पण्डित दीनदयाल उपाध्याय : व्यक्तित्व और कृतित्व
डॉ. जयसिंह राठौड़
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय : व्यक्तित्व और कृतित्व
पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे सामान्य व्यक्ति, सक्रिय कार्यकर्ता, कुशल संगठक, प्रभावी नेता और मौलिक विचारक थे। साथ ही वे समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीति विज्ञानी और दार्शनिक भी थे।
पण्डित दीनदयाल का जन्म 25 सितंबर 1916 को जयपुर जिले के धानक्या गांव में हुआ। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय व माता जी का नाम रामप्यारी था। पण्डित दीनदयाल के पिताजी रेलवे में जलेसर स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर थे। उनके छोटे भाई का नाम शिवदयाल था। उस समय उनके नाना चुन्नी लाल शुक्ल धानक्या, जयपुर में स्टेशन मास्टर थे।
पं. दीनदयाल का शिशुकाल अपने नाना चुन्नीलाल के धानक्या रेलवे-स्टेशन के क्वार्टर में ही व्यतीत हुआ। यहीं पर उनके शिशुकाल की संस्कार सृष्टि पल्लवित हुई। पण्डित दीनदयाल ने चलना-फिरना व बोलना धानक्या में ही अपने नाना के यहां पर सीखा।
दीनदयाल जब 3 वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। तत्पश्चात, माता रामप्यारी को क्षय रोग हो गया और 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। दीनदयाल धानक्या में नाना चुन्नीलाल के घर 1924 में उनकी सेवानिवृत्ति तक रहे। तत्पश्चात वे मामा राधारमण के साथ रहने लगे। उनकी स्कूली शिक्षा गंगापुर सिटी, सवाई माधोपुर के रेलवे विद्यालय में शुरू हुई। थोड़े दिन बाद राधारमण का वहां से कोटा स्थानांतरण हो गया। दीनदयाल भी मामा के साथ कोटा चले गए। आगे की पढ़ाई उन्होंने कोटा और फिर सीकर में पूरी की। दसवीं की परीक्षा में अजमेर बोर्ड में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने पर सीकर के महाराजा कल्याण सिंह ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया और 250 रुपये का पुरस्कार व 10 रुपये मासिक छात्रवृत्ति भी स्वीकृत की।
उन्होंने इन्टरमीडियट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सेठ घनश्याम दास बिरला ने उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया। पण्डित दीनदयाल का 1916 से 1939 तक का लगभग 23 वर्ष की आयु तक का जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ। उच्च शिक्षा के लिए वे कानपुर चले गए। कानपुर में उनका सम्पर्क नाना जी देशमुख, सुंदर सिंह भण्डारी से हुआ। भाऊराव देवरस के सम्पर्क में आने पर वे 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन गए। तत्पश्चात, पं. दीनदयाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए।
सन 1952 में अखिल भारतीय जनसंघ का गठन होने पर वे संगठन मंत्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन 1953 में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए। उस समय डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जनसंघ के अध्यक्ष थे। पं. दीनदयाल ने अपना दायित्व इतनी कुशलता से व सतर्कता से निभाया कि डॉ. मुखर्जी ने उनके बारे में टिप्पणी की “यदि मुझे दीनदयाल मिल जाए तो मैं देश का राजनीतिक नक्शा बदल दूँगा।”
कालीकट अधिवेशन (दिसंबर 1967) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष पद ग्रहण करने के बाद वे दक्षिण भारत की यात्रा पर गए। कालीकट में हुए अधिवेशन में हजारों प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा “हमने किसी एक समुदाय या क्षेत्र की नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र की सेवा करने का संकल्प किया है। प्रत्येक देशवासी के खून में हमारा खून है और उनकी मज्जा हमारी मज्जा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक प्रत्येक देशवासी को इस गर्व की अनुभूति नहीं करा देंगे कि वे भारत माता की सन्तान हैं। हम भारत माता को सही अर्थों में सुजला, सुफला बना देंगे। दस प्रहरधारिणी दुर्गा के रूप में वह सभी बुराइयों को नष्ट कर देंगी। लक्ष्मी के रूप में वह सभी को समृद्ध करेंगी व सरस्वती के रूप में वह अंधकार को मिटा कर सभी को ज्ञान देंगी। अंतिम विजय के विश्वास के साथ हमें इस कार्य को करने के लिए समर्पित होकर जुट जाना है। परंतु अध्यक्ष चुने जाने के बाद विधाता को कुछ और ही स्वीकार था। 11 फरवरी 1968 को पटना जाते समय रेलगाड़ी में मुगलसराय स्टेशन पर उनकी रहस्यमय तरीके से हत्या कर दी गई।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र-जीवन दर्शन के श्रेष्ठ चिंतक थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानव दर्शन की अवधारणा दी। वो कहते थे- “भारत में रहने वाले और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाले मानव समूह एक ही ज़न हैं। सबकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब एक है। इसलिए भारतीय विचार का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत विद्यमान रहेगा।”
पण्डित दीनदयाल चलते फिरते विश्वकोश थे। वे उच्च कोटि के विचारक, दार्शनिक, लेखक और पत्रकार थे। उनकी लेखनी का पैनापन उल्लेखनीय है। वे राष्ट्रपिता बापू के समान राजनीति के आध्यात्मिकरण के पक्षधर थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर दिया। राजनीति पं. उपाध्याय के लिए साधन थी, साध्य नहीं। मार्ग थी, मंजिल नहीं।
वे भारत के उज्जवल अतीत से प्रेरणा लेते थे और उज्जवलतर भविष्य का निर्माण करना चाहते थे।
पण्डित दीनदयाल कहा करते थे- “नए युग का आविर्भाव हो रहा है, उसके लिए नए विचार, नई पीढ़ी और नए नेतृत्व की आवश्यकता है, पुरानी पीढ़ी अपना काम कर गई, नयी पीढ़ी को आगे आना होगा ।
यद्यपि पण्डित दीनदयाल उपाध्याय सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उन्होंने निःस्वार्थ राष्ट्र सेवा का जो आदर्श दिया वह हमें दीर्घकाल तक प्रेरणा देता रहेगा।