पक्षी व्यथा
अरविन्द बैरवा
कर-कर कोशिशें लाख हजार,
फिर भी दाने चुगता चार।
किससे कहूँ कि मैं हूँ लाचार,
किसे सुनाएं अपनी व्यथा,
अपना नहीं है जग में कोई सखा।।
मेरा था बस एक सहारा,
जिनसे नापा करता था नभ सारा।
मानव को न करता तंग,
फिर क्यों किया मुझे अपंग?
धागों का उसने जाल बिछाया,
न मैं हाथ आया, न वह पकड़ पाया।
जब मैं वृक्ष पर जाकर बैठा,
पुनः मैं वहां से उड़ ना पाया।।
देखा तो धागों की जंजीरों ने,
वृक्ष पर मुझे जकड़ लिया था।
करता गया मैं लाख प्रयत्न,
फिर भी खुद को छुड़ा ना पाया।।
अंततः पैर कट गया था, मैं नीचे पड़ा था,
पंख टूट गए थे, कोई न वहॉं था।
मैं अंत समय में, बस यहीं पूछ रहा था,
हे जन! क्यों किया मुझे अपंग, मेरा भी तो एक परिवार था?