हाँ, देश में असहिष्णुता बढ़ रही है
बलबीर पुंज
विगत दिनों फिर से तथाकथित पर्यावरणविदों का राग, तो स्वयंभू उदारवादियों का असहिष्णु अलाप सुनने को मिला। दमघोंटू वायु-प्रदूषण वास्तविकता है, जिससे निपटना भविष्य की मांग है। ऐसे में जब कई राज्यों में सरकारी निवेदनों और सशर्त अदालती प्रतिबंधों के बाद भी लोगों ने दीपावली (4 नवंबर) पर जमकर आतिशबाजी की, जिससे पहले से व्याप्त प्रदूषण का स्तर बढ़ गया- तो बहुत से सुधी नागरिक इस पर आक्रोशित हो गए। यह ठीक है कि कुछ देशों के नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति भारतीयों की तुलना में अधिक सजग है। किंतु क्या दीपावली के समय संवैधानिक संस्थाओं के आदेशों की अवहेलना का एकमात्र कारण भारतीयों में समाज, पर्यावरण और देश के प्रति संवेदनशीलता का गहरा आभाव होना है या समस्या की जड़ कुछ और है?
उपरोक्त प्रश्न का उत्तर- हालिया घटनाक्रम और उस पर आ रही प्रतिक्रियाओं में मिल जाता है। बीते माह कई कंपनियों के ऐसे विज्ञापन आए, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंदुओं के परंपराओं-पर्वों को कलंकित करते हुए दिखाया गया। जहां फैब इंडिया ने दीपावली पर विशेष परिधानों के संग्रह को बेचने हेतु इस्लामी संज्ञा का उपयोग किया, तो डाबर ने अपने उत्पाद के प्रचार हेतु एक विज्ञापन में समलैंगिक जोड़े को करवा चौथ त्योहार मनाते हुए दिखाया। फैशन डिजाइनर सब्यसाची ने हिंदुओं के लिए पवित्र मंगलसूत्र को बेचने हेतु एक अधोवस्त्र पहनी महिला का विज्ञापन निकाला। यही नहीं, मान्यवर के एक विज्ञापन में अभिनेत्री आलिया भट्ट हिंदू प्रथा कन्यादान पर सवाल उठाती दिखीं, तो अभिनेता आमिर खान सीएट टायर के विज्ञापन में दीवाली में सड़क पर पटाखे नहीं फोड़ने का उपदेश देते नजर आए। जब यह सभी विज्ञापन प्रसारित हुए, तब इससे करोड़ों हिंदुओं की भावना आहत हुई और सोशल मीडिया पर इनके बहिष्कार का आह्वान करके विरोध जता दिया। इसके बाद कई कंपनियों (डाबर, फैब इंडिया सहित) ने अपना विज्ञापन वापस लेकर हिंदुओं से माफी मांगी। अब क्योंकि विवादित विज्ञापनों के खिलाफ बहुसंख्यक समाज की प्रतिक्रिया- स्वघोषित उदारवादियों (वामपंथी और कथित सेकुलरवादी सहित), जिहादी मानस बंधुओं और मोदी विरोधियों द्वारा स्थापित नैरेटिव के अनुकूल है, जिससे हिंदू समाज का दानवीकरण किया जा सके- इसलिए इस विकृत समूह ने असहिष्णुता का राग अलापना प्रारंभ कर दिया।
इसी बीच शीर्ष अदालत के न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने एक नवंबर को दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में डाबर प्रकरण पर कहा, ‘हाल ही में एक कंपनी को करवा चौथ का विज्ञापन हटाना पड़ा। समलैंगिकों के करवा चौथ मनाने का विज्ञापन था, लेकिन जनता की असहिष्णुता के कारण उस विज्ञापन को हटाना पड़ गया।’ क्या यह सत्य नहीं वर्षों पहले सलमान रुश्दी की ‘सैटेनिक वर्सेस’ और तस्लीमा नसरीन द्वारा लिखित ‘लज्जा-द्विखंडिता’ पुस्तक को भी मुस्लिम समाज के विरोध के पश्चात तत्कालीन सरकारों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था? क्या इसे असहिष्णुता का पर्याय कहा जाएगा?
विडंबना है कि अपनी सनातन संस्कृति-परंपरा-आस्था की रक्षा हेतु हिंदू समाज के शांतिपूर्ण विरोध को विकृत कुनबे द्वारा असहिष्णुता के चश्मे से देखा जा रहा है। किंतु 1989-91 में घाटी में जिहादी दंश का शिकार हुए कश्मीरी पंडितों के मामले में उनकी यह दिव्य-दृष्टि आज तक नहीं खुल पाई है। इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार “काफिर-कुफ्र” प्रेरित दर्शन को यह वर्ग गरीबी, निरक्षरता, क्षेत्रीय विषमता, बेरोजगारी आदि कुतर्कों का कवर-फायर देकर हजारों हिंदुओं की हत्या, उनकी महिलाओं से बलात्कार, मंदिर विध्वंस और इससे विवश होकर पांच लाख कश्मीरी पंडितों के पलायन को ठंडे बस्ते में डालने का प्रयास करता है।
सबसे रोचक बात तो यह है कि हमारे देश की अदालतें, जो 32 वर्ष पुराने कश्मीरी पंडितों के हत्याकांड-बलात्कार आदि मामले को साक्ष्यों की अनुपलब्धता के कारण सुनवाई योग्य नहीं मानतीं, वहां अंतरराष्ट्रीय मीटू अभियान के अंतर्गत प्रिया रमानी द्वारा बताए 28 वर्ष पुराने प्रसंग पर पूर्व केंद्रीय मंत्री एम.जे. अकबर के खिलाफ मुकदमा चलता है। तब अकबर की ओर से प्रिया के खिलाफ दाखिल मानहानि के मामले को एक अदालत ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि महिला को दशकों के बाद भी अपनी शिकायत रखने का अधिकार है। यदि ऐसा है, तो कश्मीर पंडितों के मामले में दोहरा मापदंड क्यों?
