नेहरू कर सकते हैं, तो मोदी क्यों नहीं?

नेहरू कर सकते हैं, तो मोदी क्यों नहीं?

बलबीर पुंज

नेहरू कर सकते हैं, तो मोदी क्यों नहीं?नेहरू कर सकते हैं, तो मोदी क्यों नहीं?

हाल ही में निर्माणाधीन नए संसद भवन के शीर्ष पर राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक स्तंभ’ को स्थापित कर दिया गया। इस संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 जुलाई को पूजा-अर्चना के साथ इस विशालकाय प्रतिमा का अनावरण किया था। दो पुजारियों ने वैदिक मंत्रों के साथ सभी कर्मकांडों को विधिवत संपन्न कराया। इस पूरे कार्यक्रम पर स्वयंभू सेकुलरवादियों, वामपंथियों और उदारवादियों ने अपनी आपत्ति व्यक्त कर दी। विमर्श बनाया गया कि इस अशोक स्तंभ के सिंहों की मुद्रा-भाव, सारनाथ से भिन्न है। वास्तव में, यह उत्कंठा शेरों के हाव-भाव को लेकर ही नहीं, अपितु प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वैदिक रीतियों के अनुरूप पूजा करने के कारण भी है।

इस तरह की आपत्ति और आरोप- बौद्धिक कपट का उदाहरण है। क्या भारत में सेकुलरवाद का अर्थ यह है कि व्यवस्था ‘धर्म’-विहीन हो जाए? ‘धर्म’ और ‘मजहब’ (रिलीजन)- दोनों अलग संज्ञाए है। वैदिक संस्कृति संकीर्ण नहीं, अपितु विश्व के साथ समस्त ब्रह्मांड के कल्याण की भावना को समेटी हुई है। ऐसे में इसे मजहबी चश्मे से देखना गलत है। इसमें शांति, एकता और भाईचारे का भाव निहित है। यदि प्रधानमंत्री मोदी ने नए संसद भवन में राष्ट्रीय प्रतीक अनावरण पर वैदिक-अनुष्ठान किया है, तो उन्होंने उसी सनातन परंपरा को आगे बढ़ाया है, जिसे स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्थापित किया था। अधिकांश पाठकों को 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में पं.नेहरू द्वारा दिया प्रसिद्ध “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” भाषण स्मरण होगा। किंतु उससे पहले जो कुछ हुआ था, शायद ही कोई पाठक इसके बारे जानता होगा।

अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र भारत को सत्ता हस्तांतरण न केवल राजनीतिक और कानूनी रूप से हुआ था, अपितु उसे वैदिक रीतियों से भी संपन्न कराया गया था। पं.नेहरू ने राजकाज उसी वैदिक अनुष्ठान और श्रद्धा के साथ संभाला था, जिसका निर्वाहन सदियों से अनेकों हिंदू शासक अपने ‘राज्याभिषेक’ के दौरान करते रहे। इस अविस्मरणीय घटना का उल्लेख दक्षिण भारत के कुछ तत्कालीन पत्रिकाओं-समाचारपत्रों, प्रख्यात अमेरिकी ‘टाइम्स’ पत्रिका और लैरी कॉलिंस-डॉमिनिक लैपियर द्वारा लिखित पुस्तक “फ्रीडम एट मिडनाइट” (1975) में किया गया है। इन सबके अनुसार, जब लॉर्ड माउंटबेटन ने पं.नेहरू से पूछा कि भारत को किस अनुष्ठान से स्वतंत्रता दी जाए, तब नेहरू ने सी.राजागोपालाचारी से परामर्श लिया और फिर उन्होंने तत्कालीन तमिलनाडु स्थित हिंदू मठ ‘तिरुवदुथुराई अधीनम’ (मठ के संन्यासी मुखिया) से पांरपरिक कर्मकांड हेतु संपर्क किया। तब मठ द्वारा स्वर्ण मढ़ित, पांच फीट लंबे और दो इंच मोटे ‘राजदंड’ को तैयार किया गया। यह ‘राजदंड’ परंपरा से धर्म और शक्ति- दोनों का प्रतीक होता है।

तब भारत सरकार द्वारा प्रबंध विशेष विमान से उस ‘राजदंड’ को दो विशेष मुनियों के साथ दिल्ली लाया गया। तत्कालीन मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 14 अगस्त को दोनों पुजारी अपने अन्य अनुचरों के साथ वैदिक मंत्रोच्चारण और अनुष्ठानिक वाद्ययंत्र ‘नादस्वरम’ से सुशोभित अन्य देशज परंपराओं का निर्वाहन करते हुए पं.नेहरू के निवास पर पहुंचे। तब पुजारियों के पास एक बड़ी चांदी की थाली थी, जिसमें भगवान को समर्पित वस्त्र पीतांबरम रखा हुआ था। पहले ‘राजदंड’ को माउंटबेटन को दिया गया, फिर उनसे वापस लेकर उसे पवित्र गंगाजल से शुद्धिकरण करके, वैदिक छंदों के साथ पं.नेहरू को पीतांबरम ओढ़ाकर सौंप दिया गया। इस दौरान एक पुजारी ने तंजौर से लाए पवित्र जल को पं.नेहरू पर छिड़ककर उनके माथे पर तिलक लगाया और उन्हें भगवान शिव को अर्पित कुछ पके हुए चावल दिए। बाद में संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ.राजेंद्र प्रसाद के आवास पर भी चार केले के पेड़ से बनाए गए अस्थायी लघु मंदिर में पवित्र अग्नि को प्रज्वलित किया गया। सैंकड़ों महिलाओं द्वारा वैदिक स्तोत्र के बीच तब पुजारी ने देश के भावी मंत्रियों पर पवित्र जल छिड़ककर उन्हें तिलक लगाया। वह ‘राजदंड’ आज भी उत्तरप्रदेश स्थित प्रयागराज संग्रहालय में सुरक्षित है। किंतु बौद्धिक धूर्तता देखिए कि इस बड़े ऐतिहासिक घटनाक्रम को देश से दशकों तक इसलिए छिपाया (पाठ्य पुस्तकों सहित) गया, ताकि विकृत ‘सेकुलरवादी विमर्श’ को आगे बढ़ाया जा सके।

