नारायण भाउराव दाभाड़कर : संघ स्वयंसेवक की समर्पण भावना का अत्युच्च बिन्दु
प्रशांत पोळ
नागपुर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गंगोत्री है। संघ का प्रारंभ ही नागपुर से हुआ है। ऐसे नागपुर में, वर्धा रोड पर, सावित्री विहार अपार्टमेंट है। यह नारायण भाउराव दाभाड़कर जी का निवास है। नारायण राव बचपन से संघ के स्वयंसेवक, बच्चों में अति प्रिय, हमेशा उनके जेब में चॉकलेट, टॉफियां, पानी की बोतल रहती थी। बच्चे दिखे, तो उन्हें कुछ ना कुछ देना, उनसे गपशप करना यह उनका स्वभाव था। आस पड़ोस में वे ‘चॉकलेट काका’ नाम से जाने जाते थे। किसी की मदद के लिए दौड़ पड़ना, उनके खून में था।
नारायण राव की आयु 85 वर्ष। अभी कोरोना काल में, अन्य स्वयंसेवकों की भांति, सारी सावधानियां लेकर, वे सेवाकार्य में सक्रिय थे। दुर्भाग्य से उन्हें कोरोना ने जकड़ लिया। नागपुर में बेड मिलने की मारामारी थी। किसी भी अस्पताल में ऑक्सीजन युक्त पलंग उपलब्ध नहीं था। उनकी बेटी आसावरी कोठीवान जो भाजपा की सक्रिय कार्यकर्ता हैं, स्वयं भी कोरोना से संक्रमित थीं। घर में उनके ससुर भी संक्रमित थे। आखिर बहुत प्रयास करने के बाद, नारायण राव को एक अस्पताल में ऑक्सीजन युक्त बेड उपलब्ध हुआ। आसावरी ताई के दामाद ने उन्हें अस्पताल में भर्ती किया। तब तक नारायण राव का ऑक्सीजन लेवल 60 तक गिर गया था। स्थिति गंभीर थी। किन्तु उस वृद्ध शरीर के अंदर स्वयंसेवक का हृदय था। एम्बुलेंस से उतरकर, चलते हुए वे अस्पताल गए। दामाद ने भर्ती प्रक्रिया पूर्ण की। नारायण राव को बेड मिल गया। उपचार प्रारंभ हुआ। ऑक्सीजन ठीक होने लगा।
तभी नारायण राव की नजर, उसी हॉल में आए एक युवा दम्पत्ति पर पड़ी। पति कोई 40 वर्ष का था। वह कोरोना संक्रमित था। उसको सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। पत्नी कोरोना संक्रमण का खतरा उठाकर उसके साथ आई थी। वह अपने पति के लिए एक बेड की मांग करते हुए गिड़गिड़ा रही थी, रो रही थी।
नारायण राव ने यह देखा, तो उनके अंदर का स्वयंसेवक जग गया। इन चॉकलेट काका ने डॉक्टर को बुलाया और कहा, “देखो, मेरा बेड उस युवक को दे दीजिये। मैं 85 वर्ष का हूं। मैंने अपना जीवन पूर्णतः जी लिया है। इस जीवन से मैं समाधानी हूं। तृप्त हूं। किन्तु, उस युवक का बचना बहुत आवश्यक है। उसके सामने सारा जीवन पड़ा है। उसके छोटे – छोटे बच्चे हैं। उस पर परिवार का दायित्व है। यह ऑक्सीजन वाला बेड उसे दे दीजिये।”
डॉक्टर ने समझाने का खूब प्रयास किया। उन्होंने कहा, “आप पर चल रहे उपचार आवश्यक हैं। आप ठीक नहीं हुए हैं। आपका ऑक्सीजन लेवल नॉर्मल नहीं है। फिर आगे बेड मिलेगा या नहीं, नहीं मालूम”।
किन्तु नारायण राव अडिग थे। उनका निश्चय हो चुका था। उन्होंने अपनी बेटी को फोन किया। सारा समझाया। कहा, “मैं घर आ रहा हूं। यही उचित है।” वो बेटी, जिसने अपने पिता को एक बेड दिलाने के लिए आसमान सर पर उठा लिया था, वो भी आखिर उन्हीं की बेटी थी। उन्हीं के संस्कारों में पली-बढ़ी थी। उसने पिता की भावनाओं को समझा। डॉक्टर को कंसेंट लिख कर दिया कि ‘हम अपनी मर्जी से बेड छोड़ रहे हैं’। दामाद उनको लेकर घर आया।
नारायण राव के शरीर ने अगले दो दिन साथ दिया। किन्तु आखिर तीसरे दिन नारायण राव को शरीर त्यागना पड़ा। एक सच्चे स्वयंसेवक की इहलीला समाप्त हुई।
कल स्वर्गस्थ हुए पद्मभूषण राजन मिश्र ने अपने भाई साजन मिश्र के साथ एक सुंदर भजन गाया है –
‘धन्य भाग सेवा का अवसर पाया…
चरण कमल की धूल बना मैं, मोक्ष द्वार तक आया…
संघ स्वयंसेवक की समर्पण भावना का अत्युच्च बिन्दु, सेवा की पराकाष्ठा है, नारायण दाभाड़कर जी का आत्मार्पर्ण..!
विनम्र श्रद्धांजलि।