नवम गुरु तेगबहादुर : शीश दिया पर धर्म पर आंच नहीं आने दी

नवम गुरु तेगबहादुर : शीश दिया पर धर्म पर आंच नहीं आने दी

नवम गुरु तेगबहादुर : शीश दिया पर धर्म पर आंच नहीं आने दी

स्वयं को दुनिया का बादशाह कहने वाला ‘आलमगीर’ औरंगजेब स्तब्ध था। नवम गुरु तेगबहादुर के असाधारण दिव्य तेज के सम्मुख उसका सारा वैभव, समस्त सैन्यबल, उसकी क्रूरता और तथाकथित मजहबी ताकत परास्त हो चुके थे।

“यदि गुरु तेगबहादुर इस्लाम स्वीकार लें तो राज्य के सारे हिंदू इस्लाम अपना लेंगे।”- शर्त तो यही थी। क्या-क्या नहीं किया औरंगजेब ने इस शर्त को जीतने के लिए!

परम् वैभवशाली सिख परंपरा के मानबिंदु गुरु तेगबहादुर को लोहे के पिंजरे में बंद कर दिल्ली तक लाया गया। औरंगजेब ने सोचा था कि इस अपमान से वह झुक जाएंगे किंतु गुरु तेगबहादुर तो पिंजरे में शांतचित्त बैठे वनराज सिंह की भांति सुशोभित हो रहे थे! उनके तीन शिष्य- भाई मतिदास, भाई सतीदास और भाई दयाला भी उनके साथ ही थे। औरंगजेब ने इन सबके आगे अपार दौलत का प्रस्ताव रखा। नहीं मानने पर  मृत्यु का भय दिखाया। इस्लाम कुबूल करवाने का हर प्रयत्न उसने कर डाला।

सबसे पहले भाई मतिदास को दो खंभों से बांधकर आरे से दो भागों में चिरवाया। जब आरा सिर में अंगुल भर धँस गया और रक्त की धारा धरती पर बह निकली तब काजी ने पूछा था- “अब भी इस्लाम कुबूल कर लो। तेरे घाव ठीक कर देंगे। तुझे दरबार में ऊँचा पद मिलेगा और तेरी पाँच शादियाँ करवा देंगे।” भाई मतिदास ने हँसकर पूछा था- “क्या इस्लाम कुबूल कर लूँ तो कभी मरूंगा नहीं? क्या तेरी मृत्यु नहीं होगी काजी? जब मृत्यु आनी ही है तो अपने धर्म के लिए मरने से अधिक प्रिय मुझे कुछ नहीं।” इस उत्तर पर उन्हें जीवित रहते दो भागों में चीर डाला गया। इसके बाद भाई सतीदास को रुई में लपेटकर जीवित ही जला दिया गया। भाई दयाल को खौलते देग में उबाल दिया किंतु इन मरणांतक पीड़ाओं के भय से एक ने भी अपना धर्म नहीं छोड़ा।

औरंगजेब फिर गुरु तेगबहादुर की ओर मुड़ा। लेकिन जब शिष्यों के ही आगे उसकी दाल न गली तो उनके महान गुरु के सामने उसकी कैसे चलती!
‘श्री गुरु प्रताप सूरज’ में इस दृश्य का यह लोमहर्षक विवरण इस प्रकार है-

तिन ते सुनि श्री तेगबहादुर। धरम निवाहनि बिखै बहादुर।
उत्तर भन्यो, धरम हम हिन्दू। अति प्रिय को किम करहिं निकन्दू।
लोक परलोक उभय सुखदानी। आन न पाइया याहि समानी।
मति मलीन मूरख मति जोई। इसको त्यागे पामर सोई।
सुमतिवंत हम कहु क्यों त्यागहिं। धरम राखिवे नित अनुरागहिं।
त्रितीए प्रान हाव की बात। सो हम सहै, अपने गात।
हिन्दू धरम रखहिं जग मांही। तुमरे करे बिनस यह नांही।