वर्तमान भारतीय व्यवस्था अनादिकाल से प्राचीन वैदिक संस्कृति और परंपराओं से पोषित होती रही है। इस अकाट्य सत्य को सत्ता हस्तांतरण हेतु वैदिक रीतियों के अनुपालन के साथ अन्य कई बातों से भी रेखांकित किया जा सकता है। वर्ष 1931 से दिल्ली स्थित लुटियंस क्षेत्र में विद्यमान भव्य राष्ट्रपति भवन (स्वतंत्रता से पहले ‘वायसराय हाउस’) की छतों-दीवारों पर अब भी स्वर्ण-अक्षरों में श्रीमद्भागवत गीता के कई संस्कृत श्लोकों आदि को देखा जा सकता है। भारतीय संविधान की हिंदी-अंग्रेजी मूलप्रतियां, प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस द्वारा उकेरी गई वैदिक काल, रामायण, महाभारत, मोहनजोदड़ो, बुद्ध के उपदेश, महावीर के जीवन इत्यादि से विभूषित हैं। यही नहीं, दिल्ली स्थित राजघाट क्षेत्र में गांधीजी के स्मारक पर ‘हे राम’ आज भी अंकित है।

स्वतंत्र भारत में वैदिक अनुष्ठान के अनुरूप राजकीय कार्यक्रम का संचालन ‘सेकुलर मूल्यों का अपमान’ नहीं, अपितु समरस और मानवीय बहुलतावादी दर्शन का अनुप्रास है। सदियों पहले जब पारसी, यहूदी, सीरियाई ईसाई अपने उद्गमस्थान पर मजहबी प्रताड़ना का शिकार होकर भारत में शरण लेने आए, तब उनका न केवल स्थानीय हिंदू शासकों और समाज द्वारा स्वागत किया गया, साथ ही उन्हें उनकी पूजा-पद्धति का अनुसरण करने की स्वतंत्रता भी दी। यही नहीं, भारत में पैगंबर साहब के जीवनकाल में अरब के बाहर विश्व की पहली मस्जिद- ‘चेरामन जुमा मस्जिद’ का निर्माण, वर्ष 629 में तत्कालीन केरल के हिंदू राजा चेरामन पेरुमल भास्करा रवि वर्मा ने कोडुंगल्लूर में करवाया था। यह सब इसलिए संभव हुआ, क्योंकि समावेशी भारतीय वैदिक दर्शन न तो ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा जैसा असहिष्णु है और ना ही ‘हीथन’ मानसिकता व अनिश्वरवादी वामपंथ जैसा संकुचित। भारत यदि पंथनिरपेक्ष है, तो वह संविधान के चलते नहीं, अपितु अपने हिंदू चरित्र और वैदिक परंपराओं के कारण है। विगत सहस्राब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के जिन क्षेत्रों में मजहबी ‘एकेश्वरवाद’ का कब्जा हुआ, वहां स्थानीय हिंदू-बौद्ध-सिख-जैन अनुयायी नगण्य हो गए और बहुलतावाद-लोकतंत्र रूपी जीवनमूल्यों का ह्रास हो गया। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, कश्मीर के साथ शेष खंडित भारत के कई अन्य क्षेत्र (झारखंड स्थित जामताड़ा सहित)- इसके प्रमाण है।

दिलचस्प है कि भारत में अक्सर स्वयंभू उदारवादी, बुद्धिजीवी और स्वघोषित ‘संविधान-रक्षक’, ईसाई बाहुल्य अमेरिका, ब्रिटेन या कई यूरोपीय देशों के ‘सेकुलरवाद’ को आदर्श और अनुकरणीय मानते है। वर्ष 1789 से एक-दो अपवादों को छोड़कर सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों (जो बाइडन सहित) ने ईसाइयों के पवित्रग्रंथ बाइबल पर हाथ रखकर शपथ ली है। ब्रिटेन में ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’, जिसके संरक्षण हेतु ब्रितानी राजघराना प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है- उसके कुल 42 बिशप-आर्कबिशप में से 26 के लिए ब्रितानी संसद के उच्च सदन- ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ में स्थान आरक्षित है। शासकीय वरिष्ठता में कैंटरबरी के आर्कबिशप ब्रितानी प्रधानमंत्री से ऊपर है।

भारत की क्या स्थिति है? यदि क्रूर इस्लामी शासन को छोड़ दें, तो हम पाएंगे कि भारत में धर्मनिष्ठ हिंदू राजा तो अनेकों हुए, किंतु किसी ने भी अपनी व्यक्तिगत आस्था को शासकीय व्यवस्था का अंग नहीं बनाया। इसका एकमात्र अपवाद सम्राट अशोक थे, जिन्होंने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध मत स्वीकार करके इसके प्रचार-प्रसार में राज्य के संसाधनों का उपयोग किया। बीते 75 वर्षों से उन्हीं सम्राट अशोक का ‘धम्म-स्तंभ’ भारत के प्रतीक-चिन्ह के रूप में विद्यमान है।

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