न्याय की अस्मत मत लुटने देना (कविता)

न्याय की अस्मत मत लुटने देना (कविता)

शुभम वैष्णव

न्याय की अस्मत मत लुटने देना (कविता)

टूट जाऊं मैं कभी तो
यह बात परिंदों से कह देना,
अभी हिसाब होगा तुम्हारे जुल्मों का
यह बात उन दरिंदों से कह देना।

यह ना समझना कि बच निकलोगे तुम
यह बात अब तुम समझ लेना,
मेरी अस्मत तो लूट ली दरिंदों ने
पर अब न्याय की अस्मत मत लुटने देना।

बहुत कुछ सहा है मैंने अब तक
अब मुझे कोई दोष मत देना,
कब तक अकेली लडूंगी न्याय की जंग
अब तो तुम भी मेरा साथ दे देना।

अभी तक ढंग से चलना भी नहीं सीखा था मैंने
इसलिए मेरे पहनावे को दोष मत देना
क्या लड़की होना गुनाह है जग में,
इस सवाल का जवाब इस बार दे देना।

अब छोड़कर जा रही हूं मैं यह दुनिया
तुम सब मेरी चिता को आग दे देना,
अगर कुछ देना ही है मुझे, तो बस
बेटियों को सुरक्षित समाज दे देना।

(जब किसी लड़की के साथ दुष्कर्म होता है तो उसके शरीर को ही चोट नहीं पहुंचती, उसकी आत्मा भी घायल हो जाती है। जिसका दर्द मृत्यु के बाद भी टीसता है और यदि वह लड़की छोटी बच्ची हो तो दर्द कई गुना बढ़ जाता है। इसी दर्द को शब्द देने का प्रयास है यह कविता)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *