न्याय की देवी अहिल्याबाई
अहिल्याबाई होल्कर जयंती/31 मई
दिप्ती शर्मा
सनातन संस्कृति की रक्षक देवी अहिल्याबाई होल्कर एक अनन्य शिव भक्त रहीं हैं। शिव शंकर की परम उपासकों में प्रसिद्ध देवी अहिल्याबाई ने कभी अपने नाम का हस्ताक्षर नहीं किया, अपितु हर सांस में शिव नाम जपने वाली सतीत्व रूपी भारतीय वीरांगना अहिल्याबाई ने अपने हस्ताक्षर के रूप में सदैव श्रीशंकर लिखा। उनका हर आदेश भगवान शिव का आदेश माना जाता था।
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 में वर्तमान अहमदनगर जिले के जामखेड़ तहसील के चौंडी ग्राम में मणकोजी शिंदे के घर में हुआ। एक बार पेशवा महाराजा मालवा से पूणे जा रहे थे, उस दौरान चौंडी ग्राम में उनका पड़ाव हुआ। प्रात:काल टहलते समय शिव मन्दिर में पूजा में लीन एक बालिका उन्होंने देखी। उन्होंने मल्हारराव से कहा कि ”आपके पुत्र खंडेराव के लिए वह बालिका सुयोग्य है, आप उसे अपनी पुत्रवधू बनाओगे तो कुल का नाम उज्ज्वल करेगी।” बालिका को देखकर मल्हारराव भी प्रसन्न हुए थे। पेशवा महाराज ने मणकोजी शिंदे को बुलाकर यह प्रस्ताव रखा। ऐसा सौभाग्य वह ठुकरा नहीं सकते थे, अत: उन्होंने प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। 20 मई, 1737 को खंडेराव होलकर के साथ अहिल्याबाई का विवाह सम्पन्न हुआ। धीरे-धीरे वह अपने राज्य प्रशासन की बारीकियों के अध्ययन में रुचि लेने लगीं और हाथ बंटाने लगीं।
मल्हारराव लड़ाइयों में जाते समय अहिल्या पर राज्य की जिम्मेदारी सौंपकर जाते। अधिकारियों को उचित सूचना देते थे कि ”राज्य की आय सूबेदार के पराक्रम एवं प्रारब्ध पर निर्भर है, लेकिन उसकी व्यवस्था देखना, लाभ-हानि का विचार करना आदि अहिल्याबाई के आदेश से ही होगा।”
24 मार्च, 1754 को कुंभेरी की लड़ाई में युद्ध के दौरान पति को वीरगति प्राप्त होने के उपरांत प्रशासक के अभाव में राज्य लावारिस एवं शासनहीन न हो, अहिल्याबाई ने स्वयं पुत्र वधू से अपने राज्य की शासक पुत्र बन रूढ़िवादी परम्पराओं को समाप्त किया। उनके ससुर मल्हारराव व सास गौतमाबाई का आशीर्वाद सदैव उनके साथ रहा। उनके कुशल नेतृत्व व प्रशासन के कारण प्रजा ने उन्हें देवी की उपाधि दी। जिसके बाद उन्हें अहिल्यादेवी होल्कर पुकारा जाने लगा। वह सनातनी हिन्दुत्वनिष्ठ महारानी के रूप में विख्यात हुईं। उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक धार्मिक कार्यों को पूरा किया।
18वीं सदी में राजधानी माहेश्वर में नर्मदा नदी के किनारे एक भव्य अहिल्या महल बनवाया। द्वारिका, रामेश्वर, बद्रीनारायण, सोमनाथ, अयोध्या, जगन्नाथ पुरी, काशी, गया, मथुरा, हरिद्वार, आदि स्थानों पर कई प्रसिद्ध एवं बड़े मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया और धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। दुनिया भर में प्रसिद्ध वाराणसी स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। वहीं, अपने शासनकाल में सिक्कों पर ‘शिवलिंग और नंदी’ अंकित करवाए।
सनातन संस्कृति और भारत वर्ष को उनका समर्पण अविस्मरणीय है, जो इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है और सदैव रहेगा। भारत की हर नारी को सशक्त बनाने में उनका योगदान है। एक नारी शक्ति के रूप से देवी के स्वरूप में स्थान लेने वाली न्याय प्रिय मां अहिल्याबाई के जीवन की यूं तो बहुत सी सत्य कहानियां हैं। लेकिन उनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण है, न्याय की देवी अहिल्याबाई का अपने स्वयं के पुत्र को मृत्यु दण्ड की सजा सुनाना। कहते हैं नारी की शक्ति ममत्व के समक्ष