देश विदेश में बैठे कुछ लोग निजी स्वार्थ हेतु देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को पाकिस्तान व चीन की भांति चुनौती दे रहे
बलबीर पुंज
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस, तृणमूल सहित कई स्वघोषित सेकुलरिस्ट अपने प्रचार में पुन: “लोकतंत्र-संविधान खतरे में है” जैसे जुमलों का उपयोग करके सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। इस बार इन दलों ने इसके लिए उन विदेशी संगठनों की रिपोर्ट को आधार बनाया है, जिसमें भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप के तथाकथित रूप से क्षीण होने और देश में निरंकुशता बढ़ने की बात कही गई है। इन्हीं संगठनों में से एक “फ्रीडम हाउस”, तो दूसरा “वी-डैम” है। यह निर्विवाद सत्य है कि हमारा देश 800 वर्षों के परतंत्र कालखंड के बाद स्वयं को उभारने हेतु प्रयासरत है और इस दिशा में ऐतिहासिक भूलों को सुधारते हुए अभी बहुत कुछ करना शेष है। हाल के वर्षों में भारत में हो रहे सकारात्मक परिवर्तन को शेष विश्व अनुभव भी कर रहा है। स्वदेशी कोविड-19 टीका संबंधी भारत का “वैक्सीन मैत्री अभियान”- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
एक अकाट्य सत्य यह भी है कि भारत अपनी सांस्कृतिक पहचान के कारण हजारों वर्षों से पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक बना हुआ है। वह ऐसा केवल भारतीय संविधान में “सेकुलर” शब्द जोड़ने या अन्य किसी प्रावधान के कारण नहीं है – क्योंकि यदि ऐसा होता, तो देश का “सेकुलर” संविधान इस्लामी चरित्र वाली घाटी में कश्मीरी पंडितों को जिहाद की खुराक बनने से बचा लेता। किंतु ऐसा हुआ नहीं। सच तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में खंडित भारत का हिंदू चरित्र ही इस भूखंड के लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्षी होने की एकमात्र गारंटी है। इन संस्थाओं ने अपनी भारत विरोधी रिपोर्ट तैयार करने हेतु नागरिक संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) और विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ.सी.आर.ए.) संशोधन कानून को आधार बनाया है। ज्ञात रहे कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े यह कानून न केवल संसद से पारित हुए हैं, अपितु इस प्रकार के अन्य घोषणाएं सत्तारुढ़ भाजपा के घोषणापत्र का हिस्सा भी हैं, जिसे पूरा करने हेतु देश की जनता ने उसे दो बार लगातार प्रचंड बहुमत देकर विजयी भी बनाया है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर संदेह जताकर देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लांछित करने वाले क्यों भूल जाते हैं कि वर्ष 2014 के बाद भाजपा को दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि कुछ विधानसभा चुनावों में स्पष्ट जनादेश नहीं मिला था।
ऐसे में जो विदेशी संगठन प्रजातंत्र पर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को प्रवचन दे रहे हैं, आखिर उनकी वास्तविकता क्या है? भारत को “आंशिक रूप से स्वतंत्र” बताने वाला “फ्रीडम हाउस” अमेरिका में 1941 से सक्रिय है, जिसका वित्तपोषण वहां की सरकार द्वारा होता है। वर्ष 2017-18 में इस संगठन के कुल राजस्व में अमेरिकी सरकार का हिस्सा 90 प्रतिशत था। ईसाई बहुल अमेरिका की राजनीति में चर्च का हस्तक्षेप कितना गहरा है, यह इस बात से स्पष्ट है कि वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन सहित उनके अधिकांश पूर्ववर्तियों ने ईसाइयों के पवित्रग्रंथ बाइबल के साथ शपथ ग्रहण करते हुए पदभार संभाला है। गत वर्ष ही अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में करदाताओं के पैसे से चर्च प्रेरित स्कूलों के राजकीय वित्तपोषण को और अधिक सुदृढ़ किया था।
देश में “निरंकुशता” बढ़ने का दावा करने वाली “वी-डैम” की स्थापना वर्ष 2014 में स्वीडन में हुई थी, जहां की शासन-व्यवस्था पर “चर्च ऑफ स्वीडन” का गहरा प्रभाव है। “वी-डैम” का संगठनात्मक स्वरूप ही भारत विरोधी है। इसके मुख्य वित्तपोषकों में यूरोपीय संस्थाओं और इस्लामी संगठन के अतिरिक्त “ओपन सोसाइटी फाउंडेशन” नामक स्वयंसेवी संस्था भी शामिल है, जिसकी कमान उस अमेरिकी खरबपति कारोबारी जॉर्ज सोरोस के हाथों में है, जो वर्ष 2019 में घोषित तौर पर भारत में राष्ट्रवाद को कमजोर करने हेतु 100 करोड़ अमेरिकी डॉलर के वित्तपोषण की बात कह चुका है। यही नहीं, वी-डैम के सलाहकार मंडल में जिन व्यक्तियों को स्थान दिया गया है, उसमें पाकिस्तान जैसे उस इस्लामी राष्ट्र के पूर्व न्यायाधीश एतज़ाज हसन को जगह दी गई है, जिसका वैचारिक-सत्ता अधिष्ठान भारत/हिंदू विरोध पर टिका हुआ है।