राजधानी दिल्ली के मॉडल टाउन में कुछ दिन पहले शाहनवाज नामक मुस्लिम युवक ने अपने जीजा देवा को इसलिए गोली मार दी, क्योंकि वह हिंदू था और उस “काफिर” ने उसकी बहन से प्रेम-विवाह करने का अपराध किया था। यह कोई पहला मामला नहीं है। इस प्रकार के ढेरों मामले सामने आ चुके हैं। इसी वर्ष मार्च में दिल्ली के ही सराय काले खां में अनुसूचित जाति के युवक से मुसलमान लड़की की शादी करने पर उन्मादी मुस्लिम भीड़ ने हिंदुओं के घरों और वाहनों में जमकर की तोड़फोड़ की थी। यदि वाम-उदारवादी-जिहादी सेकुलर कुनबे के लिए हिंदू समाज द्वारा अपनी बहन-बेटियों की मुस्लिम से प्रेम/विवाह का विरोध असहिष्णुता का प्रतीक है, तो विपरीत स्थिति- अर्थात्, मुस्लिम परिजनों द्वारा अपनी बहन-बेटियों की गैर-मुस्लिम युवक से प्रेम/निकाह करने पर हिंसा (हत्या सहित) करना- असहिष्णुता का पर्याय क्यों नहीं है?
जिस जमात को हिंदू-विरोधी विज्ञापनों पर बहुसंख्यक समाज के एक वर्ग द्वारा उठाई आपत्तियों में असहिष्णुता की भावना दिख रही है, उनके लिए दिल्ली-हरियाणा सीमा पर निहंगों द्वारा बेअदबी करने के आरोपी अनुसूचित जाति समाज के युवक की नृशंस हत्या, घाटी में जिहादियों द्वारा पहचान-पत्र देखकर हिंदू-सिखों को मारना, अक्टूबर 2019 में इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा कमलेश तिवारी को मौत के घाट उतारना, 2020 में महाराष्ट्र के पालघर में भीड़ द्वारा दो साधुओं को पीट-पीटकर जान से मारना और बांग्लादेश में दुर्गापूजा के समय जिहादियों द्वारा अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हमला करना- असहिष्णुता का विषय नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह मामले उनके द्वारा परिभाषित हिंदू-विरोधी नैरेटिव के उपयुक्त नहीं है।
इस पृष्ठभूमि में देश में करोड़ों बहुसंख्यक समझने लगे हैं कि “चयनात्मक रूप” से उनके तीज-त्योहारों-परंपराओं को कभी पर्यावरण के साथ, तो कभी सामाजिक, मानवीय, तो कभी आर्थिक सरोकारों से जोड़ा जा रहा है। संदेह करने के पर्याप्त कारण भी हैं कि केवल हिंदुओं के पर्वों को कलंकित करने हेतु प्रायोजित षड्यंत्र रचा जा रहा है। बकरीद पर पूरी दुनिया में करोड़ों जीव (बकरे, ऊंट, गोवंश सहित) निर्ममता के साथ मार दिए जाते हैं। वैज्ञानिक शोध से स्पष्ट है कि यदि दुनियाभर में गोमांस का सेवन बंद हो जाए, तो कार्बन उत्सर्जन में काफी कमी आएगी। क्या इस संबंध में अदालत या किसी स्वघोषित पर्यावरणविद् ने कोई ठोस पहल की? होली पर पानी रूपी प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी का नारा बुलंद करने वाले क्रिसमस पर घरों, दुकानों, मॉलों को सजाने हेतु करोड़ों यूनिट बिजली फूंकने पर चुप रहते हैं। परंपरा के नाम पर क्रिसमस के दिन दुनियाभर में करोड़ों- अकेले अमेरिका में ही 30 करोड़ टर्की पक्षी मार दिए जाते हैं। किंतु दीपावली पर पटाखों के शोर से पशु-पक्षियों के अधिकारों पर चिंता व्यक्त करने वाले कथित पशु-अधिकारवादी टर्की विषय में मौन रहते हैं। सच तो यह है कि भारतीय समाज का बहुत बड़ा वर्ग अब अपने अधिकारों और उन पर हो रहे योजनाबद्ध “प्रहारों” को लेकर सतर्क हो चुका है। जब तक दोहरे मापदंड अपनाए जाएंगे, तब तक इन विषयों पर जनता का आक्रोश बना रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)