समझौता कर लेती है और पुत्र मोह तो नारी को सदैव प्राणों से प्रिय होता है। अपने पुत्र के प्रेम में एक नारी दुनिया की किसी भी कसौटी से टकराने से नहीं डरती है। अक्सर मां ऐसी परिस्थिति में सही ग़लत को मानने से भी इंकार कर देती है। परन्तु न्याय के प्रति सदैव सजग उदाहरण रहने वाली मां देवी अहिल्याबाई होल्कर ने इस कहावत को स्वयं पर चरितार्थ नहीं होने दिया। कुशल प्रशासक, वीरांगना, सनातन संस्कृति रक्षक, शक्ति स्वरूप अहिल्याबाई के बेटे मालोजी राव एक बार अपने रथ से सवार होकर राजबाड़ा के पास से गुजर रहे थे। तभी रास्ते में एक गाय का छोटा-सा बछड़ा खेल रहा था। लेकिन जैसे ही मालोराव का रथ वहां से गुजरा वो बछड़ा कूदता-फांदता रथ की चपेट में आकर बुरी तरह घायल हो गया। बस चंद मिनटों में तड़प-तड़प कर बछड़ा मर गया।
मालोजी राव ने इस घटना पर ध्यान नहीं दिया और अपने रथ समेत आगे बढ़ गए। वो गाय अपने बछड़े के पास पहुंची और बछड़े को मरा हुआ देखकर वहीं सड़क पर बैठ गई। तभी वहां से अहिल्याबाई का रथ गुजरा। वो ये नजारा देखकर वहीं ठिठक गईं। आसपास के लोगों से पूछने लगीं कि ये घटना कैसे हुई। किसी की यह हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वो मालोजी राव का नाम बता पाए। परन्तु ज्यों ही उन्हें घटना का पूरा वृतांत पता चला। अहिल्याबाई सीधे अपने घर पहुंचीं। वहां अपनी बहू को बुलाया। उन्होंने अपनी बहू से पूछा कि अगर कोई मां के सामने उसके बेटे पर रथ चढ़ा दे और रुके भी नहीं तो क्या करना चाहिए।
उनके इस सवाल पर उनकी बहू मेनाबाई ने कहा कि ऐसे आदमी को मृत्युदंड देना चाहिए। फिर जब वो सभा में पहुंचीं तो आदेश दिया कि उनके बेटे मालोजी राव के हाथ-पैर बांध दिए जाएं और उन्हें ठीक वैसे ही रथ से कुचलकर मृत्युदंड दिया जाए, जैसे गाय के बछड़े की मौत हुई थी। अहिल्या बाई का यह आदेश सुनकर सभी चौंक गए। क्योंकि यह कोई आम शासकीय आदेश नहीं था अपितु ममतामई मां का दूसरी मां को न्याय था।
कोई भी उस रथ की लगाम पकड़ने को तैयार नहीं हुआ। वो काफी देर इंतजार के बाद खुद उठीं और आकर रथ की लगाम थाम ली। लेकिन जैसे ही वो रथ को आगे बढ़ाने लगीं, तभी एक ऐसी घटना हुई जिसने सभी को एक नई ममत्व की भरी जीवंत मिसाल दिखाई। क्योंकि जैसे ही वो रथ को आगे बढ़ा रही थीं, तभी वही गाय आकर उनके रथ के सामने खड़ी हो गई। उन्होंने उस गाय को रास्ते से हटाने के लिए कहा, लेकिन वो बार बार आकर रथ के सामने खड़ी हो जाती। इस घटना से प्रभावित दरबारी और मंत्रियों ने कहा कि आप इस गाय का संकेत समझें वो भी चाहती है कि आप बेटे पर दया करें। वह भी मानों यह कह रही है, किसी मां को अपने बेटे के खून से अपने हाथ नहीं रंगने चाहिए। इस घटना से मालोजी राव बहुत कुछ सीख चुके थे।
यह घटनाक्रम सिर्फ कहानी मात्र नहीं है , यह वह सत्य है जो बताता है, एक शासक का राज्य – देश का हर कण, पशु-पक्षी, हर मानव जीवन, कल्याण संसाधन समान न्याय के अन्तर्गत आता है और आना चाहिए।
अहिल्याबाई ने मालवा की रानी के रूप में 28 सालों तक न्यायिक श्रेष्ठ सुशासन किया। ओंकारेश्वर पास नर्मदा के प्रति असीम श्रद्धा होने कारण उन्होंने महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया। भारत के इतिहास की श्रेष्ठ योद्धा रानी अहिल्याबाई होल्कर राजनीति व रणनीति के अनेक सशक्त उदाहरण हमें देकर गई हैं, जो आज के समय में अति महत्वपूर्ण हैं। एक स्त्री के रूप में उनका जीवन अनेक परीक्षाओं से भरा रहा है, वर्तमान की हर नारी को उन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए।
( लेखिका एक निजी महाविद्यालय में सहायक आचार्य हैं)