एक झूठे ‘नैरेटिव’ की अस्थायी जीत

नूपुर शर्मा मामला : एक झूठे 'नैरेटिव' की अस्थायी जीत

बलबीर पुंज

नूपुर शर्मा मामला : एक झूठे 'नैरेटिव' की अस्थायी जीतएक झूठे ‘नैरेटिव’ की अस्थायी जीत

क्या नुपूर शर्मा और नवीन कुमार जिंदल पर देश-विदेश में हो रही चर्चा और उन पर हुई कार्रवाई सभ्य समाज की ‘हेट-स्पीच’ अर्थात् द्वेषपूर्ण भाषण पर विजय है? वास्तव में, यह आठ वर्षों से झूठ पर निर्मित ‘असहिष्णुता’ संबंधित नैरेटिव की सनातन भारत पर एक अस्थायी जीत है। हमारे देश में जिहादी, वामपंथी और मोदी-विरोधी (राजनीतिक) खेमे ने पाकिस्तान, कतर, कुवैत और सऊदी अरब जैसे घोर इस्लामी देशों के साथ मिलकर भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदा किया है। प्रश्न है कि नुपूर-नवीन ने जो कुछ कहा, क्या वह सचमुच ‘हेट-स्पीच’ के मापदंड में आता है? इन दोनों ने केवल उसी तथ्य को ‘अमर्यादित’ रूप से दोहराया था, जो बार-बार इस्लाम के विद्वान अपनी तकरीर में कहते है और जो इस्लामी वांग्मय का भाग भी है। वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्रीय सत्तारुढ़ भाजपा ने अपने दोनों नेताओं पर जो कार्रवाई की है, वह राष्ट्रहित से प्रेरित है। भारत के कुल तेल आयात का 60 प्रतिशत हिस्सा खाड़ी देशों से आता है और वहां पर लगभग डेढ़ करोड़ भारतीय कार्यरत हैं।

पिछले आठ वर्षों में मोदी सरकार ने धरातल पर ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ की नीति पर सतत काम करते हुए कई ठोस उपलब्धियां प्राप्त की हैं। बिना किसी मौद्रिक-रिसाव के करोड़ों लाभार्थियों के खाते में सीधा पैसा पहुंचाना और जनकल्याणकारी योजनाओं से उन्हें लाभान्वित करना, वह भी बिना किसी मजहबी, क्षेत्रीय और जातीय भेदभाव के- एक उल्लेखनीय सफलता है। किंतु मीडिया का एक प्रभावी वर्ग, जिसमें अंग्रेजी के लगभग आधा दर्जन से अधिक समाचारपत्र शामिल हैं- वह वर्ष 2014 से तथ्यों को विकृत करके ‘असहिष्णुता’ आधारित ‘नैरेटिव’ बनाने में लीन है। भारत के अधिकांश लोग इनके ‘नैरेटिव’ से शायद ही प्रभावित होते हैं, क्योंकि वे जमीनी स्तर पर सच्चाई से अवगत हैं और उनके दुष्प्रचार को देशविरोधी और झूठा-मिथ्यापूर्ण मानते हैं। संभवत: इसी बात से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व निश्चिंत रहा और जिस प्रकार इन दुष्प्रचारों की ओर ध्यान देना चाहिए था, पार्टी उसमें चूक गई।

यह सच है कि 138 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत में अंग्रेजी समाचार पत्रों के पाठकों की संख्या तीन करोड़ के आस-पास है, जो हिंदी और अन्य भाषाओं के अखबार पढ़ने वालों (लगभग 40 करोड़) की तुलना में बहुत कम है। भले ही अंग्रेजी दैनिक कम बिकते हों, परंतु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि तो इन्हीं समाचारपत्रों के माध्यम से बनती है। आठ वर्षों से सप्ताह दर सप्ताह देश के कई अंग्रेजी अखबारों में तथाकथित विद्वानों और स्वयंभू विशेषज्ञों ने ‘असहिष्णुता’ के अतिरिक्त ‘इस्लामोफोबिया’, ‘मुस्लिम खतरे में हैं’ आदि किस्म के भारतविरोधी जुमले गढ़े। इसी में एक बहुसंस्करणीय प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने तो अपने संपादकीय और अन्य आलेखों में यहां तक कहना शुरू दिया कि भारत में तथाकथित हिंदूवादी शक्तियां मुसलमानों के नरसंहार की योजनाएं बना रही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण तो था ही कि इन समाचारपत्रों ने मिथ्या-प्रचार किया, किंतु उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह थी कि इस भारत-विरोधी दुष्प्रचार को ध्वस्त करने का कोई समुचित प्रयास नहीं किया गया।

दूसरी ओर, वैश्विक नैरेटिव बनाने वाले ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ जैसे मुखर भारत विरोधी विदेशी अखबारों और ‘ऑक्सफैम’, ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशन’, ‘एमनेस्टी’ जैसे अनिष्ट-कुटिल विदेशी संगठनों के भारत में वित्त पोषणों को भी या तो कम करके आंका गया या फिर उसका संज्ञान तक नहीं लिया गया। इसलिए जब देश के भीतर असंख्य बौद्धिक ‘मीर जाफरों’ और ‘जयचंदों’ के गिरोह ने ‘हेट स्पीच’ पर दुष्प्रचार किया, तो बिना तथ्यों को जाने उस मनगढ़ंत नैरेटिव पर शेष विश्व अपनी राय बनाने लगा। जमीनी स्तर पर कार्य करना, ठोस काम करना- निस्संदेह बड़ी बात है, परंतु आज के युग में ‘नैरेटिव’ वास्तविकता के साथ जुड़ा रहे- यह उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण विषय है। शायद हम ‘नैरेटिव’ के महत्व को नहीं समझ पाए और नुपूर-नवीन संबंधित लड़ाई हार गए। यह पराजय अस्थायी है, पर यह लड़ाई अभी बहुत लंबी है।