भावार्थ- औरंगजेब की बात सुनकर श्री गुरु तेगबहादुर जी ने उत्तर दिया- “हम सनातन धर्म को मानने वाले हैं। हम अपने अत्यन्त प्रिय सनातन धर्म को कैसे छोड़ सकते हैं? यह लोक और परलोक दोनों में सुख देने वाला है। हम अन्य किसी को इसके जैसा नहीं पाते हैं। जो मूर्ख है वही इसके त्यागने की बात सोच सकता है, वह पापी है। हम सुमतिवान इस धर्म को क्यों त्यागे? हमारा अपने धर्म की रक्षा में नित्य अनुराग है। प्राण देने की जो तुमने तीसरी बात कही है, वह हमें स्वीकार है। अपनी आहुति देकर हम हिन्दू धर्म की रक्षा कर लेंगे। इसे नष्ट करना तुम्हारे बस की बात नहीं है।”

गुरु तेगबहादुर के इस उत्तर में उस सनातन भारत की गूंज थी जो सदियों से आक्रमणकारियों के सामने अडिग खड़ा था। विधर्मियों ने इस देश की भूमि को पदाक्रांत अवश्य किया था किंतु वे इसकी आत्मा को कभी झुका नहीं पाए थे।

गुरु तेगबहादुर की अटल आस्था एवं धर्मनिष्ठा से बौखलाए औरँगजेब ने उनका शीश कटवा दिया। इस प्रकार गुरु तेग बहादुर अपनी देह त्यागकर परम् ज्योति में विलीन हो गए।

वास्तव में औरंगजेब पहले भी गुरु तेगबहादुर की नीतिनिपुणता के सामने हार चुका था। जयपुर नरेश मिर्जा राजा रामसिंह प्रथम ने छत्रपति शिवाजी महाराज को आगरा से निकलने में सहायता की थी। जयपुर घराने की शक्ति को देखते हुए औरंगजेब सीधे तो उनपर वार नहीं कर सकता था किंतु हिंदू को हिंदू से भिड़ाकर खत्म करने की मंशा से उसने राजा रामसिंह को असम सम्राट चक्रध्वज पर आक्रमण करने के लिए भेजा। गुरु तेगबहादुर ने औरंगजेब की मंशा भांपकर इन दोनों के मध्य संधि करवा दी थी।

इससे पूर्व भी औरंगजेब नैतिक रूप से हारता ही रहा था जब वह एक-एक कर मंदिर ध्वस्त कर रहा था, सहस्रों को मार रहा था और तब समाज के हित में गुरु तेगबहादुर गुरुसर व मूलोवाल का कुआं इत्यादि जलाशयों को पुनर्जीवित करते हुए लाखों लोगों को जीवन दे रहे थे।

अस्तु। गुरु की पवित्र देह का अंत हुआ। सिखों द्वारा उनके शीश को निकाल लाया गया। जहाँ उनके सुपुत्र व दशम गुरु श्री गुरु गोविंदसिंह जी ने उनका अंतिम संस्कार किया। आज उक्त स्थान पर गुरुद्वारा शीशगंज साहिब स्थापित है। उनके धड़ को लाखा बंजारा रात के अंधेरे में ले आया व अंतिम संस्कार के निमित्त अपने घर समवेत सर्वस्व अग्नि को सौंप दिया। इस पवित्र भूमि पर गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब खड़ा है।

छठे गुरु श्री गुरु हरगोविंद सिंह जी तथा माता नानकी के पंचम पुत्र के रूप में संवत् १६७८ अर्थात् सन 1621 में गुरु तेगबहादुर ने जन्म लिया था। नवम गुरु के रूप में उन्होंने समस्त मानवता को आलोकित किया। यह उनका 400 वां प्रकाश वर्ष है। हम गुरु तेगबहादुर का पुण्यस्मरण करें, साथ ही उनके पदचिह्नों का अनुसरण करें।

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