मजेदार बात तो यह है कि “वी-डैम” ने जिस डेनमार्क, ग्रीस, आइसलैंड, कोस्टा रिका, फिनलैंड आदि को अपनी रिपोर्ट में “उदार-लोकतंत्र” बताया है, उनमें से कई देशों का संविधान चर्च प्रेरित है। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि “वी-डैम” की भारत विरोधी रिपोर्ट किसी बड़े सर्वेक्षण पर आधारित ना होकर मात्र 25 या उससे कुछ अधिक “विशेषज्ञों” के विचारों पर स्थापित है, जिसमें लगभग दो-तिहाई लोग भारतीय हैं। सोचिए, 138 करोड़ की आबादी वाले भारत का आंकलन 25 ऐसे लोग कर रहे है, जिसमें से कई वैचारिक और मजहबी कारणों से भारतीय संस्कृति का विरोध करते हैं। यह पहली बार नहीं है, जब किसी विदेशी संस्था ने भारत विरोधी भ्रामक रिपोर्ट तैयार की हो।
वास्तव में, यह अमेरिकी और यूरोपीय संगठन “ईस्ट इंडिया कंपनी” की उस कुटिल औपनिवेशिक और “व्हाइट मैन बर्डन” मानसिकता से ग्रस्त है, जो कभी सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, मजहबी सहिष्णुता, पर्यावरण, मानवाधिकार और कभी पशु-अधिकार रक्षा के नाम पर भारत की मूल सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परंपराओं पर आघात करके देश को पुन: विभाजित करना चाहते हैं। उनके इस एजेंडे के समक्ष मोदी सरकार बड़ी अवरोधक बनकर उभरी है। गत वर्ष संसद से पारित एफ.सी.आर.ए. संशोधन विधेयक इन संगठनों के लिए बड़ा झटका है, क्योंकि वर्ष 2016-2019 के बीच एफ.सी.आर.ए. पंजीकृत एनजीओ को 58,000 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ था।
यह सर्वविदित है कि देश की अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं को सर्वाधिक विदेशी चंदा ईसाई धर्मार्थ संगठनों से प्राप्त होता है। इस प्रकार के विदेशी संगठनों की असलियत क्या है – यह ब्रितानी स्वयंसेवी संगठन ऑक्सफैम (1942 से स्थापित) के क्रियाकलापों से स्पष्ट हो जाता है। वर्ष 2010 में अफ्रीकी देश हैती में चंदे के पैसों को वेश्याओं पर लुटाने और मदद देने के बदले भूकंप पीड़ित महिलाओं-युवतियों से यौन संबंध बनाने के मामले में बदनाम ऑक्सफैम को लेकर एक और खुलासा हुआ है। ब्रितानी मीडिया “द टाइम्स” के 7 अप्रैल, 2021 के संस्करण में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, अफ्रीकी देश कांगो में ऑक्सफैम ने अपने दो वरिष्ठ सहयोगियों को पद का दुरुपयोग करते हुए मिशन-कार्यालय में सहयोगियों का यौन-उत्पीड़न करने के आरोप में निलंबित किया है। चिंताजनक बात यह है कि जिस प्रकार ऑक्सफैम ने हैती यौनाचार घटनाक्रम में पहले से जानकारी होने के बाद भी आरोपियों का बचाव किया था, वैसे ही कांगो मामले में यह संस्था आंतरिक सूचना होने के बाद भी दो वर्षों से मौन रही है।
आखिर इन संस्थाओं की काली-सच्चाई पर देश का एक वर्ग चुप क्यों रहता है? यह दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी इस कुनबे का स्वाभिमान मृत है और उनके वैचारिक खुराक का मुख्य स्रोत आज भी विदेशी मार्क्स-मैकॉले चिंतन बना हुआ है। मीडिया, नौकरशाही से लेकर राजनीति आदि क्षेत्रों में ऐसे ढेरों लोगों की भरमार है। हाल ही में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी इस बात से असंतुष्ट हो गए थे कि भारत के आंतरिक मामलों पर अमेरिका अब कुछ नहीं बोलता है। राहुल ने 2 अप्रैल, 2021 को पूर्व अमेरिकी राजनयिक निकोलस बर्न्स से ऑनलाइन चर्चा में नाराज़गी जताते हुए कहा था, “…भारत में क्या हो रहा है, मैं इस पर अमेरिकी सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं सुनता…” बात केवल राहुल तक सीमित नहीं है। इससे पहले अगस्त 2020 में कांग्रेस नीत संप्रग शासनकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे और पूर्व भारतीय राजदूत शिवशंकर मेनन भी एक आलेख के माध्यम से इस बात पर घोर आपत्ति जता चुके थे कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मोदी सरकार को अपनी नीतियों को लागू करने के लिए “फ्री-पास” दे दिया है। वास्तव में, राहुल और मेनन जैसे मानस बुंधओं में भारत के प्रति हीनभावना इतनी भर गई है कि उनका राष्ट्रीय आत्मसम्मान और स्वाभिमान समाप्त हो चुका है और वह भारत को पुन: विदेशी शक्ति द्वारा संचालित होता देखना चाहते है। सच तो यह है कि इस प्रकार के भारतीय, विदेश में बैठे देशविरोधी ताकतों के “पारंपरिक हथियार” बन चुके हैं – जो निजी स्वार्थ हेतु देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को पाकिस्तान और चीन की भांति चुनौती दे रहे है।