क्या नुपूर-नवीन का मामला इस्लामी अस्मिता से जुड़ा है? यदि यह विषय वाकई ‘इस्लामोफोबिया’, ‘पैगंबर साहब और कुरान के अपमान’ का होता, तो जो मुस्लिम देश और भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान नुपूर-नवीन की एक प्रतिक्रिया पर आज बिलबिला रहे हैं, वे चीन में वर्षों से मुसलमानों के राजकीय दमन पर चुप क्यों है? नुपूर-नवीन ने तो मुस्लिम-पक्षकारों द्वारा शिवलिंग का बार-बार अपमान-उपहास किए जाने पर आवेश में आकर मात्र एक टिप्पणी की थी, किंतु चीन तो खुलकर अपने यहां पैगंबर साहब की विरासत और इस्लाम को ही मिटाने में लगा है। साम्यवादी चीन इसे अपनी कट्टरता-आतंकवाद-अलगाववाद के प्रसार को रोकने और चीनी समाजवाद के विस्तार संबंधित नीति का हिस्सा बताता है। अब यह ‘नैरेटिव’ की ही ताकत है कि चीन के शिंजियांग स्थित जेलनुमा-शिविरों में मुसलमानों को यातना देने संबंधित कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट सामने आने के बाद भी चीन के समक्ष वैश्विक मुस्लिम समाज ‘उम्माह’ नतमस्तक है। यह इस वर्ष 22-23 मार्च में पाकिस्तान में संपन्न हुई ‘इस्लामिक सहयोग संगठन’ (ओआईसी) की बैठक से भी स्पष्ट है, जो अक्सर कश्मीर-फिलीस्तीन पर अवांछनीय-अनावश्यक प्रस्ताव पारित करता रहता है- उसमें चीनी विदेश मंत्री वांग यी को विशेष आमंत्रित किया गया था। तब वहां चीनी मुस्लिमों के राजकीय उत्‍पीड़न पर प्रस्ताव तो दूर ओआईसी सदस्यों का इस पर एक शब्द भी नहीं निकला। भारत और चीन की स्थिति में शायद अंतर इसलिए भी है, क्योंकि चीन की अधिनायकवादी व्यवस्था अपने बीच ‘मीर जाफरों’ और ‘जयचंदों’ को सहन नहीं करती। यह हास्यास्पद है कि कतर, पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे वे इस्लामी देश नुपूर-नवीन मामले में भारत को ‘मानवाधिकार’, ‘सह-अस्तित्व’ और ‘सहिष्णुता’ आदि पर उपदेश दे रहे हैं, जिनके स्वयं के वैचारिक-राजनीतिक अधिष्ठान में मजहबी कारणों से इन मूल्यों का कोई मोल नहीं और उनके अल्पसंख्यक दूसरे दर्जे के नागरिक से भी बदतर जीवन जीने को विवश हैं।

नुपूर-नवीन के घटनाक्रम से जहां हमें नैरेटिव के महत्त्व को समझने में सहायता मिलती है, वहीं इसने देश में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर भारत-हिंदू विरोधी गतिविधियों को भी एक बार फिर से बेनकाब कर दिया है। जब ज्ञानवापी परिसर में मिले शिवलिंग पर विवादित पोस्ट करने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतनलाल को गिरफ्तार किया गया, तब एकाएक वामपंथी-जिहादी-सेकुलर कुनबा ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘विचारों की आजादी’ का झंडाबरदार बनकर रतनलाल के समर्थन में खड़ा हो गया। किंतु जब नुपूर-नवीन ने शिवलिंग के अपमानस्वरूप विभिन्न मंचों पर अपनी प्रतिक्रिया दी, तो उसी जमात के लिए वह ‘हेट-स्पीच’, ‘इस्लामोफोबिया’, ‘असहिष्णुता’, ‘सांप्रदायिक’ आदि का पर्याय हो गया।

बात केवल रतनलाल तक सीमित नहीं। ऐसे असंख्य मामले हैं- चाहे वह दिवंगत चित्रकार एम.एफ. हुसैन द्वारा हिंदू देवी की नग्न तस्वीर बनाना हो, ‘पी.के.’ जैसी फिल्मों में हिंदू आराध्यों का अपमान करना हो या फिर आजकल की हिंदू-विरोधी ‘स्टैंडअप-कॉमेडी’। विरोधाभास की पराकाष्ठा देखिए कि जब फ्रांस में एक जिहादी ने पैगंबर साहब का कार्टून दिखाने पर, इस्लाम की नजरों में- ‘अपराधी’ शिक्षक सैमुअल पैटी की हत्या कर दी थी, तब उस अभागे फ्रांसीसी शिक्षक के लिए हमारे देश के ‘सेकुलर-उदारवादी’ बुद्धिजीवियों की संवेदनाएं उमड़ गई थीं, किंतु आज वह समूह नुपूर-नवीन को मिल रही ‘सर तन से जुदा’ जैसी धमकियों को मौन स्वीकृति दे रहा है। क्या ऐसे दोहरे मापदंडों से समाज में शांति-समरसता संभव है?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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