धर्म के चार खंभे हैं, सत्य, करुणा, अंतर्बाह्य शुचिता और तपस्या- डॉ. मोहन भागवत
धर्म के चार खंभे हैं, सत्य, करुणा, अंतर्बाह्य शुचिता और तपस्या- डॉ. मोहन भागवत
कर्णावती। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि यह जो सामाजिक विषमता की बात है, जो हम गत 2,000 वर्षों तक गलती करते आए, अधर्म को ही धर्म समझते आए उसका परिणाम है। धर्म में तो कहीं ऊंची-नीच नहीं बताई गई है। धर्म के तो चार ही खंभे हैं। सत्य है, करुणा है, अंतर्बाह्य शुचिता है और ये सब प्राप्त करने के लिए तपस्या है। मन के अहं भाव के कारण विषमता है। कुल का अभिमान, धन का अभिमान, रूप का अभिमान, बाकी लोगों को हेय मानने को मजबूर करता है।
समरसता भाषण का काम नहीं है, जीने का काम है। गलत जीने की आदत बदलकर हम सही तरीके से जीना सीख लेंगे तो अपने आप समरसता उत्पन्न हो जाएगी। यह कैसे करना, प्रमुख स्वामी महाराज जैसे पहुंचे हुए संत उसको करते हैं।
सरसंघचालक डॉ. भागवत ने बीएपीएस स्वामी नारायण संप्रदाय के प्रमुख स्वामी महाराज के शताब्दी महोत्सव के निमित्त 600 एकड़ से अधिक क्षेत्र में स्थापित प्रमुख स्वामी महाराज नगर में ये विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि उपदेश देने के बजाय लोगों को अपने रोजमर्रा के जीवन में इसे व्यवहार में लाना चाहिए, जैसा कि प्रमुख स्वामी महाराज ने किया था।
21 दिसंबर, 2022 को कर्णावती में आयोजित कार्यक्रम का विषय “सामाजिक समरसता” था। सरसंघचालक ने कहा कि यहां जो समारोह हो रहा है, तीन शब्दों में उसका सटीक वर्णन आता है। और केवल अद्भुत, अलौकिक, अविस्मरणीय इतना ही नहीं, जिनकी शताब्दी के निमित्त यह हो रहा है, इस समारोह के द्वारा उनका पूर्ण दर्शन सबको साक्षात होता है। यहाँ आकर प्रमुख स्वामी महाराज का हम सब के लिए क्या सन्देश है, ये समझ पाएं।
उन्होंने कहा कि धर्म में यह अवधारणा नहीं होती है कि कौन श्रेष्ठ है और कौन तुच्छ। सामाजिक असमानता धर्म का परिणाम नहीं है। धार्मिक ग्रंथ भी इस अवधारणा का समर्थन नहीं करते हैं। हमारे संतों ने भी यह बात कही है। हमें संतों का अनुसरण करने की आवश्यकता है। हमें अपनी झूठी शान, झूठे अभिमान से निपटने की आवश्यकता है क्योंकि ये अवगुण हमें अपनी आदतें बदलने से रोकते हैं। यहीं पर संतों का मार्गदर्शन महत्वपूर्ण हो जाता है। प्रमुख स्वामी महाराज एक महान संत थे। उन्होंने समाज की भलाई के लिए काम किया। वह लोगों को सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करते थे। सबको अपना मानकर चलने का, सबकी सेवा करने का, अपना जीवन लेने में न लगाते हुए..पुरुषार्थ से जितना आता है, वो बाँट देने के आदर्श का जितना हम अनुसरण करेंगे, उतना नित्य जीवन में उनके लाभ को हम पाते रहेंगे और शताब्दी समारोह को हम सब मिलकर सार्थक करेंगे।
सामाजिक समरसता को व्यवहार में लाना ही वर्तमान धर्म हैं। संतों और सामाजिक व्यक्तियों के जीवन आचरण से हमें सीखना चाहिए।
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