पंडित दीन दयाल उपाध्याय: एक युग-दृष्टा
पंडित दीन दयाल उपाध्याय एक जाने–माने अर्थशास्त्री, लेखक, संपादक, राजनीतिक वैज्ञानिक, पत्रकार, समाजशास्त्री, इतिहासकार, विचारक, नियोक्ता और दार्शनिक थे। उनका जन्म 25 सितंबर 1916 को मथुरा के एक अत्यंत धार्मिक और निर्धन परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे। उन्होंने कला में स्नातक और साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई की। वह जनसेवा करने के मन्तव्य से राजकीय सेवा से जुड़े किन्तु उन्होंने शीघ्र ही न मात्र इसका परित्याग कर दिया बल्कि अपनी समस्त उपाधियों के प्रमाणपत्रों को जला दिया क्योंकि वह जिस प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक संरचना गढ़ना चाहते थे, राजकीय सेवा में रहते हुए उसे पूरा कर पाना संभव नहीं था।
दीनदयाल शासन और राजनीति के वैकल्पिक प्रारूपों के प्रस्तावक थे। उनका मानना था कि भारत के लिए न तो साम्यवाद और न ही पूंजीवाद उपयुक्त है। उनके मॉडल को एकात्म मानवदर्शन का सिद्धांत कहा जाता है, जिसे भारतीय जन संघ ने एक वैचारिक दिशा निर्देश के रूप में अपनाया गया।
1940 के दशक में उन्होंने लखनऊ से मासिक “राष्ट्रधर्म“, साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक “स्वदेश” की शुरुआत की। उनका मानना था कि धर्म किसी राज्य पर शासन करने का सबसे सही मार्गदर्शक सिद्धांत है। उन्होंने हिंदी में “चंद्रगुप्त मौर्य” नाटक और “शंकराचार्य” की जीवनी लिखी।
दुर्भाग्य से एक कार्यक्रम में भाग लेने रेल से जा रहे दीन दयाल उपाध्याय जी को फरवरी 11, 1968 को मुगल सराय रेलवे स्टेशन की पटरियों के पास में रहस्यमय तरीके से मृत पाया गया था।
पंडित दीन दयाल उपाध्याय के मुख्य कालजयी कथन
- अनपढ़ और मैले कुचैले लोग हमारे नारायण हैं । हमें इनकी पूजा करनी है। यह हमारा सामाजिक दायित्व और धर्म है। जिस दिन हम इनको सुंदर घर बनाकर देंगे, जिस दिन इनके बच्चों को और स्त्रियॉं को शिक्षा और जीवनदर्शन का ज्ञान देंगे, जिस दिन हम इनके पैर की बिवाइयों को भरेंगे और जिस दिन इनको उद्योग धंधों कि शिक्षा देकर इनकी आय को उठा देंगे, उस दिन हमारा भ्रातृत्व भाव व्यक्त होगा। ग्रामों में जहां समय अचल खड़ा है जहां माता पिता अपने बच्चों को बनाने में असमर्थ हैं वहाँ जब तक हम आशा और पुरुषार्थ का संदेश नहीं पहुंचा पाएंगे, तब तक हम राष्ट्र को जागृत नहीं कर सकेंगे। हमारी श्रद्धा का केंद्र आराध्य हमारे पराक्रम और प्रयत्न का उपकरणतथा उपलब्धियों का मानदंड वह मानव होगा जो आज शब्दशः अनिकेत और अपरिग्रही है।
- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (मानव प्रयास के चार प्रकार) की लालसा व्यक्ति में जन्मगत होती है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है।
- यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते हैं।
- हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों के मूलभूत एकात्म को देखा है।
- विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची– बसी हुई है।
- यह जरूरी है कि हम ‘हमारी राष्ट्रीय पहचान’ के बारे में सोचें इसके बिना ‘आजादी’ का कोई अर्थ नहीं है।
- भारत के सामने समस्याएँ आने का प्रमुख कारण, अपनी ‘राष्ट्रीय पहचान’की उपेक्षा है।
- मानवीय ज्ञान सार्वजनिक संपत्ति है।
- स्वतंत्रता मात्र तभी सार्थक हो सकती है, जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है।
- भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह एक एकीकृत समग्र रूप से जीवन पर दिखती है।
- जीवन में विविधता और बहुलता है फिर भी हमने हमेशा उनके पीछे एकता की खोज करने का प्रयास किया है।
- विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति, भारतीय संस्कृति की सोच रही है।
- टकराव प्रकृति की संस्कृति का लक्षण नहीं है, बल्कि यह उसके गिरावट का एक लक्षण है।
- हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा।
- जब अंग्रेज हम पर राज कर रहे थे, तब हमने उनके विरोध में गर्व का अनुभव किया, लेकिन अचरज की बात है कि अब जबकि अंग्रेज चले गए हैं, तो अब पश्चिमीकरण हमारी प्रगति का पर्याय बन गया है।
- पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन शैली दो अलग–अलग चीजें हैं। चूँकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हम आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों के सन्दर्भ में यह सच नहीं है।
- धर्मनिष्ठता का अर्थ एक पंथ या एक संप्रदाय है और इसका मतलब धर्म नहीं है।
- धर्म बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के लिये जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है।
- जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार मोड़ा जाता है, हमें संस्कृति और सभ्यता के दर्शन होते हैं।
- भगवान ने हर आदमी को हाथ दिये हैं, लेकिन हाथों की खुद से उत्पादन करने की एक सीमित क्षमता है। उनकी सहायता के लिए मशीनों के रूप में पूंजी की आवश्यकता होती है।
- एक देश लोगों का समूह है जो एक लक्ष्य, एक आदर्श, एक मिशन के साथ जीते हैं और इस धरती के टुकड़े को मातृभूमि के रूप में देखते हैं यदि आदर्श या मातृभूमि इन दोनों में से कोई एक भी नही है तो इस देश का अस्तित्व नहीं है।
- यदि मुझे दो या तीन और दीनदयाल मिल जायें, तो मैं भारत के पूरे राजनीतिक मानचित्र को बदल दूंगा।