशघातक स्वयंसेवी संगठनों का सच

बलबीर पुंज

देशघातक स्वयंसेवी संगठनों का सच

देश में ऐसे कई भारतीय पासपोर्ट धारक हैं, जो हमारे समाज का हिस्सा तो हैं- किंतु प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से भारत-विरोधी शक्तियों की कठपुतली बनकर सामने आते हैं। कभी पर्यावरण, तो कभी मानवाधिकार आदि का मुखौटा पहनकर वे देश की वांछनीय विकास गति को कुंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे ही एक नकाब को सर्वोच्च न्यायालय ने नोचकर उसके ‘छिपे एजेंडे’ को उजागर किया है।

अदालत ने 14 दिसंबर को 12,000 करोड़ रुपये की लागत से बन रही 889 किलोमीटर लंबी चार धाम सड़क परियोजना को हरी झंडी दे दी। पांच वर्ष पहले इसका शिलान्यास हुआ था। सभी मौसम में उत्तराखंड के चार नगरों- बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री को जोड़ने वाला यह प्रकल्प देश की सामरिक जरूरतों को पूरा करने के साथ देश की सांस्कृतिक एकता को भी मजबूत करता है।आधी परियोजना पूरी हो चुकी है। जब मोदी सरकार ने चीन सीमा तक सड़कों को 10 मीटर चौड़ा करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय से स्वीकृति मांगी, तो स्वयंसेवी संगठन- ‘सिटीजन फॉर ग्रीन दून’ ने इसका विरोध करते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जाने के बाद शीर्ष अदालत पहुंचकर इसके विरुद्ध याचिका दाखिल कर दी। तब अदालत ने अपने द्वारा नियुक्त प्रो.रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट पर सितंबर 2020 को चार धाम परियोजना में तीन राजमार्गों की चौड़ाई 5.5 मीटर तक सीमित रखने का निर्णय दिया।

याची एनजीओ का तर्क था- ‘यह परियोजना पर्यावरण विरोधी है, इससे हिमालय पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। सेना को चौड़ी सड़कों की जरूरत नहीं। सड़कों का वास्तविक उद्देश्य केवल तीर्थयात्रा है।’ जब केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत को सीमा पार चीन द्वारा किए जा रहे प्रचुर निर्माण-कार्यों का सीलबंद लिफाफा दिया, तब न्यायालय ने अपने पुराने निर्णय में संशोधन करते हुए चार धाम परियोजना में सड़क चौड़ीकरण को स्वीकृति दी और कहा- “हम परियोजना की न्यायिक समीक्षा में सशस्त्रबलों की आधारभूत आवश्यकता का अनुमान नहीं लगा सकते। हाल के समय में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं।”

साम्यवादी चीन की कुटिलता सर्वविदित है। वर्ष 1962 के युद्ध में भारत को चीन के हाथों मिली शर्मनाक पराजय का एक बड़ा कारण तत्कालीन राजनीतिक इच्छाशक्ति, साहस और दूरदर्शिता की कमी के साथ सीमा पर आधारभूत संरचना का नितांत अभाव भी था, जिसे दशकों तक नहीं सुधारा गया। वर्ष 2013 में, संप्रगकाल में रक्षा मंत्री रहे ए.के. एंटनी ने संसद में कहा था- “स्वतंत्र भारत की कई वर्षों से नीति थी कि सीमा का विकास नहीं करना सबसे अच्छा बचाव है… विकसित सीमा से अधिक सुरक्षित अविकसित सीमा है। इस कारण भारत, सीमा पर आधारभूत ढांचे आदि मामले में चीन से पिछड़ता गया।” वर्ष 2014 के बाद इसमें व्यापक सुधार हुआ है, जो साम्राज्यवादी चीन की डोकलाम-गलवान घाटी प्रकरण में बौखलाहट और भारत की कूटनीतिक विजय से स्पष्ट है। मोदी सरकार ने चीन सीमा पर और पांच बड़ी सड़क परियोजनाओं को शुरू किया है।

यह कोई पहला मामला नहीं है, जब देश में राष्ट्रहित परियोजनाओं को पर्यावरण-मानवाधिकार मुखौटाधारियों द्वारा बाधित करने का प्रयास हुआ है। इसकी एक लंबी सूची है। देश की परमाणु ऊर्जा क्षमता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भारत-रूस का संयुक्त उद्यम- कुडनकुलम परमाणु संयंत्र (तमिलनाडु) के साथ भी वर्षों तक यही हुआ था। तब इसके खिलाफ अमेरिकी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों के साथ चर्च के बिशपों और कार्डिनलों की भूमिका भी खुलकर सामने आई थी। इस पर वर्ष 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने कहा था- “कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशी वित्त सहायता पाने वाले स्वयंसेवी संगठनों (NGO) का हाथ है।”

वास्तव में, चारधाम परियोजना, कुडनकुलम या फिर महाराष्ट्र स्थित जैतापुरा विद्युत संयंत्र आदि का पर्यावरण के नाम पर विरोध करने वाले अधिकांश लोग और संगठन वस्तुतः भारत के विकास को बाधित करने वाली देशविरोधी अंतरराष्ट्रीय शक्तियों द्वारा वित्तपोषित हैं। इसी प्रकार ढाई दशक तक ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के नाम पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को अधर में लटकाने का प्रयास किया गया था। यह घटनाक्रम उस दुखद पहलू को भी रेखांकित करता है, जिससे हमें जानकारी मिलती है कि आखिर क्यों भारत, जिसका प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 1985 में चीन के बराबर 293 डॉलर था- वह कैसे चीन से पिछड़ गया?

यांगत्जी नदी पर चीनी बांध बनने से 13 नगर, 140 कस्बे, 1,350 गांव डूब गए, तो 13 लाख लोग विस्थापित हो गए और इस बांध को पूरा करने में चीन को केवल दशकभर लगा। इसके विपरीत नर्मदा नदी पर बना सरदार सरोवर बांध, जिससे चीनी बांध की तुलना में मात्र 178 गांव प्रभावित और बहुत ही कम लोग विस्थापित हुए- उसे पूरा करने में भारत को 56 वर्ष लग गए। इस बांध की नींव 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी। वर्ष 1985 में विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषण की सहमति के बाद जैसे ही नर्मदा बांध का निर्माण-कार्य प्रारंभ हुआ, मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (एनबीए) ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। 1995 में एनबीए ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया और इस पर चार वर्षों तक अदालती रोक लगी रही। इस सुनियोजित बांध विरोधी आंदोलन पर कई फिल्में भी बनी, जिसमें ‘ए नर्मदा डायरी’ को 1996 में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र के लिए प्रतिष्ठित फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला। वर्ष 1999 में एनबीए की संचालक मेधा पाटकर को ‘पर्सन ऑफ द ईयर बीबीसी’ सहित कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले, तो इस आंदोलन को भारत-हिंदू विरोधी अरुंधति रॉय के साथ फिल्म अभिनेता आमिर खान आदि का समर्थन प्राप्त हुआ। इस तरह स्वयंभू पर्यावरणविदों-उदारवादियों की अड़चनों, अदालती चक्करों और अन्य अवरोधकों को पार करके नर्मदा बांध 2017 में पूरी क्षमता के साथ शुरू हुआ- जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया।

सरदार सरोवर बांध विरोधी आंदोलन का नाम ‘नर्मदा बचाओ’ था। क्या बांध पूरा होने के बाद मां नर्मदा समाप्त हो गई? सच तो यह है कि इस परियोजना के कारण नर्मदा नदी वह काम कर रही है, जिससे प्रत्येक मां गौरव और संतोष का अनुभव कर सकती हैं। इस बांध से मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में बिजली के अतिरिक्त 9,490 गुजराती गांवों को स्वच्छ पेयजल मिल रहा है। 3,112 गुजराती गांवों में 18 लाख हेक्टेयर से अधिक, राजस्थान के बाड़मेर-जालौर में 2.46 लाख हेक्टेयर और महाराष्ट्र में आदिवादी क्षेत्र के 37,500 हेक्टर भूखंड को सिंचाई हेतु पानी प्राप्त हो रहा है। इस प्रकार की एक लंबी सूची है।

चारधाम परियोजना पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा था- क्या संवैधानिक अदालत देश की रक्षा हेतु सैन्य आवश्यकताओं की अवहेलना करके यह कह सकती है कि पर्यावरण की सुरक्षा, रक्षा जरूरतों पर भारी है? इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि एक शत्रु है, जिसने सीमा तक बुनियादी ढांचा विकसित कर लिया है और सेना को सीमा तक बेहतर सड़कों की जरूरत है, जहां 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से कोई व्यापक परिवर्तन नहीं हुआ है। इस पृष्ठभूमि में प्रश्न उठता है कि चीन से सटी सीमा पर पर्यावरण के नाम पर सड़क परियोजना रुकवाकर वह स्वयंसेवी संगठन- आखिर किसे लाभ पहुंचाने का प्रयास कर रहा था?

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