शुभम वैष्णव

आखिरकार पड़ोसी तो पड़ोसी ही होता है। वह एक अच्छा मददगार भी होता है तो कभी कभी अशांति फैलाने वाला भी। लेकिन हमारे पड़ोसी की हरकतें तो दुश्मनों जैसी ज्यादा हैं।

हम रोटी भले ही अपने अनाज की खाते हैं परंतु भौतिक संसाधनों जैसे मोबाइल, टीवी, खिलौने, त्योहारों के सामान सब अपने पड़ोसी की दुकान से ही खरीदते हैं। वैसे भी हमें ज्ञात है कि हमारा पड़ोसी हमें सस्ता और घटिया माल देता है, इसी आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह एक चतुर और धूर्त व्यापारी है। वैसे गलती हमारी ही है क्योंकि हम आत्मनिर्भर बनने के बजाय अपने उसी पड़ोसी पर निर्भर हैं। यह हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। स्वाभिमान को दरकिनार कर हम सस्ते की खोज में उसी पड़ोसी के पास चले जाते हैं। इस पर वह हमारे ही घर में अशांति फैलाता है। पहले भी हमारी कुछ जमीन पर कब्जा कर लेने वाले दुष्ट पड़ोसी की कुदृष्टि आज भी हमारी जमीन पर ही टिकी हुई है। यह कैसी विडंबना है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी हम सामान लेने पड़ोसी दुश्मन के घर ही जाते हैं। आज हम पड़ोसी तो नहीं बदल सकते, परंतु उसे सबक तो सिखा ही सकते हैं, उसके सामानों का बहिष्कार करके। अब समय आ गया है कि इस रिश्ते को नए सिरे से परिभाषित किया जाए।

चीन से दोस्ती का टूटे भरम,

आत्मनिर्भर भारत बनाना है हमारा धरम।

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